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विश्वकाव्य दिवस : हिन्दी कवियों का स्मरण भी आवश्यक

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- सुयश मिश्र

21 मार्च विश्वकाव्य दिवस के अवसर पर हिन्दी के एक बड़े अखबार ने ‘ये हैं दुनिया की अब तक की सर्वश्रेष्ठ रचनाएं’ शीर्षक से बड़ा समाचार प्रकाशित किया।

इस समाचार में विलियमशेक्सपियर कृत ‘सानेट-18’, जानडन कृत डेथ, बी नाट प्राउड’, विलियम वर्ड्सवर्थ कृत ‘डेफोडिल्स’, हेनरी’ वर्डसवर्थ कृत ‘ए सैमआॅफ लाइफ’,जॉनमिल्टन कृत ‘आन हिज ब्लाइंडनेस’, और विलिमम ब्लेक शैले, एमालेजारस और रावर्ट फ्रास्ट का भी उल्लेख किया गया। ‘आलटाइम 20 ग्रेटेस्ंट एपिक’ उपशीर्षक से ‘द इलियड, ‘द ओडेसी’, ‘शाहनामा’ आदि उन्नीस विदेशी रचनाओं के साथ भारतीय साहित्य की महाकाव्यकृति ‘महाभारत’ का उल्लेख हुआ तथा सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में ‘रामायण’ कालिदास-साहित्य और ‘गीतांजलि’ पर दृष्टिपात करते हुए समाचार पूर्ण किया गया। किंतु हिन्दी के किसी कवि अथवा काव्यकृति का उल्लेख नहीं किया गया। आश्चर्य है कि हिन्दी के इस बड़े अखबार ने हिन्दी के किसी कवि अथवा किसी कृति का उल्लेख करना क्यों आवश्यक नहीं समझा ?
 
नोवल पुरस्कार विजेता गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर और उनकी ‘गीतांजलि’ का उल्लेख करके समाचार के लेखक संपादक ने भारतीय साहित्य के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली किंतु विश्वभाषा बनने की दिशा में द्रुतगति से अग्रसर, करोड़ों भारतीयों के भावों को उद्वेलित करने वाली, तेरह सौ वर्षों से भारतीय समाज के बृहत्तर भाग को स्वर देने वाली, आजादी का अलख जगाने वाली हिन्दी का कोई कवि इस समाचार में स्थान नहीं पा सका। कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, रहीम, रसखान, भारतेन्दु, मैथिलीशरण, जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी, दिनकर, अज्ञेय आदि हजारों कवियों की कोई रचना विश्वकाव्य दिवस पर उल्लेखनीय नहीं लगी। यह दुखद है।
 
हिन्दी के अखबार में हिन्दी के साहित्य और साहित्यकारों की यह अवमानना, उपेक्षा अंतर्मन को झकझोरती है। क्षोम और आक्रोश उत्पन्न करती है। यूरोपियन साहित्यकारों की जिन रचनाओं से हमारा साधारण हिन्दी पाठक पूर्ण रूप से अनभिज्ञ हैं जिनकी रचनाएं भाव, भाषा, विचार, रूचि आदि किसी भी आधार पर सामान्य हिन्दी पाठक के निकट नहीं है उनका विज्ञापन करके हम अपने पाठकों को क्या संदेश देना चाहते हैं ? आखिर हम यूरोपियन विद्वानों के चश्में से हिन्दी का मूल्यांकन कब तक करेंगे ? क्या अब हमें वही भारतीय प्रतिभाएं याद रखनी हांेगी जिन्हें यूरोपियन संस्थाओं ने पुरस्कृत किया हो ? क्या कबीर, सूर, तुलसी आदि को इस प्रकार विस्मृत-उपेक्षित किया जाना उचित है ?
 
विश्वकाव्य दिवस पर हिन्दी अखबार द्वारा की गई हिन्दी की यह उपेक्षा-अवमानना हिन्दी के साथ विश्वासघात है। हिन्दी और हिन्दी भाषियों का अनादर है। हिन्दी भाषी समाज के मध्य समाचार पत्र का विक्रय कर हिन्दी से अर्थलाभ लेना और उसमें विदेशी अंग्रेजी यूरोपीय-साहित्य का विज्ञापन करना ठीक वैसा ही है जैसे कि चुनावी सभाओं में हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में
 
लंबे-चौड़े भाषण देकर वोट प्राप्त करना और चुनाव में जीत जाने के बाद संसद-विधान सभा में अंग्रेजी में शपथ लेना। इस स्वार्थी, दूषित और अस्मिता विरोधी मानसिकता से उबरने की आवश्यकता है। विश्वकाव्य दिवस के अवसर पर हमें हिन्दी कवियों और उनकी महत्त्वपूर्ण काव्यकृतियों का भी सम्मानपूर्वक स्मरण और उल्लेख करना चाहिए। यह हमारा दायित्व भी है और कर्तव्य भी। 
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