एक वक्त था जब दिल्ली की कुर्सी के लिए उत्तर प्रदेश को पायदान माना जाता था। आज नरेन्द्र मोदी ने ठीक उलट कर के दिखा दिया। दिल्ली में ढाई साल तक केन्द्र की सरकार के सिंहासन पर बैठने के बाद अब जाकर पायदान पर मजबूती से पैर जमाए और बाजू उत्तराखंड पर टिका दिया। उधर पंजाब पर अकाली के सहारे टिकी दूसरी कोहनी जरूर खिसक गई। इन परिणामों ने 2014 के लोकसभा चुनाव परिणामों की याद दिला दी है।
उत्तर प्रदेश में भाजपा को ना केवल बहुमत मिला है बल्कि तीन चौथाई सीटें हासिल कर सबको पीछे छोड़ दिया है। उत्तराखंड और पंजाब में भी सत्ता परिवर्तन हुआ है। चुनाव पाँच राज्यों में थे पर सर्वाधिक दिलचस्पी थी उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड में। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जीतकर जहाँ भाजपा ने समूचे अविभाजित उत्तर प्रदेश को जीत लिया है वहीं पंजाब में भी कांग्रेस की जीत से भी भाजपा को खुशी मिली है क्योंकि ‘आप’ दिल्ली तक सिमटकर रह गई है। गोवा में अगर भाजपा ने पर्रिकर-वेलिंगकर-पारसेकर विवाद को ठीक से संभाला होता तो सत्ता के लिए यों संघर्ष ना करना पड़ता। मणिपुर में बड़ा वोट प्रतिशत हासिल कर लेना भी भाजपा के लिए बड़ी कामयाबी है। हालाँकि अमित शाह गोवा और मणिपुर में भी सरकार बनाने को लेकर आश्वस्त हैं।
कुल मिलाकर पाँच राज्यों के ये चुनाव सत्ता-परिवर्तन और नए सिरे से वोटों के विभाजन की दिलचस्प कहानी कह रहे हैं। उत्तर प्रदेश में लखनऊ में भाजपा कर्यालय और विधानसभा में चन्द कदमों का फासला है। पर उसे पूरा करने में भाजपा को लंबा वक्त लग गया। उत्तराखंड में भी गठबंधन या काँटे की टक्कर के दौर को पीछे छोड़ जनता ने भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिया है। पंजाब में भी जनता ने सत्ता परिवर्तन को ही वोट दिया है।
अकाली-भाजपा सरकार से नाराज़ जनता के पास दो ही विकल्प थे – कांग्रेस या आम आदमी पार्टी। लोकसभा चुनावों में मिली सफलता ने आम आदमी पार्टी में पंजाब को लेकर कुछ ज़्यादा ही उम्मीदें जगा दी थीं। इस गफलत में वो दिल्ली और पंजाब के बीच की दूरी को ठीक से नापना भी भूल गए। योगेन्द्र यादव झगड़कर अलग हो गए। टिकट बँटवारे को लेकर पैसे लेने का आरोप भी खूब लगा। सो कुल मिलाकर सत्ता के खिलाफ असंतोष सीधे कांग्रेस की झोली में जाकर गिरा। तीन राज्यों में सीधे-सीधे सरकारें बदलीं – उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब। दो मुख्यमंत्री चुनाव हारे हरीश रावत और लक्ष्मीकांत पारसेकर। तीन राज्यों में एकदम स्पष्ट बहुमत। संदेश ये कि जनता अब गठबंधन सरकार या त्रिशंकु वाला दौर नहीं देखना चाहती।
उत्तर प्रदेश में भाजपा ने पूरी रणनीति के साथ केसरिया होली खेली। अमित शाह की जबर्दस्त सोशल इंजीनियरिंग और मोदी की छवि ने करिश्मा कर दिया। ये कुछ महत्वपूर्ण कदम थे जिन्होंने भाजपा की इस महाजीत का मार्ग प्रशस्त किया –
1. केशवप्रसाद मौर्य को प्रदेशाध्यक्ष बनाया
2. किसी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया
3. तीन तलाक के मुद्दे को प्रमुखता से उठाया
4. गैर-यादव और गैर जाटव को जोड़ा
5. दलित, अगड़ों-पिछड़ों की बजाय ‘हिन्दू’ भाव जगाया
कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनावों से भी ज़्यादा वोट प्रतिशत इस बार विधानसभा चुनावों में हासिल हुआ हो। सारे आकलनों और कयासों को ध्वस्त कर भाजपा ने जीत का परचम लहराया।
कांग्रेस के लिए तो अब आत्ममंथन का समय भी समाप्त हो चुका है। 1980 में उत्तर प्रदेश में 309 सीटें जीतने वाली कांग्रेस अगर दहाई के आँकड़े को छूने के लिए भी हाँफ रही है तो अब मंथन के लिए भी क्या बचा है? ये तो उनको वक्त रहते समझ आ गया था कि अकेले लड़ने की स्थिति में नहीं हैं सो साइकिल पर चढ़ गए। प्रशांत किशोर से भी किनारा कर लिया। पैसे भी बचा लिए। पर साख तो धूल में मिल ही गई।
आंदोलन की कोख से उपजी बसपा की उलटी गिनती शुरू हो गई है। कांशीराम के पुण्य और मायावती के सोशल इंजीनियरिंग की एफडी अब समाप्त हो गई है। यहाँ से वापस सत्ता में आने के लिए तो बसपा को अब हाथी ही उठाना पड़ेगा।
सपा ने हालाँकि करारी हार का स्वाद चखा है पर अगर सही सबक लें तो संभल भी सकते हैं, लेकिन पहले यादव परिवार का एकाधिकार समाप्त करना होगा। अखिलेश जागे तो सही पर बहुत देर से। आगरा-लखनऊ हाइवे हो, लोकभवन हो, मेट्रो हो, डायल 100 हो, सब जल्दबाजी में शुरू की गईं योजनाएँ अधूरी ही रहीं। अगर ये समय पर पूरी हो जातीं तो फिर भी कुछ उम्मीद थी। पर अब तो अखिलेश खुद अपने उस लोकभवन का आनंद नहीं ले पाएँगे जिसे उन्होंने बड़े अरमानों से बनवाया था। हालांकि चुनाव परिणाम के बाद की पत्रकार वार्ता में बार-बार हंसने के बावजूद अखिलेश हार के दर्द को छिपा नहीं पाए।
कुल मिलाकर इन चुनावों ने भाजपा के लिए जबरदस्त ऑक्सीजन का काम किया है और 2019 के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। दिल्ली और बिहार में रोका गया मोदी का अश्वमेध का अश्व अब फिर से हिनहिना कर तेज़ी से आगे बढ़ने के लिए तैयार दिखाई दे रहा है।