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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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पुस्तक समीक्षा : दृश्य से अदृश्य का सफ़र, एक बेहतरीन उपन्यास

पुस्तक समीक्षा : दृश्य से अदृश्य का सफ़र, एक बेहतरीन उपन्यास
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रेखा भाटिया

Sudha Om Dhingra Book Review
 
 
जानवर सीमित क्षमताओं के साथ पैदा होता है और उसकी हर ज़रूरत के लिए प्रकृति पर निर्भर होता है, किन्तु उसके पास किसी प्राकृतिक विपदा को भांपने की अनूठी क्षमता होती है, उस विपदा के आने से पहले वह जान बचाकर भाग खड़ा होता है और अगर नहीं भाग पाता है तो खुद को हालातों के हवाले सुपुर्द कर देता है। रिश्तों के मायने भी जानवरों के लिए मनुष्य से अलग होते हैं।


मनुष्य की क्षमताओं की सीमा असीम होती हैं और उन क्षमताओं को वह स्वयं किसी भी सीमा तक विकसित कर सकता है, उसकी ज़रूरतों के लिए उसे स्वयं यत्न करना पड़ता है। मनुष्य जुझारू होता है, हालातों से अंत तक लड़ता रहता है, उन पर नियंत्रण पा लेता है, विजयी होता है, बर्शते निर्भर करता है वह सुदृढ़ रहकर सकारात्मकता से उन हालातों का सामना करना चाहता है या नकारात्मकता से लिप्त हथियार डाल देना चाहता है। 
 
मनुष्य जीवन और रिश्ते अत्यंत जटिल होते हैं। मनोविज्ञान के अनुसार परिस्थिति के, सोच के, वातावरण के, मनुष्य के साथ हुए अन्याय के, उसके साथ हुए व्यवहार के, उसके स्वभाव, वंशाणु और अनुवांशिक ऐसे कई मनोवैज्ञानिक कारण हैं जो मनुष्य के मन और मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालते हैं। उसकी मानसिक स्थिति इन्हीं सब बिंदुओं पर निर्भर करती है। देह का सुख, मन का विलास, बुद्धि का विलास और ज्ञान के अनुसार आत्मा की साक्षरता और आत्मा का परमात्मा से मिलन। जन्म और मृत्यु के बीच कई गुत्थियां जिन्हें समझना एक बड़ी पहेली। मानव जब देह में जन्म लेता है और उसे सच मान जीवन जीता है, कुछ रिश्ते बनते हैं जन्म से, कुछ इच्छा से, कुछ संयोग से। रिश्ते निभाता है। तो क्या जीवन जीना एक दुर्लभ प्रक्रिया है? 
 
सदियों पहले विद्वान् अर्जुन मूढ़ बन धर्मसंकट में पड़ गए थे तब भगवान् श्रीकृष्ण ने कई गूढ़ रहस्यों का भेद अर्जुन को समझाया और धर्म संकट से बाहर निकाला। मानव मनोविज्ञान को समझाने के लिए उन्होंने 696 श्लोकों में गीता का उपदेश दिया और गीता को समझने में विद्वानों को वर्षों का समय लग जाता है। आम मानव चाहता है मन-मस्तिष्क के विज्ञान का वर्णन सरल भाषा में हो ताकि उसे सरलता से समझा जा सके।

'दृश्य से अदृश्य का सफ़र' एक अति गूढ़ विषय पर एक सरल, सुगम भाषा में गढ़ा गया सुधा ओम ढींगरा जी का एक ऐसा उपन्यास है जिसे आनेवाले लंबे समय तक याद रखा जाएगा। यह उनकी हिंदी साहित्य को दी गई एक अनुपम भेंट है, जिसका लाभ आनेवाली पीढ़ियां उठाएंगी और प्रेरित होकर आगे इस विषय पर कार्य जारी रखेंगी। हिंदी साहित्य में इस जटिल विषय पर नगण्य लिखा गया है लेकिन आधुनिक भौतिकवाद में मनुष्य मस्तिष्क जिस तरह उलझ रहा है, जीवन की जटिलता बढ़ती जा रही है। इस उपन्यास के माध्यम से उस जटिलता पर प्रकाश डालने का लेखक का प्रयास सराहनीय है। 
 
मानव जीवन के कठिन मनोवैज्ञानिक बीज गणित के सवालों को कठिन फार्मूले लगाकर सुलझाकर एक सरल, सुगम हल निकालकर उन सवालों का जवाब निकाला है। मनोरोग, मनोविकार, अवसाद कई बार नकारात्मक ऊर्जा मनुष्य पर हावी हो जाती है। मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में, उसकी सोच, उसकी परवरिश, आसपास के माहौल का, वंशाणु, अनुवांशिक तत्वों का बहुत असर होता है और उसका आचार-व्यवहार इस सब पर निर्भर करता है।

जिन परिस्थितियों में अर्जुन की परवरिश हुई, उस समय काल के समाज की सोच, माहौल, विषम परिस्थितियां, अर्जुन और उनके भाइयों के साथ हुए अन्याय के बाद भी युद्ध की स्थिति में पहुंचने के बाद भी युद्ध करने के लिए अर्जुन ने असमर्थता दिखाई। अर्जुन के भीतर बदले की भावना नहीं पनपी, परिस्थिति के दबाव में आकर भी अर्जुन में हिंसा और रोष नहीं भरे। बाणों पर लेटे घायल भीष्म पितामह से क्षमा मांगते रहे। अर्जुन के भीतर इतनी सकारात्मक ऊर्जा भरी हुई थी।
 
अभी हाल में शिवना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित सबसे अधिक चर्चित डॉ. सुधा ओम ढींगरा द्वारा लिखित उपन्यास 'दृश्य से अदृश्य का सफ़र' पढ़ने का अवसर प्रदान हुआ। मैंने कभी किसी उपन्यास को, पुस्तक को इतनी तेजी से नहीं पढ़ा है। जिज्ञासा जगती गई और इस उपन्यास से मैं नहीं मेरा भीतर जुड़ता गया, जो-जो भी मैं महसूस करती रही उसे अपनी कलम से अपने शब्दों में बयान कर रही हूं।

इस उपन्यास की सभी कहानियां आपस में एक सूत्र से जुड़ी हुई महसूस होती हैं। पुरुष सत्ता का अहंकार, पुरुष मानसिकता, भयावहता का अदृश्य से निकलकर दृश्य में प्रकट होना और उसके परिणाम से औरत का दृश्य में दण्डित होना। नारी कितनी भी बहादुर क्यों न हो जाए उस अदृश्य पुरुष मानसिकता से श्रापित समाज कब मुक्त होगा ?
 
यथार्थ में कई जीवन कहानियों का अंत सुखद होता है, कई कहानियों का अंत दुःखद हो जाता है। मनुष्य जीवन में रोमांच, रोमांस चाहता है, रहस्य के भेद जानना चाहता है। इस उपन्यास में कहानियों का अंत सकारात्मकता के साथ सुखद है। उपन्यास में पाठक अपने भीतर से रोमांस करता है, अपने भीतर के रहस्य को जान रोमांचित होता है, प्रकृति से भक्ति सीखता है, अपने भीतर से ज्ञान पाता है ऊर्जाओं का। इसमें शिक्षा भी है, देश हैं, विश्व है, सृष्टि है, समाज है, सोचें हैं, सभ्यता-संस्कृति है, क्षमा और दंड है, जीवन शैलियां हैं, विज्ञान है और मनोविज्ञान है।
 
अमेरिका की जीवन शैली को दर्शाता उपन्यास, यहां जीवन अति व्यस्त होता है और काम से रिटायर होने के बाद भी जीवन अपनी रफ़्तार से चलता रहता है, सामाजिक ढांचा कुछ इस प्रकार है। यहां बच्चे अपनी-अपनी ज़िंदगियों में अपने-अपने करियर अनुसार रच-बस जाते हैं और काम से रिटायर होने के बाद दम्पति अपनी रुचि अनुसार अपनी जीवन शैली का चयन करते हैं। एक डॉक्टर जिसकी अपनी निजी ज़िंदगी भी होती है, उसके ऊपर कई ज़िम्मेदारियां होती हैं। उन ज़िम्मेदारियों को निभाने के अपने संघर्ष होते हैं उन संघर्षों को सहर्ष स्वीकार कर वह अपनी ड्यूटी करते हैं। वह प्रतिदिन देश के लिए, विश्व के लिए मानव जीवन की रक्षा का संघर्ष करते हैं अदृश्य ताकतों से लड़कर।
   
डॉ. लता अपने मरीज़ों को उनके जीवन के लिए लड़ना सीखा योद्धा बनाती हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है नारी के दमन चक्र को रोकने के लिए डॉ. लता जितनी कितनी योद्धा ढाल बनकर स्त्रियों के साथ उनके हक़ के लिए खड़ी होती हैं ? रानी या दासी की कहानी की सास, डॉली की सास दरिंदे बेटों का ज़ुल्म में साथ देती हैं। क्यों नहीं हर मां, हर स्त्री अपने पुत्र को औरत के सम्मान का पहला पाठ जीवन में पढ़ाती हैं?

मंगल ग्रह पर भारत पहला सेटेलाइट भेजता है, जिसकी कमांड एक महिला वैज्ञानिक संभालती है। विदेशी धरती अमेरिका में मौका मिलने पर भारतीय महिलाएं अंतरिक्ष में पैर रख चुकीं। भारत में पिता और बापू के सानिध्य में लोह महिला इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनती हैं और अमेरिका में पहली बार भारतीय स्त्री ही प्रथम महिला उपराष्ट्रपति बनीं, शायद पहली महिला राष्ट्रपति भी बन जाएं। औरत शून्य पात्र नहीं है, एक परिपूर्ण जीवन रस से भरपूर जीव है। 
 
सोच तो समाज को बदलनी है! बबूल बोकर आम का स्वाद नहीं मिल सकता। महिलाएं घर और बाहर दोनों ज़िम्मेदारियों को बखूबी निभा ही रही हैं। नारी ह्रदय निर्मल और विशाल होता है, जीवन उल्लास मनाना जानता है। नारी क्षमा का मोल जानती है, जननी है  जीवन का मोल भी जानती है। बार-बार क्षमा करने का ह्रदय और हिम्मत भी नारी ही रख सकती है। क्षमा दान से सकारात्मक ऊर्जा की वृद्धि होती है सृष्टि में।

नारी भी सृष्टि समान ही है जितना भी दोहन करो, दमन करो हमेशा परिपूर्ण रहकर क्षमा ही करती है। लेकिन यदि मनुष्य गलती कर अपने अस्तित्व को खुद ही खतरे में डाल दे तो कोई क्या कर सकता है, और वही हो रहा है प्रकृति पर्यावरण के साथ भी और समाज में स्त्री के साथ भी। उपन्यास में डॉली और सायरा इसी का उदाहरण हैं 'क्षमा'! यह लेखक की गहरी संवेदनशीलता का परिचायक है। सगुण और निर्गुण भी इंसान के भीतर ही बसते हैं सकारात्मकता और नकारात्मकता की तरह।
 
औरतें जिन्हें एक मनोवैज्ञानिक युद्ध लड़ना पड़ता है भीतर-बाहर। ज़्यादा से ज़्यादा इस उपन्यास की दो कहानियों की नायिकाएं क्या मांग रही हैं ? एक साधारण सम्मानित निश्चिंत जीवन ! यह अपने व्यक्तित्वों को भुलाकर, महत्वाकांक्षाओं को भुलाकर शांत, ख़ुशियों भरा, सम्मानित जीवन ही तो जीना चाह रही हैं.....। शादी तो माता-पिता के दबाव में आकर कर ली, कहीं शादी के लिए जात-बिरादरी का दबाव है, कहीं जातिवाद का दबाव। क्या माता-पिता की मर्ज़ी से शादी करने से स्त्री का अपना कोई व्यक्तित्व, कोई वज़ूद नहीं बचता है?

क्या पुरुष को इतना घमंड होता है कि स्त्री ने किसी और से शादी के पहले प्यार किया तो, उस प्यार की उसे रोज़ सज़ा मिले? प्रेम अनुरोध नकारे जाने पर या कॉलेज के एक साधारण से चुनाव में स्त्री से हार जाने पर उस नारी से इतना बड़ा कसूर हो जाता है कि पुरुष दंभ उस नारी पर एसिड अटैक कर उसका शरीर, मन ही नहीं आत्मा भी छलनी-छलनी कर कुरूप बना दे? कई-कई प्रश्न गूंजते हैं ज़हन में ! कई-कई प्रश्न हैं जिनका क्या जवाब है! महानता इतिहास की, संस्कृति की, सभ्यता की..... किस महानता का गुणगान करें ? घरेलू हिंसा, स्त्री हत्या, स्त्री आत्महत्याएं, रोज़ अख़बारों में छपते-बढ़ते बलात्कार की खबरें...... कहीं तो, कभी तो राहत मिले वह वक्त कब आएगा…..।
 
इस उपन्यास को पढ़ते वक्त दो दृश्य मेरे ज़हन में कौंध रहे थे। जब भारत से चली थी देश के सैनिक कारगिल युद्ध जीत चुके थे और उनकी वीर गाथाओं के किस्से हर रोज़ टीवी, अख़बारों की सुर्खियां बन रहे थे। छाती गर्व से फूल जाती थी। सारा देश विपदा से निकल आया था, देश के योद्धाओं की वीरता पर गर्वित था। देशवासी देश भक्ति के रंग से लबालब सरोबर हो रहे थे। हर ओर उल्लास और जश्न का माहौल था।


उन्हीं दिनों एक दिन बहुत गर्मी थी और तेज़ धूप में सड़क पर बेतहाशा चलती मेरे मौहल्ले की एक सहेली दिखी। उसने नज़र उठाकर बेबस मेरी ओर देखा। शाम को ही मैं हॉस्पिटल के वार्ड में उसकी बहन को देखने पहुंच गई। सफ़ेद ताबूत के नीचे ढंकी, बेतहाशा दर्द में, बेपनाह दर्द आंखों में वह 90% जल चुकी थी। ससुरालवालों ने दहेज के लिए कांड कर डाला था, मामला तो गैस रिसाव का ही था। वह एक महीने से गर्भवती थी। मैं निशब्द.... भारत छोड़ दिया था कुछ दिनों में। फिर क्या हुआ पता नहीं !
 
दूसरा दृश्य कोरोना की पहली लहर, घबराया हुआ पूरा अमेरिका देश, मौत का चारों तरफ तांडव मचा हुआ था। एन.पी.आर. रेडियो पर 78 वर्ष के डॉक्टर ने इंटरव्यू में कहा था जब भी मुझे ड्यूटी पर दोबारा बुलाया जाएगा मैं तुरंत चला जाऊंगा। देश और मानवता की सेवा के लिए मैंने यह शपथ ली हुई है। मन गर्व और सम्मान से भीग उठा था। उस डॉक्टर को अर्थराइटिस था, जीवन साथी की कोरोना से अभी मृत्यु हो गई थी और वह अपने फर्ज़ को पूरा करने के लिए बेकरार था। डॉक्टर भी मनुष्य होता है?
    
पश्चिम में बैठा पाश्चात्य का मुखड़ा पहने एक भारतीय समाज जिसमें कई परिवारों की रूढ़िवादी दकियानूसी सोच है। वह सोच नहीं बदली है वरन उस पर पश्चिम का एक ज़ामा पहनाकर ढंका-छिपाकर, पॉलिश कर दुनिया के सामने रखा गया है। उस सोच को उघाड़ा है लेखक ने अपनी लेखनी से।


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है  और एक समाज में सामाजिक ढांचे में रहता है। उस ढांचे में कई धारणाएं भी होती हैं, जो मनुष्य के जीवन में कई रुकावटें या कठिनाइयां भी पैदा करती हैं, कभी परिस्थितियां बहुत कठिन हो जाती हैं। इन धारणाओं के कारण उत्पन्न कठिन परिस्थितियों के कारण मनुष्य मनोवैज्ञानिक युद्ध की स्थिति में फंस जाता है। स्थितियां  भयावह तब बन जाती हैं जब मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है, मानसिक तनाव बढ़ जाता है। 
 
मनुष्य जिस समाज में रहता है, उसके माहौल से प्रभावित होता है, उसकी सोच को वह माहौल वश में कर लेता है। उसके भीतर जो ऊर्जाएं पैदा होती हैं सकारात्मक या नकारात्मक वह उसी सोच पर मूलतः निर्भर करती हैं। वही सोच नज़रिए में बदल जाती है और हैबिट एनर्जी बन जाती है। स्त्रियों के लिए समाज की दोगली मानसिकता उन्हें हताश और निराश करती है। कई स्त्रियां जुझारू होती हैं, बाहर निकल आती हैं, कइयों का मानसिक स्वास्थ्य उस दोगली मानसिकता में दम तोड़ देता है।

रिश्तों में दैहिक यंत्रणा से अधिक नारी को मानसिक यंत्रणा की भयानकता को अधिक सहना पड़ता है। प्रथाएं जिनका बोझ स्त्रियों को ही क्यों उठाना पड़ता है। इन प्रथाओं से जो हो पाता भला किसी का, प्रथाएं इस तरह कोसी नहीं जातीं। दहेज़ प्रथा समय-असमय कितनी ताकतवर बन बैठी है, इंसानी ज़िंदगी से अधिक मोल है इसका।
 
महामारियां आकर चली जाएंगी लेकिन जब तक इंसानी सोच नहीं बदलेगी, बदलाव कभी नहीं आएगा। उपन्यास की महिला पात्र सकारात्मक सोच रखती हैं, बहादुर हैं, जुझारू हैं, अपने जीवन, उसकी शांति, ख़ुशियां और सम्मान के लिए लड़ती हैं। डॉ. लता का चरित्र प्रेरणादायक है, अमेरिका में बसी सहृदय लेकिन इरादों की पक्की अड़िग भारतीय नारी। जिसे अपने परिवार के सभी सदस्यों बहु को मिलाकर एक-सा प्यार है। (भारत में बहू को पूजा कर लक्ष्मी का रूप मान कर गृह प्रवेश कराया जाता है फिर उसी बहू का दैहिक और मानसिक शोषण क्यों कर किया जाता है ? क्या दहेज़ प्रथा अनुसार बहू के साथ बहुत सारा धन भी गृह में आता है, इसीलिए लक्ष्मी का रूप माना जाता है?)
 
उपन्यास अमेरिकी पृष्ठ्भूमि पर आगे बढ़ता है, जटिल विषयों पर वर्तमान की जटिलताओं को विस्तार से दर्शाता आगे बढ़ता है। कई पहलू हैं और हर पहलू पर लेखक ने गहन शोध कर अपनी बुद्धिमत्ता और ज्ञान का बिना ढिंढ़ोरा पीटे पुख्ता प्रमाण दिया है। वैज्ञानिक, सामाजिक, दार्शनिक, थोड़ा अध्यात्म, शिक्षा, पर्यावरण, राजनीति, मनोविज्ञान, चिकित्सा, जीवन शैली, सामाजिक सोच हर क्षेत्र में बारीकी से गहन अध्ययन और शोध के बाद लिखा गया है उपन्यास।
 
किसी लेखक के लिए लेखन उसके स्वयं के लिए प्रतिबद्धता होती है, क्योंकि वह लिख सकता है और लिखना चाहता है। लेकिन कुछ लेखकों के लिए लेखन एक हौसला, एक उत्साह जीवन उत्सव है और कुछ लेखकों को लेखन हवन कुंड की उस अवस्था में पहुंचा देता है जहां से वह अपने कर्तव्यों, अधिकारों के लिए नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व के कल्याण और मानवता के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए उन सामाजिक, राजनैतिक, मानवीय मुद्दों पर लिखते हैं, जाग्रति फैलाते हैं, जिससे आम-ख़ास सभी के जीवन पर खासा प्रभाव पड़ता है। 
 
यह वह लेखक हैं जो अपनी आवाज़ अपनी कलम से बुलंद कर अपनी बात मानवता के हित में उठाते हैं। मुद्दे अथाह हैं लेकिन काम करनेवाले कुछ एक ही। कलम की आवाज़ मानव को बीज से वृक्ष और वृक्ष से सृष्टि, सृष्टि से अंतरिक्ष और अंतरिक्ष से अनंत तक लेकर जाती है। इस उपन्यास में इन मुद्दों को बिना अधिक ज्ञान बांटे, बोझिल बनाए पानी की शीतल धार की तरह बहाकर लिखा गया है। आप पात्रों से, उनकी पृष्ठभूमि से, उनके जीवन की विडंबनाओं से गुज़रते हुए ऐसे बंध जाते हैं जैसे स्वयं के साथ यह घटित हो रहा है।


लगता है इस काव्य को रचने में लेखक ने अपनी लेखनी का पूरा डीएनए ही बदल दिया है। दिमाग की गांठें, मन की उलझनें और मानव मस्तिष्क को समझने के लिए सदियों से ग्रंथ लिखे गए। कई साधुओं ने, सूफी संतों ने, विद्वानों ने इस विषय पर अपने-अपने विचार दिए। अलग-अलग तरीकों से परिभाषित किया किंतु आज तक भी यह विषय सूक्ष्म और जटिल ही रहा। जिसे जग ने जानना चाहा और जो दृश्य में दिखता है उस के पीछे का अदृश्य जो दिखाई न देकर भी अस्तित्व में है। 
 
 
इंसानों की दिमागी क्षमताएं अपार हैं और उनके बल पर इंसान आसमान में उड़ सकता है, पानी पर चल सकता है, दूसरे ग्रहों पर जा सकता है, समुद्र की गहराई में पहुंच सकता है लेकिन एक साधारण जीवन की मुश्किलों से लड़ने के लिए एक अदृश्य ऊर्जा पर, शक्ति पर निर्भर करता है।


क्या जीवन सचमुच इतना कठिन है ? मुश्किलों से घबराकर मनुष्य निगेटिव ऊर्जा अपने भीतर पैदा कर लेता है या उन पर दोष मढ़ देता है जो दिखाई नहीं देता। क्या सचमुच, क्या वाकई पॉजिटिव अदृश्य एनर्जी जितनी अदृश्य निगेटिव एनर्जी भी है? क्यों किसी के साथ हादसे होते हैं ? यह गूढ़ समझने और समझाने के लिए सुधा जी ने इस उपन्यास को लिखकर एक बहुत बड़ा कार्य मानवता के लिए किया है। लेखक ने भाषा को सरल और सहज रखा है जो इसे विशिष्ठ बनाता है। गीता को समझने के लिए एक जीवन भी कम पड़ जाता है और गूढ़ गुत्थी को सुलझाने का प्रयास बेहतरीन है। 
 
अपने तरह के इस अनूठे उपन्यास में अच्छा हुआ लेखक ने अभी किसी अमेरिकी स्त्री या पुरुष की जीवन कहानी पर नहीं लिखी और सारे पात्र भारतीय रखे हैं। उपन्यास का विषय जटिल है, भाषा सरल, अब तब इसे पढ़कर उस जटिलता पर पाठक की समझ मजबूत होती है। इसी विषय को लेकर किसी अमेरिकी स्त्री या पुरुष को पात्र बना, उसकी जीवन की कहानी पर उपन्यास का अगला भाग लाया जा सकता है।


जैसे एमरली की कहानी ! एक प्रवासी भारतीय स्त्री होने के नाते मैं भारत में स्त्री के जीवन, उसकी विडम्बना, उसके संघर्षों से भलीभांति परिचित हूं और समझ सकती हूं लेकिन कई बार यहां की संस्कृति के हिसाब से यहां के लोगों की जीवन शैली और जटिलता से सहमत नहीं हो पाती या समझ से बाहर हो जाते हैं, ठीक इसके विपरीत जैसे हमारे अमेरिकन मित्रों को कोई बॉलीवुड मूवी की कहानी, या हमारी संस्कृति की कई बातें समझ नहीं आती खासकर अरेंज मैरेजेस ! इस उपन्यास को पढ़ने के बाद मानव मन की स्थिति, मस्तिष्क की जटिलता और मन पर पड़े प्रभावों को समझने में अधिक आसानी होगी। 
 
सुधा ओम ढींगरा का अब तक का सबसे बेहतर-बेहतर कार्य है यह उपन्यास ! प्रकृति की एक ऐसी नब्ज़ को भी लेखक ने पकड़ा है, जिसे आधार बना जीवन की कहानियों के उतार-चढ़ाव, उनकी बीमारी, उनका इलाज उस नब्ज को पकड़ कर किया है। यह लेखक की लेखनी की कुशलता और सक्षमता का परिणाम है। आकाश के विविध रंग और छटाओं से सभी संभावित मनःस्थितियों को दर्शाया है, घर की एक बालकनी से प्राकृतिक जीवन से मानव जीवन के हर संभव रंग को लेखक ने अपनी कलम से कैनवास पर उतारा है।


वैज्ञानिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, जीवन शैली हर पहलू, हर छोर पर लेखक ने प्रकाश डाला है। यह उपन्यास मन-मस्तिष्क की कई परतों को उतार मनुष्य को अपने भीतर उतर, मनुष्य को अपने-आप को समझने का, अपने -आप को महसूस करने का, अपने-आप से बात करने का और अपने भीतर छिपी ऊर्जाओं के भेद से साक्षात्कार का सुनहरा अवसर प्रदान करता है। बार-बार पढ़ने योग्य उपन्यास की रचना के लिए लेखक को लाख-लाख बधाइयां!
 
दृश्य से अदृश्य का सफ़र (उपन्यास)
लेखक- सुधा ओम ढींगरा
प्रकाशक- शिवना प्रकाशन
पृष्ठ- 152
साल- 2021
मूल्य- तीन सौ रुपए

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Sudha Om Dhingra
 

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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