- शशि कुमार पांडेय
साहित्य गंभीर होता है। शायद यही वजह है कि साहित्य के पाठक कम होते हैं। पत्रकारिता की शैली में पठनीयता होती है, क्योंकि यह समाज-देश की घटनाओं पर तथ्यात्मक तौर पर आधारित होती है लेकिन इसमें तात्कालिकता अधिक होती है। क्या साहित्य में पत्रकारिता की तरह पठनीयता संभव है?
जी हां, ऐसा संभव है। जाने-माने टीवी पत्रकार डॉ. मुकेश कुमार ने अपनी पुस्तक फ़ेक एनकाउंटर के माध्यम से एक नया प्रयोग किया है जिसमें साहित्यिक व्यंग्य को पत्रकारिता की शैली में प्रस्तुत किया गया है और इन्हें पत्रकारीय व्यंग्य कहना उचित होगा। साहित्य में इसे एक नई शैली का समावेश माना जाना चाहिए। इस शैली की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि पुस्तक की पठनीयता पूरी तरह बरकरार है।
दावे के साथ कहा जा सकता है कि यदि कोई पाठक पुस्तक पलटते हुए भी इसका एक या आधा पेज पढ़ लेगा तो वह पूरी पुस्तक पढ़े बिना नहीं रह सकता। पाठकों को बांधने की ग़ज़ब की टेक्निक का इस्तेमाल किया है डॉ. मुकेश कुमार ने।
पुस्तक पठनीय होनी चाहिए, लेखक के मन में यह बात रही है। अपने 'लेखकीय' में पुस्तक के बारे में बात करते हुए वे कहते भी हैं- 'सीधे-सीधे कुछ लिखना न तो पठनीय होता और न ही उसमें उतना कुछ कहा जा सकता था इसलिए काल्पनिक एवं व्यंग्यात्मक इंटरव्यू का सहारा लिया।'
पुस्तक में समाहित जितने भी इंटरव्यू हैं, वे पूरी तरह काल्पनिक हैं। मूल चरित्र से बात करते हुए उनके मुंह से वही बातें कहलवाई गई हैं, जो उनके मन में हो सकती हैं। ये इंटरव्यू अलग तरह के हैं यानी जनसंपर्क टाइप के नहीं हैं बल्कि पोल-पट्टी खोलने वाले हैं।
ये पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं तथा पाठकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलती रही जिसकी बदौलत लेखक ने इतने फ़ेक इंटरव्यू किए। इसके साथ ही कई लोगों की नाराजगी भी झेलनी पड़ी, जैसा कि लेखक ने 'लेखकीय' में बताया है। अब ये सारे इंटरव्यू जिनकी संख्या 67 हैं, एकसाथ पुस्तक के रूप में छपे हैं तो इसके लिए निस्संदेह डॉ. मुकेश कुमार को पत्रकारीय व्यंग्य शुरू करने का श्रेय मिलेगा। पत्रकारीय शैली में लिखे गए ये व्यंग्य इतने धारदार हैं कि कुछ लोग अदालत का दरवाजा भी खटखटा सकते हैं। इसके लिए लेखक को तैयार रहना पड़ेगा। यह इस पुस्तक का साइड इफेक्ट हो सकता है।
लेखक ने पुस्तक में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक समेत तमाम तरह की विडंबनाओं पर करारा प्रहार किया है। इसके लिए उन्होंने हर क्षेत्र के चरित्रों का सहारा लिया है। यही वज़ह है कि इनके इंटरव्यू में नरेन्द्र मोदी, सोनिया गांधी, लालू यादव, दिग्विजय सिंह, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, शिवराजसिंह चौहान, शत्रुघ्न सिन्हा, अरविंद केजरीवाल जैसे नाम हैं तो अमिताभ बच्चन, अनुष्का शर्मा, गुलाम अली, अदनान सामी के भी नाम हैं। इतना ही नहीं, लेखक ने बराक ओबामा, नवाज शरीफ, मुशर्रफ, साक्षी महाराज, विराट कोहली जैसे चरित्रों को भी चुना है। कहने का तात्पर्य है कि हर क्षेत्र के चरित्र और वहां मौजूद समस्याओं पर फ़ेक एनकाउंटर का अटैक साफ दिखाई देता है।
पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद एक बात साफ हो जाती है कि लेखक समाज, देश तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्याप्त समस्याओं का पूरी तरह सफाया चाहता है। उनके मन में एक टीस है, पीड़ा है, एक बेचैनी है, जो इंटरव्यू में उजागर होती है। लेखक अपनी बात यानी लोगों की समस्याओं को हर व्यक्ति तक पहुंचाना चाहते हैं, इसके साथ ही वे लोगों को जागरूक भी करना चाहते हैं। इसी बात को ध्यान रखते हुए वे साधारण शब्दों में असाधारण बात कहते हैं, जो पाठक के साथ ही पूरी व्यवस्था को झकझोरती है।
इंटरव्यू के शीर्षक इतने तीखे और व्यंग्यात्मक हैं कि वे प्रहार करते हुए पूरी बात कह देते हैं, जैसे मैं तो तिहाड़ में ही मज़े में हूं : सहाराश्री, हम तो कहेंगे वंशवाद जिंदाबाद : लालू, इश्क ने हमको निकम्मा कर दिया : कोहली, इंडिया मेरे लिए घर नहीं मार्केट है : पिचाई, गुजरात मॉडल नहीं अडानी मॉडल बोलिए : हार्दिक पटेल।
डॉ. मुकेश कुमार व्यंग्य करने में बड़े माहिर हैं। वे कब, कहां, कैसे व्यंग्य कर देंगे किसी को नहीं पता। अरुण जेटली के साथ फ़ेक एनकाउंटर में कहते हैं- 'उनको तमाम बड़े रोग हैं, जो किसी बड़े आदमी को होने चाहिए। मधुमेह और हृदयरोग ने तो उन्हें उसी तरह जकड़ रखा था, जैसे कि बीजेपी को मोदीमेनिया और कांग्रेस को राहुलफोबिया ने।'
पुस्तक की भूमिका 'नवभारत टाइम्स.कॉम' के संपादक नीरेन्द्र नागर ने लिखी है। डॉ. मुकेश के व्यंग्य पर उन्होंने बहुत सटीक टिप्पणी की है- 'मुकेश के फ़ेक इंटरव्यू में ख़ासियत यह है कि उनमें गहरा होमवर्क किया हुआ दिखता है। यह सच है कि ये इंटरव्यू समय और विषय विशेष पर लिखे गए हैं लेकिन सवाल-जवाब केवल उस समय और उस विषय विशेष पर सीमित नहीं रहते। यदि जवाब में कोई प्रतिप्रश्न निकल रहा है, जो 5 साल पहले की किसी घटना से जुड़ा हो तो वह भी पूछा जाता है।'
भाषायी विविधता का निर्वाह लेखक ने पुस्तक में बखूबी किया है। जिस प्रांत, क्षेत्र के चरित्रों को लिया गया है, जवाब में वहां की भाषा साफ दिखाई देती है। ममता बनर्जी बांग्ला मिश्रित हिन्दी में जवाब देती हैं- 'गोस्सा क्यों नहीं आएगा? पूरी जवानी बोरबाद करके हम पावर में आया। सोचा बंगाल के लिए कुछ कोरेगा, मगर सब लोग मेरे पीछे लग गया है।' जसोदा बेन अपनी बात गुजराती में बताती हैं तो लालू यादव ठेठ भोजपुरी मिश्रित हिन्दी में कहते हैं- 'बिहार चलाने का मैनडेट मिला है त हम बिहार चलाएंगे न भाई।'
पुस्तक की भाषा सरल तथा साफ-सुथरी है। कहीं भी कठिन शब्द सम्प्रेषणीयता में बाधक नहीं बनते। वाक्य छोटे-छोटे हैं। लेखक का भाषा पर पूरा अधिकार है। उन्होंने भाषा को भावों के अनुसार बहुत ही चतुराई से प्रयोग किया है। पूरी पुस्तक में भाषा भावों को लेकर बेरोकटोक तीर की तरह चलती है, जो पाठक को अपनी तरफ आकर्षित करती है।
पुस्तक की छपाई भी अच्छी तथा आकर्षक है। आकार, प्रिंटिंग, पेपर की दृष्टि से पुस्तक का लुक बहुत अच्छा दिख रहा है। आशा की जाती है कि पुस्तक पाठकों को भाएगी, पसंद आएगी लेकिन उन चरित्रों के दिलो-दिमाग को कचोटेगी जिनके माध्यम से फ़ेक एनकाउंटर की बातें कहलवाई गई हैं। पुस्तक की गुणवत्ता तथा पृष्ठों के हिसाब से पुस्तक की कीमत अधिक नहीं है।
पुस्तक : फ़ेक एनकाउंटर
लेखक : डॉ. मुकेश कुमार
प्रकाशक : शिवना प्रकाशक, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेंट, बस स्टैंड, सीहोर (मप्र)