(1728 से 1766 तक)
मल्हारराव होलकर का जन्म होलगांव के पटेल खंडोजी के घर माता गंगाबाई के उदर से 16 मार्च गुरुवार 1693 में दोपहर 12 बजे हुआ था। इनकी जन्मतिथि के संबंध में भी विवाद है। कहीं-कहीं 16 अक्टूबर 1694 अंकित है। इनके पिता खंडोजी का मुख्य धंधा कृषि था।
मल्हारराव की अल्प आयु में ही उनके पिता का देहांत हो गया। इस पर माता गंगाबाई अपने भाई भोजराज बारगल के यहां अपने मायके गांव तालोद चली गईं। तालोद गांव खानदेश के सुल्तानपुर परगने में था। भोजराज गांव का जमींदार था। बालक मल्हार मामा के घर उन्मुक्त वातावरण में पलने लगा। हम उम्र के साथियों में उसका प्रभाव जम गया।
कहा जाता है कि एक दिन धूप तेज थी, उससे बचाव के लिए मित्रों को छोड़कर समीप ही किसी झाड़ी की छाया में बालक मल्हार सुस्ताने लगा। इसी बीच एक नाग कहीं से आकर उनके मुंह पर अपना फन चौड़ाकर छाया करने लगा। इस दौरान मल्हार गहरी नींद में था। कुछ देर बाद उनके साथी उन्हें तलाशते हुए वहां आ पहुंचे। उनकी आहट से नाग अपनी राह निकल गया।
इस दृश्य को देख सभी साथी आश्चर्यचकित रह गए। मल्हार गहन निंद्रा में लीन था। सभी साथियों ने घटना का जिक्र पूरे गांव में किया। मां और मामा भी यह समाचार सुन विस्मित हो गए। भय के चलते उन्होंने अगले दिन से मल्हार का पशु चराना बंद कर दिया। कुछ समय बाद मामा ने किशोर मल्हार को अपनी सैनिक टुकड़ी में भर्ती कर सिपाही बना लिया।
मल्हारराव की माता को किसी विद्वान पंडित ने भविष्यवाणी के रूप में यह कहा कि तुम्हारा पुत्र पृथ्वीपति बनेगा, क्योंकि ये लक्षण नागछायादारी जैसे हैं। 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' की उक्ति को मल्हार ने निज कर्तव्यों से सिद्ध करना प्रारंभ कर दिया। यह युग तलवार बहादुरी का था, इसी गुण प्रतिभा का प्रदर्शन एक दिन मल्हार ने निजामुल मुल्क के सरदार का अकेले ही सिर काटकर बतला दिया। इस शौर्य कृत्य ने उनकी ख्याति फैला दी। भोजराज बारगल ने इस प्रसन्नता के क्षणों में उत्साहित होकर अपनी पुत्री गौतमाबाई का विवाह मल्हारराव से कर दिया तथा कदम बांडे से परिचय करा दिया।
1724 में इन्हें मराठा सरदार कदम बांडे ने अपनी घुड़सवार पलटन के पांच सौ सवारों का नायक बना लिया। इस सैनिक टुकड़ी की विशिष्ट पहचान के लिए मल्हारराव ने लाल और सफेद रंगों का तिकोना ध्वज बनाकर लगाया। इससे सरदार कदम बांडे बहुत खुश हुआ। आगे चलकर यही ध्वज होलकर राज्य का शासकीय निशान बना। कदम बांडे ने पेशवाई सेना के हित में कार्य करने की छूट दे दी। पेशवा बाजीराव इनके वीरतापूर्ण कार्यों पर मुग्ध हो गए। मल्हार राव ने अपनी शूरवीरता से नर्मदा नदी के आसपास का क्षेत्र जीत लिया। पेशवा बाजीराव ने प्रसन्न होकर इन्हें मालवा के 12 महाल (परगना) 1728 में पुरस्कार रूप में प्रदान किए। होलकर राज्य की स्थापना का श्रीगणेश यहीं से मान्य हुआ।
पेशवा ने मल्हारराव को मालवा प्रांत की चौथ (कर) वसूली का अधिकार भी दे दिया। अपने पराक्रम और सतत परिश्रम से शीघ्र ही मल्हारराव ने मालवा-बुंदेलखंड की सूबेदारी प्राप्त कर ली। पेशवा के पूर्ण सहयोग से इन्होंने मराठा संघ की नींव मजबूत करने के लिए 'कटक से अटक' तक का विजय अभियान चलाया। इसके बदले में पेशवा की ओर से 60 लाख आमदनी वाला मालवा प्रदेश मिला। इंदौर राज्य (होलकर स्टेट) की नींव इसी आधार पर खड़ी हुई। मल्हारराव को उस राज्य का संस्थापक माना जाता है। इनके उपरांत इस वंश में चौदह शासक हुए, जिन्होंने लगभग 220 वर्ष 22 दिन तक राज्य की बागडोर संभाली।
1766 में पेशवा रघुनाथ राव के साथ मिलकर मराठा सरदारों ने धौलपुर-गोहद के राजाओं को घेरने की योजना बनाई। वे सामूहिक रूप से झांसी से प्रस्थान कर आगे बढ़ने लगे। 24 अप्रैल को भांडेर में रुके। यहां से आगे के लिए रवाना हुए, वहीं रास्ते में वृद्ध मल्हारराव का स्वास्थ्य अचानक बिगड़ गया। पिछले समय मांगरोल युद्ध में वे गंभीर रूप से घायल हो गए थे। वही पुराना घाव फिर सेतकलीफ देने लगा। इससे उन्हें बेरूवा-खेरा (आलमपुर) में उपचार हेतु रुकना पड़ा। यहीं 20 मई 1766 को उनका देहांत हो गया।
जिस समय मल्हारराव का आसन्न् काल निकट था। उन्होंने अपने पौत्र को पास में बुलाकर उसका हाथ पेशवा के हाथ में सौंपा, पर पेशवा ने महादजी सिंधिया के हाथ में पकड़ा दिया। सिंधिया ने सेनापति तुकोजीराव होलकर के सुपुर्द कर दिया। इस पर तुकोजीराव ने निवेदन किया कि 'मैं चाकर आदमी हूं। यह भार आप स्वयं रखें, आप सर्वोपरि हैं। मैं सब तरह से सेवा करने को तैयार हूं।' इसे सुनकर सूबेदार साहब ने कहा कि 'मेरे नाम से श्रीमंत पेशवा की चाकरी तुम करते रहो।' इस अंतिम आदेश वाक्य के उच्चारण के साथ ही उनकी आंखें सदैव के लिए बंद हो गईं। मल्हारराव का अंतिम संस्कार पूर्ण धार्मिक रूप से हिन्दू संस्कृति के आधार पर संपन्न किया गया।
इतिहासकार एवं मुद्राशास्त्री प्रो. डॉ. शशिकांत भट्ट के अनुसार- 'मल्हारराव की मृत्यु के पश्चात खंडेराव के पुत्र मालेराव 21 वर्ष की आयु में होलकरों की गद्दी पर बैठे। रघुनाथराव ने तत्काल उन्हें खिलअत भेज कर होलकर गद्दी का वारिस मानकर 23 अगस्त 1766 को मल्हारराव के सारे अधिकारप्रदान किए। आठ माह बाद 5 अप्रैल 1767 में मालेराव की मृत्यु हो गई।
होलकरों के दीवान गंगाधर यशवंत चंद्रचूड़ ने अहिल्याबाई को उत्तराधिकारी हेतु किसी बालक को गोद लेने का सुझाव दिया। उन्होंने राघोबा को एक नजराना रकम देने का भी वादा किया। अहिल्याबाई को गंगाधर चंद्रचूड़ व राघोबा के षड्यंत्र का पता मालेराव के मृत्यु शोककाल में ही चल गया और अहिल्याबाई ने मदद के लिए पड़ोसी राज्यों भोसले, गायकवाड़, धवादे व राजपूत राजाओं (जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा, बूंदी) को मदद देने हेतु संदेशा भेजे और उन्होंने मदद हेतु सेना भी भेजी। तब अहिल्याबाई ने राघोबा को संदेश भेजा कि यदि मैं हार गई तो कोई बात नहीं और यदि जीत गई तो तुम्हें मारे शर्म के मुंह छिपाने को जगह नहीं मिलेगी। लड़ाई छेड़ने के पहले सोच लीजिए।
अहिल्याबाई का पलड़ा भारी देख महादजी सिंधिया व जानोजी भोसले ने भी दीवान चंद्रचूड़ के षड्यंत्र में मदद देने को अब मना कर दिया। इसी बीच तुकोजीराव होलकर सेना लेकर क्षिप्रा के पास पहुंच गए। राघोबा को अपनी गलती का अहसास हो गया, और उन्होंने तुकोजीराव को संदेश भेजा कि वेतो मालेराव की मृत्यु पर बैठने आए हैं, इस प्रकार षड्यंत्र समाप्त हुआ।'