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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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राष्ट्रीय राजनीति में संभावित बदलाव की शुरुआत

राष्ट्रीय राजनीति में संभावित बदलाव की शुरुआत

संदीप तिवारी

भाजपा को एक बार फिर गुजरात में बहुमत मिल गया लेकिन अब ऐसे में सवाल उठता है कि ये नतीजे राष्ट्रीय राजनीति को किस प्रकार प्रभावित कर सकते हैं? सबसे अहम बात है कि गुजरात में भाजपा की जीत 2019 के लोकसभा चुनावों को लेकर बेहद अहम है। गुजरात न सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृह राज्य है, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी गुजरात से हैं। 
 
लेकिन इस जीत का यह अर्थ नहीं है कि गुजरात जैसी मुश्किलों का सामना भाजपा को अन्य राज्यों में नहीं करना होगा और अगले आम चुनाव में मोदीजी को जीत तश्तरी में रखी मिलने वाली है। इन राज्यों के नतीजों के बाद 2019 के लोकसभा चुनावों को लेकर विपक्ष के मनोबल में पहले से ज्यादा नहीं तो थोड़ा बहुत बदलाव निश्चित तौर पर देखने को मिलेगा।
 
नरेंद्र मोदी का कथित जादू : हालांकि कहा अभी भी जा रहा है कि मोदी का जादू बरकरार है लेकिन यह 2019 तक बरकरार रह पाएगा, इसमें संदेह है। गुजरात के चुनाव परिणामों को लेकर अगर कहा जा रहा है कि बंदरों (राहुल गांधी और हार्दिक पटेल व अन्य) ने शेर (मोदी जी) के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया है, यह गलत भी नहीं है क्योंकि अपने गृह राज्य के लिए प्रधानमंत्री को प्रचार में जिस तरह से दिन-रात एक करना पड़ा है, वह यही साबित करता है कि भाजपा का अर्थ केवल नरेन्द्र मोदी है और पार्टी में कोई दूसरा ऐसा करिश्माई नेता नहीं है जोकि अगले आम चुनावों में चमत्कार दिखाने की क्षमता रखता हो।   
 
गुजरात भाजपा के कई नेता अनौपचारिक बातचीत में यह मानते हैं कि अगर नरेंद्र मोदी नहीं होते तो इस बार गुजरात में भाजपा चुनाव हार जाती। नोटबंदी और जीएसटी को लेकर भी कारोबारियों को सबसे अधिक दिक्कत की खबरें गुजरात से ही आई थीं। लेकिन इसके बावजूद अगर गुजरात में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा को बहुमत मिला है तो इसका मतलब साफ है कि मतदाताओं पर मोदी का असर अब भी है लेकिन यह पहले से कम हो गया है। 
 
कांग्रेस को गहन तैयारी की जरूरत : कांग्रेस भले ही गुजरात चुनाव हार गई हो लेकिन प्रदेश में उसकी सीटों की संख्या बढ़ी है। उसका मत प्रतिशत भी बढ़ा है। खुद भाजपा के नेता मानते हैं कि लंबे समय बाद गुजरात में कांग्रेस ने पूरे दमखम के साथ भाजपा को टक्कर दी है। इस बार कांग्रेस जिस तरह से वहां लड़ी, उससे भाजपा को एक पल का भी चैन नहीं मिला और अंतिम समय तक उसे पूरी ताकत लगानी पड़ी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राज्य में 33 रैलियां करना इसी बात का संकेत है।
 
गुजरात में कांग्रेस के चुनाव प्रचार का माहौल, ठीक चुनाव के पहले के सिर्फ तीन महीने में अपने पक्ष में बना। लेकिन अगर कांग्रेस लगातार एक सशक्त विपक्ष के तौर पर सक्रिय रहती तो गुजरात के नतीजे कुछ और हो सकते थे। इसके अलावा दूसरी बात यह भी है कि बूथ स्तर पर कांग्रेस के पास पर्याप्त कार्यकर्ता नहीं थे। मतलब साफ है कि कांग्रेस को भाजपा को हराने की स्थिति में आने के लिए और मेहनत करने की जरूरत है। अपनी ऐसी ही अन्य रणनीतिक कमियों को अगर कांग्रेस दूर करती है तो आने वाले दिनों में वह न सिर्फ विधानसभा चुनावों में बल्कि 2019 के लोकसभा चुनावों में भी भाजपा का मुकाबला मजबूती से करने की स्थिति में होगी।
 
एनडीए की और मजबूती संभव : गुजरात और हिमाचल प्रदेश के नतीजे भाजपा के पक्ष में आने से गैर कांग्रेसी दलों में यह संदेश गया है कि नरेंद्र मोदी और भाजपा अभी मजबूत स्थिति में हैं हालांकि पूरी तरह अजेय नहीं। 2019 के लोकसभा चुनावों को जीतने की दृष्टि से कांग्रेस के मुकाबले भाजपा कहीं अधिक मजबूत दावेदार है। इस स्थिति में अलग-अलग राज्यों के छोटे-छोटे दलों में भाजपा के प्रति आकर्षण बढ़ेगा और आने वाले दिनों में भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का विस्तार हो सकता है लेकिन इसे राजनीतिक या रणनीतिक सफलता का पर्याय नहीं माना जा सकता है।
 
कुछ दल ऐसे भी हैं जो अभी तो कांग्रेस के साथ खड़े हैं, लेकिन इन चुनावी नतीजों के बाद वे भाजपा का दामन भी थाम सकते हैं। इनमें से एक है शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी। हालांकि, शरद पवार ने यह कहा है कि एनसीपी अगला लोकसभा चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ेगी लेकिन आने वाले दिनों में उसका रुख इसके उलट भी हो सकता है। विदित हो कि गुजरात में इस साल अगस्त में हुए राज्यसभा चुनावों में एनसीपी ने भाजपा का साथ दिया था। यह डांवाडोल मन:स्थिति या तात्कालिक लाभ उठाने की मानसिकता को दर्शाती है। दक्षिण भारत के राज्यों के क्षेत्रीय दलों की स्थिति कुछ अलग नहीं है क्योंकि वे भी यह फैसला समय और मौका आने पर ही लेंगे।
 
विपक्ष के पास अभी भी प्रभावी एजेंडा नहीं : गुजरात के चुनावी नतीजों ने बता दिया है कि विपक्ष के पास अब भी नरेंद्र मोदी और भाजपा से निर्णायक मुकाबला करने के लिए कोई ठोस एजेंडा नहीं है। गुजरात में कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी के विकास के मॉडल को निशाना बनाया, लेकिन इसके साथ ही खुद नरम हिंदुत्व की राजनीति की। किसानों, अल्पसंख्‍यकों की दुर्दशा और युवाओं की बेरोजगारी जैसे मुद्दे उठाए। लेकिन उसने ना तो इसके हल बताए और न ही इन्हें प्रभावी तरीके से रखा। परिणामस्वरूप उसे उतना जनसमर्थन नहीं मिला कि वह गुजरात में चुनाव जीत पाए। 
 
कांग्रेस और उसकी अगुवाई वाले विपक्ष के साथ राष्ट्रीय स्तर पर भी यही समस्या है। उसके पास अब तक वह एजेंडा नहीं हैं जिसके बूते वह भाजपा और नरेंद्र मोदी को पटखनी दे सके। गुजरात के नतीजों के बाद विपक्ष के बीच चुनावी जीत दिलाने की क्षमता रखने वाले राजनीतिक एजेंडे को लेकर माथापच्ची की जरूरत है। 
 
गुजरात के चुनावी आंकड़े बताते हैं कि भाजपा ने 99 सीटें जीतकर बहुमत तो कायम रखा पर इसके साथ बहुत सारे किंतु-परंतु भी हैं। गुजरात की 73 शहरी विधानसभा सीटों में से भाजपा को मिलीं 56 और ग्रामीण 109 सीटों में से इसे मात्र 43 सीटें ही मिलीं। शहरी इलाकों में जहां भाजपा की सफलता का स्ट्राइक रेट 75 फीसदी से ऊपर है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में सफलता का स्ट्राइक रेट 40 फीसदी पर भी ना पहुंच पाया।
 
ये आंकड़ा बहुत कुछ कहता है। यह मामला खालिस जाति, धर्म या आरक्षण का नहीं है, वरन मूलत: अर्थशास्त्र का भी है। पटेल आंदोलन के गढ़ रहे सूरत में बीजेपी ने जीत का झंडा फहरा दिया है पर ग्रामीण पटेल कांग्रेस के साथ चले गए। इसका अर्थ है कि राहुल गांधी का कथानक कि भाजपा की सूट बूट की सरकार है, यही साबित करता है। कांग्रेस यही बात बर्षों से सिद्ध करने की कोशिश कर रही है।  
 
अगर यह कहानी 2018 मई के कर्नाटक विधानसभा चुनावों में, 2018 के अंत में होने वाले राजस्थान और मध्यप्रदेश चुनावों में और मजबूत होकर उभरे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। गांवों के लोग अगर भाजपा से नाराज हैं, तो इसलिए नहीं कि उसे राहुल गांधी में बहुत संभावनाएं दिख रही हैं, बल्कि इसलिए कि भाजपा केंद्र में तीन साल से ज्यादा की सरकार के बावजूद किसानों की समस्याएं के ठोस निदान नहीं पेश कर पाई है।  
 
मध्यप्रदेश में हिंसक किसान आंदोलन ज्यादा पुराना नहीं हैं। इन चुनावों ने बहुत कुछ ऐसे संकेत दिए हैं, जिनसे सबक सीखना सभी के लिए फायदेमंद होगा। सेंसेक्स पिछले एक साल में 25 फीसदी से ज्यादा बढ़ गया है लेकिन एक साल में 25 फीसदी आय भारत के किसी सफलतम किसान की भी नहीं बढ़ी होगी। सेंसेक्स भी भारतीय है और किसान भी भारतीय हैं लेकिन सेंसेक्स से लाभान्वित होने वालों की संख्या खेती-किसानी से प्रभावित होनेवालों से बहुत कम है। इसलिए ऐसा भी देखने में आ सकता है कि सेंसेक्स से लाभान्वित लोग चुनावी परिणामों से अचंभे में आ जाते हैं। जब सब कुछ इतना शाइनिंग इंडिया है, तो फिर चुनाव वह सरकार क्यों हार रही है, जिसने इंडिया के एक हिस्से को शाइनिंग बना दिया है। 
 
वैसे भी हमारे देश की आर्थिक प्रगति को अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज मानते हैं कि यह 
'सब-सहारा रेगिस्तान में कैलिफोर्निया की सिलिकॉन वैली' बनाने जैसा है। अगस्त 2017 में आए आर्थिक सर्वेक्षण खंड दो की एक तालिका बताती है कि खेती की विकास दर 2012-13 में 1.5 फीसदी, 2013-14 में 5.6 फीसदी, 2014-15 में माइनस दशमलव दो फीसदी, 2015-16 में दशमलव 7 फीसदी और 2016-17 में 4.9 फीसदी (अनुमानित) रही। स्वाभाविक है कि खेती की हालत अच्छी नहीं है, यह सिर्फ तालिका से ही साबित नहीं होता। गिरावट से लेकर अधिकतम 5 फीसदी विकास का आंकड़ा रहा है खेती का, लेकिन क्या इसका वास्तविक लाभ किसानों को मिला है?
 
खेती अच्छी नहीं होती है, उससे अच्छी कमाई नहीं होती, तो क्या होता है? तो यह होता है कि किसानों के कर्ज की माफी का मुद्दा महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दा बन जाता है। किसानों की कर्ज के माफी रकम का मुद्दा यूपी विधानसभा चुनावों का बड़ा मुद्दा था। किसानों की कर्ज माफी की रकम भी बजट से आती है। यानी अगर किसान बदहाल रहेगा, तो कर्ज माफी देर-सबेर करनी पड़ेगी। यह राजनीतिक मुद्दा ही बनना है, ऐसा मुद्दा, जिसके विरोध में कोई भी राजनीतिक पार्टी दिखना नहीं चाहेगी। 
 
लेकिन भाजपा को सिर्फ सेंसेक्स की बढ़त में ही देश का विकास दिखता है, बाकी देश का ग्रामीण इलाका उसके लिए जैसे अधिक अर्थ नहीं रखता है। सेंसेक्स 25 फीसदी से ज्यादा उछल जाए एक साल में और खेती में 5 फीसदी का भी उछाल ना हो, तो परिणाम गुजरात जैसे आते हैं, कपास के भावों के मारे किसान कांग्रेस में चले जाते हैं और सूरत के संपन्न कारोबारी जीएसटी की समस्याओं के बावजूद बीजेपी को ही वोट दे देते हैं। यानी अर्थव्यवस्था में भी एक किस्म का विभाजन दिखाई पड़ने लग जाता है।
 
आगामी बजट से उम्मीदें : विदित हो कि 2018-19 का बजट लोकसभा चुनावों से करीब डेढ़ साल पहले का बजट होगा। इसलिए इस बजट में बहुत कड़े प्रावधानों की उम्मीद नहीं होनी चाहिए और गुजरात के चुनावों के परिणामों ने कड़ाई की बची-खुची उम्मीदें खत्म कर दी हैं। जीएसटी के कार्यान्वन और नोटबंदी से उपजे संकट के बाद अब आर्थिक प्रयोगों का दायरा बहुत सीमित हो गया है। हालांकि डॉक्टर जेटली के पास सभी आर्थिक बीमारियों का इलाज है और वे प्रधानमंत्री को आश्वस्त कर देते हैं कि इंडिया इज शाइनिंग और ऑल इज वेल है। 
 
लेकिन, इन सभी बातों का एक सीधा सा मतलब है कि ग्रामीण आर्थिक संकट अब एक ऐसी ठोस सच्चाई है, जिससे केंद्र सरकार और राज्य सरकारें लगातार दो-चार हो रही हैं। इसके हल ढूंढना बहुत जरूरी हैं और इन्हें यथास्थितिवाद के हवाले नहीं किया जा सकता और टाला भी नहीं जा सकता है। आर्थिक संकट कहीं न कहीं राजनीतिक संकट के तौर पर भी अंतत: सामने आता है। बेरोजगार को यह समझाना बहुत आसान होता है कि उसकी स्थिति के लिए सरकार ही जिम्मेदार है।
 
2004 में कांग्रेस का एक चुनावी इश्तिहार यह बताता था कि नौजवान किस तरह से बेरोजगार घूम रहे हैं। कांग्रेस की अपनी 10 साल की विकास यात्रा रोजगार के मसले पर बहुत निराशाजनक रही है, इसका मुद्दा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगातार अपने चुनावी भाषणों में बनाया है। अब यही मुद्दे राहुल गांधी को बेरोजगारी और किसानों की समस्याओं में अपनी राजनीतिक कथा के कथानक में दिखाई पड़ रहे हैं। 
 
गुजरात के चुनाव बेरोजगारी और किसानों की समस्याओं को सफल कथानक साबित कर रहे हैं। पटेल आंदोलन कहीं ना कहीं रोजगार अवसरों की कमी से उपजा है और गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भाजपा अपनी विकास कथाओं की वैसी मार्केटिंग नहीं कर पा रही है, जैसी उछलते सेंसेक्स के जरिए हो पाती है। चूंकि देश की 65 फीसदी जनता गांवों से जुड़ी है, इसलिए राजनीतिक तौर पर उन्हें अब अर्थव्यवस्था के केंद्र में रखना राजनीतिक मजबूरी भी है और जरूरत भी। कांग्रेस और विरोधी दलों को इसी से बहुत कुछ सीखना होगा।
 
गुजरात चुनाव परिणामों पर एक वरिष्ठ टीआरएस नेता (तेलंगाना राष्ट्र समिति, जिसे कुछ हद तक भाजपा-कांग्रेस से निरपेक्ष माना जा सकता है) ने सोमवार को कहा कि गुजरात में भाजपा का उम्मीद से कम प्रदर्शन बताता है कि 2019 के आम चुनाव राजग की अगुवाई करने वाली इस पार्टी के लिए आसान नहीं होने जा रहे हैं।
 
लोकसभा में टीआरएस के नेता एपी जितेंद्र रेड्डी ने कहा, गुजरात विधानसभा चुनाव का अहम संदेश यह है कि 2019 के चुनाव में मुकाबला भाजपा के लिए कोई आसान नहीं होने जा रहा है। उसे (भाजपा को) मूल तौर पर अपने प्रशासन को फिर से परखना होगा। उन्होंने कहा, निश्चित ही यह भाजपा के लिए झटका है। मैं इसे नोटबंदी और जीएसटी का असर मानता हूं। भाजपा सरकार ने जो कुछ किया, वह लोगों को वाकई पसंद नहीं आया, यही मतपत्र का परिणाम है जो उन्होंने दिया है। 
 

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