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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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सारे जग की लाड़ली भाषा है हिन्दी

सारे जग की लाड़ली भाषा है हिन्दी
डॉ. लक्ष्मीनारायण दुबे
 
भारतीय एकता अथवा राष्ट्रीय एकात्मकता की दिशा एवं क्षेत्र में हिन्दी एक सहस्र वर्ष से महत्वपूर्ण, सक्रिय तथा अग्रणी भूमिका का निर्वाह कर रही है। सर्वप्रथम तो वह देववाणी संस्कृत की उत्तराधिकारिणी है जो कि अधिकांश आधुनिक भाषाओं की गंगोत्री है। दक्षिण भारत के द्रविड़ परिवार की चार भाषाओं में भी तत्सम अर्थात संस्कृत शब्दों का बाहुल्य है। हमारी अस्मिता, भारतीयता, संस्कृति तथा ज्ञान-विज्ञान के अपरिमेय भंडार की प्रतीक भी संस्कृत है। इसलिए हिन्दी को संस्कृत की धरोहर तथा अमृत कुंभ प्राप्त होने के कारण समूचे देश को जोड़ने में पूर्ण सफलता मिली है। 
 
हिन्दी ने सामासिक संस्कृति के विकास, उन्नायन तथा संवर्द्धन में अपना ठोस अवदान दिया है। उसने सर्वधर्म समभाव को पुष्पित-पल्लवित किया है। वह पद की नहीं अपितु पादुका के पूजन की भाषा रही है। उसने सत्ता, शासन, साम्राज्य की पूजा न करके, संतों, महात्माओं तथा भक्तों को अपना इष्टदेव बनाया जिनमें देश को जोड़ने की सर्वोपरि भावना रही है। यदि वह एक ओर विद्यापति, कबीर, सूर, तुलसी, मीराबाई, महामति प्राणनाथ, स्वामी हरिदास, आचार्य केशवदास तथा घनानंद की भाषा रही तो दूसरी ओर वह अमीर खुसरो, मलिक मुहम्मद जायसी, कुतुबन, अब्दुल रहीम खानखाना, सैयद इब्राहीम रसखान, नजीर अकबराबादी, सैयद अमीर अली मीर तथा जहूर बख्श की भी लाड़ली रही। यदि उसने अपना पोषण आचार्य रामानुजाचार्य, वैष्णवाचार्य, स्वामी रामानंद, महाप्रभु वल्लभाचार्य तथा माधवाचार्य जैसे दक्षिण के संतों से पाया तो फादर कामिल बुल्के, वरान्निाकोव, जॉर्ज ग्रियसेन, एल.पी. तेस्सीतोरी तथा जे.एन. कारपेंटर जैसे विदेशियों ने उसको विश्वात्मा, भूमंडलीकरण तथा संसार संवाद की भाषा बना दिया। 
 
हिन्दी भाषी राज्यों को छोड़कर हिन्दी को सर्वाधिक प्रश्रय बंगभूमि ने दिया। केशवचंद्र सेन, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, ब्रह्मर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर, क्षितिमोहन सेन, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महर्षि अरविंद घोष आदि ने हिन्दी को देश में एकता स्थापित करने वाली राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया। 
 
महाराष्ट्र के 5 संतों ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम, एकनाथ तथा समर्थ रामदास और तत्पश्चात लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, अरविंद गोखले, महात्मा ज्योतिबा फुले तथा न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे ने हिन्दी के प्रति सदा सर्वदा सद्भाव व्यक्त किए। गुजरात में महात्मा गांधी ने सच्चे अर्थों में हिन्दी को राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा दिलाई और उसे स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख शक्ति का वरण मिला। इसके पूर्व महामति प्राणनाथ तथा महर्षि दयानंद सरस्वती ने भी हिन्दी को महत्ता प्रदान की। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का श्रेय हिन्दीतर भाषा-भाषियों को है न कि किसी हिन्दी वाले ने उसे राष्ट्रभाषा बनाने की मांग की। भारतीय संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को जो सर्वसम्मति से राजभाषा की प्रतिष्ठा प्रदान की, उसमें भी अहिन्दी भाषा-भाषियों की ही प्रभावी भूमिका रही। 
 
आज समूचे भारत में हिन्दी को बोलने-समझने वाले लोग सत्तर करोड़ से कम नहीं हैं। वह सर्वत्र गले का हार है। अनुवाद ने हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के मध्य सांस्कृतिक आदान-प्रदान, सौमनस्य तथा प्रेम का भाव विकसित किया है। सारी भाषाएं एक-दूसरे के निकट आ गई हैं। सुब्रह्मण्यम भारती, महाश्वेतादेवी, वि.स. खांडेकर, विमल मित्र, अमृता प्रीतम, खुशवंतसिंह, सीताकांत महापात्र आदि विभिन्न भाषा-भाषी साहित्यकार अब हिन्दी के रचनाकर्मी बन गए हैं। 
 
हिन्दी को देश की एकता की कड़ी बनाने में मीडिया की सर्वोपरि भूमिका है। उसने उसे राष्ट्रभाषा ही नहीं अपितु विश्वभाषा बना दिया है। टेलीविजन, चित्रपट, संगीत तथा धारावाहिकों ने हिन्दी को देश की प्रत्येक झोपड़ी में पहुंचा दिया है। हिन्दी ने जितनी प्रगति तथा समृद्धिइस अर्द्धशताब्दी में की है, उतनी संसार की किसी भाषा ने नहीं की। देवनागरी लिपि (जो कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, नेपाली, मराठी तथा कोंकणी की भी है) के कारण उसे इंटरनेट, सूचना प्रौद्योगिकी तथा जनसंचार की नव्यतम संस्थितियों की वरमाला मिल चुकी है। उसमें विज्ञान, आयुर्विज्ञान, अभियांत्रिकी आदि विषयों तथा शब्दकोशों एवं ज्ञानकोशों की बड़ी निधि तैयार हो चुकी है। वह सबसे बड़े बाजार का आधार बन चुकी है। आज हिन्दी को कामकाजी बनाकर, उसे रोटी-रोजी तथा व्यवसायोन्मुख करने की परमावश्यकता है और इस कार्यमें विश्वविद्यालय अपनी सार्थक भूमिका को प्रमाणित कर सकते हैं। अंगरेजी का बढ़ता वर्चस्व सिर्फ उसके रोजगारोन्मुख होने के कारण है। 
 
आज हिन्दी दुनिया की दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। वह भारत की लोकभाषा तथा जनभाषा है। उसका अभिषेक लोकतंत्र का वास्तविक राजतिलक है। हिन्दी सिर्फ एकता की ही कड़ी नहीं है बल्कि वह हमारे स्वाभिमान, राष्ट्रीय गरिमा तथा राष्ट्रोत्कर्ष की परिचायिका है। एक राष्ट्रगीत तथा एक राष्ट्रध्वज के समान एक राष्ट्रभाषा के कारण राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को बल मिलता है और समूची दुनिया में हमें आदर तथा सम्मान मिलता है।


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