रचनाकार - दीपशिखा दुबे, इंदौर
वसुधा को आज जल्दी ही कॉलेज पहुंचना था, लेकिन किसी कारण से देर हो गई। आज दिवाली समारोह जो है। वहां प्रतिवर्ष धनतेरस के दिन कॉलेज में दिवाली समारोह मनाया जाता है और सभी सदस्यों को मिठाई के साथ ही बोनस भी मिलता है।
वसुधा जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा रही थी और शाम को मार्केट से लाने वाली चीजों के बारे में भी सोच रही थी। पिंकी के लिए नई फ्रॉक, बिट्टू के लिए नई साइकिल, घर के लिए रौशनी वाली माला और रंगोली खरीद लूंगी। इन सब विचारों में उलझी हुई वसुधा ऑटो का इंतजार कर रही थी और बार-बार घड़ी की तरफ देख रही थी कि तभी उसके सामने एक ई-रिक्शा आकर रुका।
वसुधा उसमें सवार हो गयी। ई-रिक्शा को एक महिला ड्राइवर चला रही थी। गेहुआ रंग और साधारण सी कदकाठी की उस महिला में कुछ असाधारण सी ही बात थी। बड़े ही आत्मविश्वास से वो मंजिल की तरफ बढ़ रही थी।
बातचीत के दौरान उसने अपना नाम रश्मि बताया। वसुधा ने पूछा- 'कितने बच्चे है तुम्हारे?' रश्मि बोली कि दो बेटियां हैं मैडम जी। दोनों अभी पढ़ाई कर रही हैं। तुम ये रिक्शा क्यों चलती हो? वसुधा ने पूछा।
पति को गुजरे तीन साल हो गए। पहले मेरे पति यह रिक्शा चलाते थे। हम भी अपनी बेटियों को टीचर बनाना चाहते थे। अब उनके गुजरने के बाद घर की जिम्मेदारी मुझ पर हैं। उनके इस सपने को पूरा करने के लिए दिन रात मेहनत करती हूं।
सुबह से ही काम पर निकल जाती हूं। आज धनतेरस हैं, दिनभर काम करके जो भी पैसे आएंगे उनसे बच्चों को नई किताबे और स्वेटर ले दूंगी। वसुधा उसकी छोटी-छोटी आंखों में पलते बड़े-बड़े सपनों को देख रही थी और मन ही मन सोच रही थी कि ये भी घर कि लक्ष्मी का ही एक रूप हैं।