- सुशोभित सक्तावत
सन् 53 में आई फिल्म 'शिकस्त' का गीत है यह। लता और तलत का दोगाना। परदे पर हैं दिलीप कुमार और नलिनी जयवंत। यह शांत रस का गीत है। तब भी यहां महान त्रासद नायक की छवि देखें, कैसी थिर है। मानो, भीतर ही भीतर ही उसे कुछ मथ रहा हो। हिंदी सिनेमा के परदे पर आत्ममंथन में डूबे नायक की ऐसी छवि फिर नहीं आई, ख़ुद दिलीप कुमार 'मधुमती' (1958) के बाद उसे दोहराने में नाकाम होते रहे। यह 1950 के दशक के दिलीप कुमार की अमर-अमिट छवि है, जब तलत उनके गीत गाया करते थे। 'देवदास' उस त्रासद-नायक के रूपक का सर्वोच्च स्तर था, कल्मिनेशन था।
और, नलिनी जयवंत की इंटेंस प्रेयसी की छवि को हम यहां कैसे भुला दें। दिलीप की संयत देहभाषा के समक्ष नलिनी के मन का उत्कट ज्वार क्या अनदेखा किया जा सकता है? नलिनी जयवंत हिंदी सिनेमा की उन नायिकाओं में से हैं, जो नरगिस-वैजयंती-मधुबाला-मीना कुमारी जैसी महानायिकाओं के समक्ष अल्पज्ञात होने के बावजूद अपने में विलक्षण हैं, अतुल्य हैं, जैसे लीला नायडु, जैसे सुचित्रा सेन।
और फिर, तलत और लता हैं। शांत रस के किसी दोगाने के लिए भला इससे बेहतर कंठ-युगल और क्या होगा? तलत धीर-गंभीर हैं, भद्र हैं, पहाड़ों की तरह अचल हैं, लता चंचल हैं, नदी की तरह बहती हैं, उनकी आवाज़ में झरने खनकते हैं। ये दोनों मिलकर परदे पर एक भद्र किंतु अनमने नायक और शोख़ किंतु एसर्टिव नायिका का रूपक रचते हैं, जैसे दिलीप-वैजयंती, दिलीप-मधुबाला, दिलीप-नलिनी (दिलीप यहां एक टेक की भांति हमेशा स्थिर रहने वाले हैं, उनका कोई विकल्प नहीं।)
सभी नदियां पहाड़ों से निकलती हैं। सभी पहाड़ नदियों से प्रेम करते हैं। लेकिन सभी नदियां पहाड़ों से दूर दौड़ती रहती हैं सागर की तरफ़। यही उनकी नियति है। यही पहाड़ों की भी नियति है। तलत-लता के इस दोगाने को पहाड़-नदी के इस द्वैत की व्यंजना के साथ सुनें तो समझ जाएंगे, प्रेम के मूलत: वेदनामूलक होने का अभिप्राय क्या है : वह उस एक की बेकल तलाश है, जो निरंतर आपसे दूर जा रहा, और उसे पुकारने के लिए आपकी आत्मा और आपकी वेदना दोनों का ही दायरा लगातार फैलता रहता है, उसकी अनुगूंजें क्षितिजों के पार तक व्याप्त होती रहती हैं।