हिन्दी कविता : इन दिनों...
व्यर्थ बढ़ गई है कांव-कांव,
कौए मगर दिखते नहीं।
दोस्त बेहिसाब बनते हैं,
दिल में मगर बसते नहीं।
आंखों को सुंदर लगते,
मन को भी भाते हैं।
खुशबू की खातिर,
लोग इत्र लगाते हैं।
पेड़-पौधे फ्रेमों में रखते,
पत्ते जहां गिरते नहीं।
नन्ही-सी गोरैया प्यारी,
प्लास्टिक की बनाते हैं।
कृत्रिम घोंसले में रख,
घर को सजाते हैं।
चूं-चूं चिड़िया की मीठी,
घंटी भी वहीं लगाते हैं।
चुगकर गा पाए चिड़िया,
दाना वो रखते नहीं।
बातें बहुत सुंदर-सुंदर,
सुनने को मिलती हैं रोज।
तन सुंदर, घर सुंदर,
जहां पड़े परछाई अपनी।
सारा वातावरण सुंदर,
कितनी तहें खोजूं पर,
मन अपने सजते नहीं।
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