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28 मई : नासिक में पैदा हुए थे ‘सजा ए काला- पानी’ की यातना भोगने वाले ये क्रांतिकारी

28 मई : नासिक में पैदा हुए थे ‘सजा ए काला- पानी’ की यातना भोगने वाले ये क्रांतिकारी
महात्‍मा गांधी से बिल्‍कुल भिन्‍न विचार रखने के बावजूद सावरकर उतने ही जाने गए जितना बड़ा उनका कद था। उन्‍हें क्रांति करने के लिए दी गई सजाओं और यातनाओं के लिए जाना जाता है। तो अपने प्रखर व्‍यक्‍तित्‍व के लिए भी। लेकिन इन सबसे पहले वे एक क्रांतिकारी थे।

वीर सावरकर स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे पहली पंक्ति के सेनानी और राष्ट्रवादी नेता थे। वे दुनियाभर के क्रांतिकारियों में उनके जैसा कोई नहीं था। उनका नाम ही भारतीय क्रांतिकारियों के लिए उनका संदेश था। वे एक महान क्रांतिकारी, इतिहासकार, समाज सुधारक, विचारक, चिंतक,  साहित्यकार थे। उनकी किताबें क्रांतिकारियों के लिए गीता के समान थीं।

वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को नासिक के भगूर गांव में हुआ। उनके पिता का नाम दामोदर पंत सावरकर था, जो गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में जाने जाते थे। माता का नाम राधाबाई था। जब विनायक 9 साल के थे, तब ही उनकी माता का देहांत हो गया था।

पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर था। बचपन से ही वे पढ़ाकू थे। बचपन में उन्होंने कुछ कविताएं भी लिखी थीं। उन्होंने शिवाजी हाईस्कूल, नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। आजादी के लिए काम करने के लिए उन्होंने एक गुप्त सोसायटी बनाई थी, जो 'मित्र  मेला' के नाम से जानी गई। 1905 के बंग-भंग के बाद उन्होंने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में पढ़ने के दौरान भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे।

तिलक की अनुशंसा पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। 'इंडियन सोसियोलॉजिस्ट' और 'तलवार' में उन्होंने अनेक लेख लिखे, जो बाद में कोलकाता के 'युगांतर' में भी छपे। वे रूसी क्रांतिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे। लंदन में रहने के दौरान सावरकर की मुलाकात लाला हरदयाल से हुई। लंदन में वे इंडिया हाउस की देखरेख भी करते थे। मदनलाल धींगरा को फांसी दिए जाने के बाद उन्होंने 'लंदन टाइम्स' में भी एक लेख लिखा था। उन्होंने धींगरा के लिखित बयान के पर्चे भी बांटे थे।

1909 में लिखी पुस्तक 'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857' में सावरकर ने इस लड़ाई को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई घोषित किया। वीर सावरकर 1911 से 1921 तक अंडमान जेल में रहे। 1921 में वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी। जेल में 'हिन्दुत्व' पर शोध ग्रंथ लिखा। 1937 में वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। 1943 के बाद वे दादर, मुंबई में रहे। 9 अक्टूबर 1942 को भारत की स्वतंत्रता के लिए चर्चिल को समुद्री तार भेजा और आजीवन अखंड भारत के पक्षधर रहे। आजादी के माध्यमों के बारे में गांधीजी और सावरकर का नजरिया अलग-अलग था।

दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंडमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएं लिखीं और फिर उन्हें  याद किया। इस प्रकार याद की हुई 10 हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुन: लिखा। 26 फरवरी 1966 को भारत के इस महान  क्रांतिकारी का निधन हुआ। उनका संपूर्ण जीवन स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हुए ही बीता।

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