Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia

हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल : नातिया कलाम के हिन्दू शायर 'तिलकराज पारस'

हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल : नातिया कलाम के हिन्दू शायर 'तिलकराज पारस'
webdunia

अवधेश सिंह

हिन्दू धर्म में जिस तरह जगराता और भजन संध्या जैसा जनमानस को अध्यात्म और भक्ति से जोड़ने व मन को शांति व संकल्प को संतोष देने वाला गीत-संगीत से जुड़ा कार्यक्रम होता है, वैसे ही मुस्लिम समुदाय में नात शायरी की हैसियत है। रमजान के मौके पर इसके आयोजन बहुतायत में होते हैं। उर्दू और फ़ारसी में इसे नात-ए-शरीफ़ कहते हैं।


यह इस्लामी साहित्य में एक पद्य रूप है जिसमें पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब की तारीफ़ करते लिखी जाती है। इस पद्य रूप को बड़े अदब से गाया भी जाता है। अक्सर नात-ए-शरीफ़ लिखने वाले आम शायर को नात गो शायर कहते हैं और इसे महफिल में प्रस्तुत करने वाले को नात ख्वां कहते हैं। यह नात ख्वानी का चलन भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में आम है। भाषा के अनुसार उर्दू, पश्तो, पंजाबी, सिन्धी व बंगाली भाषा में नात ख्वानी प्रचलित है। अन्य मुस्लिम देशों में नात ख्वां तुर्की, फ़ारसी, अरबी, कश्मीरी भाषा में भी पढ़ी जाती है।
 
देश में जहां कई जगहों पर छोटी-छोटी बातों को लेकर दोनों संप्रदायों के बीच जहर घोलने की कोशिश की जाती है, वहीं इससे इतर जबलपुर (मध्यप्रदेश) के निवासी तिलकराज 'पारस' सांप्रदायिक सौहार्द की अनोखी पहल को अंजाम पिछले 40 सालों से दे रहे हैं। आश्चर्य होता है की मुस्लिम संस्कृति के इस धार्मिक और अध्यात्म से जुड़े लेखन में कोई एक शख्स है, जो हिन्दू होकर भी इसमें रमा है और अपने तरीके से हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम कर रहा है।
 
नात शरीफ़, नात-ए-पाक शायर, नातिया कलाम के हिन्दू शायर तिलकराज 'पारस' का शुमार हिन्दोस्तान के बहुत ही मशहूर शायरों में होता है। गैरमुस्लिम होते हुए भी उन्होंने बेहद खूबसूरत नाते पाक कहे हैं। वे 23 जनवरी 1951 को जन्मे हैं। इनका पूरा नाम तिलकराज तिलवानी है, जो कि सिन्धी समाज से आते हैं। शायर ने उपनाम 'पारस' रखा, जो बाद में तिलकराज 'पारस' के नाम से नात शायरी के पुख्ता स्तंभ के रूप में दिख रहा है। इनके उस्ताद अब्दुल अंजुम साहब थे और इन्होंने इस आदाबी शायरी का सफर 1975 से शुरू किया।
 
ऐसे वक्त, जब वर्तमान सरकार 'सेकुलर हिन्दू राष्ट्र' की अवधारणा में एक के बाद एक मुस्लिम समाज की दिक्कतों को दूर करते हुए विकास की मुख्य धारा से उन्हें जोड़ने का काम कर रही है तब हिन्दू शायर द्वारा मुस्लिम समाज को नात शायरी के रूप में दिया जा रहा तोहफा राष्ट्र की इस अवधारणा को मजबूत कर रहा है। पिछले दिनों दिल्ली में उनसे हुई मुलाक़ात को आपके सामने रखते हुए हम मौजूदा सरकार की कोशिशों में एक शख्स की कोशिशों को भी जानने का प्रयास कर रहे हैं।
 
15 अगस्त विशेष

 
अवधेश सिंह- ये नात शायरी है क्या? इसे हिन्दू समाज किस रूप में लेता है?
 
पारस : नातिया शायरी हज़रत मोहम्मद की तारीफ और तौसीफ के लिए होती है। हिन्दु शायर इसे भजन के जैसा पवित्र मानते हैं।
 
अवधेश सिंह- हिन्दू-मुस्लिम एकता में इस शायरी की क्या भूमिका है?
 
पारस : कोई मुस्लिम जब हिन्दू शायर की लिखी हुई नात पढ़ता है, तो वह भाव-विव्हल होकर दोनों समुदायों के बीच की धार्मिक कटुता भुलाकर एक होने का प्रयास करता है। दो समुदायों में परस्पर विश्वास व एकता का आधार इससे बढ़ता है।
 
अवधेश सिंह- जब आम शायर मोहब्बत और गम को शायरी का मुख्य विषय बनाते हैं, तब आपने ये विषय परिवर्तन कब और कैसे किया? आपका रुझान इधर क्यों हुआ?
 
पारस : मैंने अपनी खुली आंखों से हिन्दू-मुस्लिम फसाद की भीषण लोमहर्षक खूनी तबाही देखी है। अवसरवादी और अतिमहत्वाकांक्षी व अतिवादी सोच के कारण बेगुनाह मासूम लोगों का ख़ून सड़कों पर बहता हुआ देख चुका हूं। इसकी टीस ने मुझे प्रेरित किया कि हम दोनों समुदायों में कटुता कम करें इसलिए मैंने नात को शायरी की विधा के रूप में चुना।
 
अवधेश सिंह- चूंकि आप सरहदों से पार मुस्लिम देशों में भी नात से पहचाने जाते हैं जिसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश या कहें उर्दूभाषी एशिया के सभी देश आते हैं, तब आप अपनी इस शायरी को किस रूप में आगे ले जाना चाहते हैं?
 
पारस : दुनिया के बहुत से मुल्क मेरी नातिया शायरी के दीवाने हैं। बेशुमार मुस्लिम समाज के लोग हैं, जो मुझे बड़ी इज़्ज़त की निगाह से देखते हैं। तो मेरी कोशिश है कि एक हिन्दू के रूप में हर मुस्लिम समाज तक शायरी के माध्यम से हमारी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय पहुंचे ताकि हम एकता के बंधन में इंसानियत को पुनर्जीवित कर सकें।
 
अवधेश सिंह- आपकी मशहूर नात 'मेरी आंख रो रही है/ दुश्वार अब है जीना/ मेरे रब मुझे दिखा दे/ एक बार तो मदीना/ मेरी आंख रो रही है।' लिखते वक़्त आपके जेहन में क्या था कि आप रो दिए थे?
 
पारस : मेरे एहसास में नफरत की वो ज्वाला थी, जो दोनों समुदायों को जला रही थी जिससे मुझे रोना आ गया था।
 
अवधेश सिंह- इस गज़ल को लिखते समय आप में क्या विचार चल रहा था?
 
'जाने हम इंसान हैं कैसे, आपस में लड़ जाते हैं/
एक शजर में कई तरह के पक्षी रात बिताते हैं?'
 
पारस : इस गजल को लिखते समय मेरे जेहन में वे फसाद थे, जो मैंने जबलपुर, नागपुर और सूरत में देखे थे।

Share this Story:

Follow Webdunia gujarati

આગળનો લેખ

हरियाली अमावस्या 11 अगस्त को, राशि के अनुसार यह उपाय शुभ हैं आपके लिए