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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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मुंशी प्रेमचंद फिल्म जगत से लौट आए थे, अंतिम समय में 1400 रुपए थे उनके पास

मुंशी प्रेमचंद फिल्म जगत से लौट आए थे, अंतिम समय में 1400 रुपए थे उनके पास
मुंशी प्रेमचंद की सहज-सुगम लेखनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी अपने रचनाकाल में थी। 
 
दरअसल, कहानी की पाश्चात्य विधा को जानने के बावजूद प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में न केवल अपने समय को ही पूर्ण रूप से प्रतिबिम्बित व स्पंदित किया अपितु आदर्श को भी समाज के समक्ष रखा, जो भारतीय लेखन-चिंतन का मूल आधार है। 
 
मुंशी प्रेमचंद ने जहां एक ओर अंध-परंपराओं पर चोट की वहीं सहज मानवीय संभावनाओं और मूल्यों को भी खोजने का प्रयास किया। इसी वजह से उनकी कहानियां व उपन्यास हिन्दी साहित्य की अमर रचनाओं व कृतियों के रूप में अमिट धरोहर बन गईं। सुधी पाठकों के लिए प्रस्तुत है यादों का यह गुलदस्ता.....।
 
प्रेमचंद आम आदमी तक अपने विचार पहुंचाकर उनकी सेवा करना चाहते थे। इसी मंशा से उन्होंने 1934 में अजंता सिनेटोन नामक फिल्म कंपनी से समझौता करके फिल्म- संसार में प्रवेश किया। वे बम्बई पहुंचे और 'शेर दिल औरत' और 'मिल मजदूर' नामक दो कहानियां लिखीं। 'सेवा सदन' को भी पर्दे पर दिखाया गया। लेकिन प्रेमचंद मूलतः निष्कपट व्यक्ति थे। 
 
फिल्म निर्माताओं का मुख्य उद्देश्य जनता का पैसा लूटना था। उनका यह ध्येय नहीं था कि वे जनजीवन में परिवर्तन करें। इस वजह से प्रेमचंद को सिनेजगत से अरुचि हो गई और वे 8 हजार रुपए वार्षिक आय को तिलांजलि देकर बम्बई से काशी आ गए। फिल्म संसार से क्या मिला? इस सवाल के जवाब में प्रेमचंद लिखते हैं कि अंतिम समय उनके पास 1400 रुपए थे। 
 
साहित्य का आदर्श 
साहित्य की बात करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं- 'जो धन और संपत्ति चाहते हैं, साहित्य में उनके लिए स्थान नहीं है। केवल वे, जो यह विश्वास करते हैं कि सेवामय जीवन ही श्रेष्ठ जीवन है, जो साहित्य के भक्त हैं और जिन्होंने अपने हृदय को समाज की पीड़ा और प्रेम की शक्ति से भर लिया है, उन्हीं के लिए साहित्य में स्थान है। वे ही समाज के ध्वज को लेकर आगे बढ़ने वाले सैनिक हैं।' 
 
साहित्य व देश सबसे ऊपर 
पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे पत्र में प्रेमचंद ने कहा था- 'हमारी और कोई इच्छा नहीं है। इस समय यही अभिलाषा है कि स्वराज की लड़ाई में हमें जीतना चाहिए। मैं प्रसिद्धि या सौभाग्य की लालसा के पीछे नहीं हूं। मैं किसी भी प्रकार से जिंदगी गुजार सकता हूं। 
 
मुझे कार और बंगले की कामना नहीं है लेकिन मैं तीन-चार अच्छी पुस्तकें लिखना चाहता हूं, जिनमें स्वराज प्राप्ति की इच्छा का प्रतिपादन हो सके। मैं आलसी नहीं बन सकता। मैं साहित्य और अपने देश के लिए कुछ करने की आशा रखता हूं।' 
 
चांदनी जैसा निर्मल व्यक्तित्व 
प्रेमचंद ने अपने जीवन में देशभक्ति, प्रामाणिकता और समाज सुधार का प्रचार न केवल अपनी लेखनी से किया, बल्कि वे जीवन में स्वयं उस पर चलते भी रहे। देश की जनता के लिए उन्होंने ताउम्र लिखा और जनता के लिए ही जिये। प्रेमचंद का व्यक्तित्व चांदनी के समान निर्मल था। यह निर्मलता उनके शैशव से ही झलकती थी। 
 
हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता 
वाराणसी के निकट लमही नामक ग्राम में उनका जन्म हुआ। यहां का श्रीवास्तव परिवार लेखकों के लिए प्रसिद्ध था। इस परिवार के लोगों ने प्रायः मुगल-कचहरियों में बाबू का काम किया था। प्रेमचंद के पिता भी डाकघर में मुंशी यानी बाबू थे। स्वभावतः मुगल-सभ्यता की छाप इनके परिवार पर पड़ी थी। श्रीवास्तव परिवार इस्लामी सभ्यता की बहुत सी बातों से प्रभावित हुआ था- जैसे पहनावे का ढंग। यह परिवार हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक समन्वय का उत्कृष्ठ उदाहरण था। 
 
दरिद्रता में बीता बचपन 
प्रेमचंद संयुक्त परिवार में रहते थे। उनका बचपन दरिद्रता में बीता। पिता का मासिक वेतन महज 20 रुपए था। इतने कम वेतन में वे किस प्रकार अपने बच्चों को अच्छा भोजन और अच्छे वस्त्र दे सकते थे। प्रेमचंद लिखते हैं- 'मेरे पास पतंग खरीदकर उड़ाने के लिए भी पैसे नहीं रहते थे। यदि किसी की पतंग का धागा कट जाता था तो मैं पतंग के पीछे दौड़ता और उसे पकड़ता था।' 
 
आम आदमी की भाषा का साहित्य 
जब आज भी साहित्य में प्रेमचंद जिंदा हैं तो उनकी रचनाएं भी प्रासंगिक होंगी ही। कितने रचनाकार हुए लेकिन जितना याद प्रेमचंद को किया जाता है और किसी को नहीं। उनका साहित्य शाश्वत मूल्य है। जब तक राष्ट्रीय समस्याएं जैसे गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी आदि रहेंगी तब तक प्रेमचंद का साहित्य रहेगा। 
 
जब तक अभावों का साम्राज्य रहेगा तब तक साहित्य रहेगा और जब तक आम आदमी का जीवन एकदम परिवर्तित नहीं हो जाता तब तक प्रेमचंद का साहित्य प्रासंगिक रहेगा। प्रेमचंद आम आदमी के चितेरे थे। उनकी रचनाओं में आम आदमी की भाषा है। 
 
प्रेमचंद ने निम्न और मध्य वर्ग के यथार्थ को अपने साहित्य का हिस्सा बनाया। जो उन्होंने लिखा उसे जीया भी। अगर उन्होंने विधवा विवाह का समर्थन किया तो खुद भी विधवा विवाह किया। प्रेमचंद का साहित्य ऐसा यथार्थ है, जिससे लोगों को वितृष्णा नहीं होती। 

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