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राही मतवाले तू छेड़ इक बार मन का सितार: तलत-सुरैया और अनिल बिस्वास का कमाल | गीत गंगा

इस गीत में 5वें दशक के भारत की गंध बसी हुई है, वे लोग याद आते हैं, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं

Geet Ganga

अजातशत्रु

, मंगलवार, 5 मार्च 2024 (06:48 IST)
  • अनिल दा के संगीत को सुनना जंगल में पत्तियों पर थमी हुए ओंस की बूंदें निहारना है
  • इस गीत को तलत और सुरैया ने गाया है, दोनों की आवाज कोमल और मखमली
  • कमर जलालाबादी के बोलों में आपको अधिकतर शुद्ध हिन्दी की सुगंध मिलेगी
अनिल दा के संगीत को सुनना किसी मंदिर के प्रांगण में प्रवेश करना है अथवा नहा-धोकर किसी संत की तस्वीर पर अगरबत्ती लगाना है या हरे-भरे बांस के जंगल में पत्तियों पर थमी हुए ओंस की बूंदें निहारना है। उनके गीतों के बोल या इबारत देख लीजिए। वहां आपको शुद्ध हिन्दी या साफ-सुथरी उर्दू के दर्शन होंगे। एक शब्द में कहा जाए तो परिष्कार (सॉफिस्टिकेशन) अनिल दा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का केंद्रीय गुण है।
 
मेलडी भी आपको दादा के यहां भरपूर मिलती है। ऐसी मेलडी, जो बंगाल और उत्तरप्रदेश की लोकधुनों की याद दिलाती है। साथ ही, जो नारी अनिल दा के गीतों के पीछे से उभरती है, वह शकुंतला और उर्मिला का चित्र खड़ा करती है। कमला कुन्हारा, इंदौर, कहती हैं- 'शरद बाबू के नारी पात्रों को 'गीत-संगीत' में महसूसना हो तो मधुर सिने संगीत के पितामह अनिल बिस्वास की बंदिशें सुनिए। खासतौर पर वे बंदिशें जिन्हें लताजी ने गाया है।'
 
इस गीत को कमर जलालाबादी ने लिखा है। इसके बोलों में आपको अधिकतर शुद्ध हिन्दी की सुगंध मिलेगी। धुन भी मीठी और भद्र है। इस गीत को तलत और सुरैया ने गाया है। दोनों की आवाज कोमल और मखमली! तलत तो इतने ईथरियल हैं कि गीत पंखुड़ियों को छूकर गुजर जाता है और हमारे दिल में शराफत उपजाता है। इस गीत में 5वें दशक के भारत की गंध बसी हुई है। वे लोग याद आते हैं, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं।
 
आपके लिए बोल हैं-
 
तलत : राही मतवाले, छेड़ इक बार मन का सितार,
जाने कब चोरी-चोरी आई है बहार,
छेड़ मन का सितार, राही मतवाले।
देख-देख चकोरी का मन हुआ चंचल/
 
चंदा के मुखड़े पर बदली का अंचल/
कभी छुपे कभी खिले रूप का निखार,
खिले रूप का निखार/...राही मतवाले।
 
कली-कली चूम के पवन कहे खिल जाऽऽ-2
खिली कली भंवरे से कहे आ के मिल जा,
आ पिया मिल जा, कली-कली चूमके...
दिल ने सुनी कहीं दिल की पुकार-2/
 
कहीं दिल की पुकार, राही मतवाले/
रात बनी दुल्हन भीगी हुईं पलके,
भीनी-भीनी खुशबू के सागर छलके...2
ऐसे में नैनों से (सुरैया शामिल होते)
नैना हो चार, जरा नैना हों चार,
 
सुरैया: राही मतवाले, तू छेड़ इक बार मन का सितार
दोनों: जाने कब चोरी-चोरी आई है बहार/ राही मतवाले।
 
मजा यह है कि पर्दे पर भी इस तराने को तलत और सुरैया ने गाया था। 'वारिस' फिल्म का गीत है यह, जिसमें तलत और सुरैया नायक-नायिका थे। यह गीत फिल्म में एक बार और होता है, पर तब यह पृष्ठभूमि गीत के रूप में है। आप सुरैया के अंतरे से समझ सकते हैं, नायक अंत में नहीं आया या मौत की वादी में सो गया।
 
पाठकों को हम सुरैया वाले भाग का पाठ (टेक्स्ट) भी उपलब्ध करा देते हैं-
 
तलत राही मतवाले... बहार, छेड़ मन का सितार,
राही मतवाले।
सुरैया : राही मतवाले/
तलत: राही मतवाले/
सुरैया: राही
सुरैया : दिल का सरूर तू, मांग का सिंदूर तू
मन कहे बार-बार आएगा जरूर तू
(दोनों पंक्तियां फिर से)
तुझको बुलाए मेरे आंसुओं की धार-2
आ जा इक बार/राही मतवाले/
तू आ जा इक बार, सूनी है सितार
तेरे बिना रूठ गई हमसे बहार, तू आ जा इक बार,
राही मतवाले।
 
सिनेमा झूठ है। कथा झूठ है। पात्र झूठे हैं। अभिनेता-अभिनेत्रियों का अभिनय झूठ है। माइक्रोफोन के सामने स्टूडियो में यह जो गायक-गायिका दर्द या खुशी गा रहे हैं, वह भी झूठ है, क्योंकि उनको कुछ नहीं हुआ है, फिर भी सिनेमा इसी झूठ को कितना सच बना देता है कि दु:खभरी फिल्म हमें रुला जाती है, खुशी से चहकता गाना हमें हंसा जाता है।

 
नकली संसार के इस खुदा नंबर दो के जो आदमी हैं, अनिल बिस्वास हैं, कमर जलालाबादी हैं- तलत-सुरैया हैं, ऑर्केस्ट्रा का सितारिया है, शत-शत प्रमाण। सिनेमा न होता तो हम ऐस्थेटिक्स की इन हसीन ऊंचाइयों को छूने से वंचित रह जाते और हमारी नब्ज-नाड़ियों को इतना सुकून न मिलता।
 
नींद में मुस्करा देता था दर्द भी,
किधर रुखसत हो गए वो जमाने।
(अजातशत्रु द्वारा लिखित पुस्तक 'गीत गंगा खण्ड 1' से साभार, प्रकाशक: लाभचन्द प्रकाशन)

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