Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia

महाराष्ट्र की जातीय हिंसा को कैसे समझें...

महाराष्ट्र की जातीय हिंसा को कैसे समझें...
webdunia

अवधेश कुमार

अचानक महाराष्ट्र जिस तरह जातीय तनाव और हिंसा की चपेट में आया, वह हर देशवासी को चिंतित करने वाला है। किसी हिंसा के खतरनाक होने का आकलन इस आधार पर मत करिए कि उसमें कितने मारे गए और कितने घायल हुए। जिस तरह पुणे के कोरेगांव भीमा, पबल और शिकारपुर गांव से आरंभ हिंसा पूरे प्रदेश में फैली तथा राजधानी मुंबई तक को अपनी चपेट में लिया, उससे पता चलता है कि जाति व्यवस्था और उससे जुड़ी राजनीति की सतह के नीचे कितना भारी तनाव कायम है।
 
 
आखिर यह कार्यक्रम क्या था? दलितों का एक बड़ा वर्ग 1 जनवरी 1818 को ब्रिटिश सेनाओं की पेशवा बाजीराव द्वितीय पर हुई जीत का जश्न मना रहे थे। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज ने बाजीराव पेशवा द्वितीय को पराजित कर मराठा शासन का वहां अंत किया था। उस युद्ध के 200 साल पूरा होने के उपलक्ष्य में बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। जाहिर है, भारी संख्या में लोग यहां एकत्रित हुए थे। अंग्रेजों ने कोरेगांव भीमा में अपनी जीत की याद में जय स्तंभ का निर्माण कराया था। हर साल हजारों की संख्या में दलित समुदाय के लोग जय स्तंभ पर श्रद्धांजलि देते हैं। इस बार इसे बड़े पैमाने पर मनाने के कारण वहां कई प्रकार के कार्यक्रम चल रहे थे। प्रश्न है कि जब हर वर्ष वहां लोग एकत्रित होकर कार्यक्रम करते हैं तो फिर हिंसा इसी बार क्यों हुई?
 
 
प्रदेश सरकार ने हिंसा की न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं और उम्मीद करनी चाहिए कि सच सामने आ जाएगा। किंतु यह साफ है कि वहां हो रहे भाषणों एवं नारों से मराठा समुदाय के एक वर्ग के अंदर नाराजगी पैदा हुई। 30 दिसंबर को ही एक गांव में तनाव हुआ था। जाहिर है, समय रहते प्रशासन द्वारा काबू करने का जो प्रयास किया जाना चाहिए था नहीं किया गया। मीडिया से आई खबरें बता रहीं हैं 1 जनवरी को कुछ लोग भगवा झंडा लेकर वहां पहुंचे और विरोध करने लगे। इससे तनाव बढ़ा। इसके बाद हिंसा की शुरुआत हुई। यह तब और ज्यादा फैली जब पुणे से करीब 30 किलोमीटर दूर अहमदनगर हाइवे पर पेरने फाटा के पास झड़प में एक शख्स की मौत हो गई थी। तो सामान्य तौर पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रशासन को 200वीं सालगिरह को देखते हुए कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जितने पर्याप्त उपाय करने चाहिए थे नहीं किए गए थे। वैसे भी हमने जगह-जगह लोगों को गाड़ियों पर हमला करते और पुलिस को उनको रोकते देखा है। रेलों को घंटों रोकते देखा है। पुलिस अनेक जगह असहाय बनी दिखी। सरकार कह रही है कि हमने पुलिसबल की वहां छह कंपनियां तैनात की थीं। साफ है कि यह पर्याप्त नहीं था। या पुलिसबल को आने वाली विपत्ति का बिलकुल आभास नहीं था। स्थिति को संभालने के लिए मुंबई समेत महाराष्ट्र के 13 शहरों में धारा 144 लागू की गई। मोबाइल टॉवर बंद करने और नेटवर्क जैमर लगाने के निर्देश दिए गए। सीआरपीएफ की टुकड़ियां तैनात की गईं। पुलिस के साथ एंटी रॉइट स्क्वॉड भी तैनात की गई।
 
 
इससे ऐसा लगता है कि शायद अब हिंसा नहीं होगी। किंतु जो लोग इस परंपरा से वाकिफ नहीं हैं उनके लिए यह कौतूहल का विषय है कि आखिर कोई वर्ग अंग्रेजों की विजय का जश्न विजय दिवस के रूप में क्यों मनाता है? आखिर अंग्रेज तो हमें गुलाम बनाने आए थे। यह सोच सही है। किंतु इसके पूरे पक्ष को जानना जरुरी है। कोरेगांव की लड़ाई 1 जनवरी 1818 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के पेशवा गुट के बीच कोरेगांव भीमा में लड़ी गई थी। उस वक्त अछूत माने जाने वाले महारों (दलितों) ने ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से लड़कर पेशवा बाजीराव द्वितीय के सैनिकों को पराजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सामान्य तौर पर हम महारों और पेशवा फौज के बीच हुए इस युद्ध को अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय शासकों के युद्ध के तौर पर देखते हैं। लेकिन उस समय महारों के साथ जातीय आधार पर जैसा अमानवीय व्यवहार होता था उसके कारण उनके अंदर गुस्सा था। उन्हें लगा कि अंग्रेजों का साथ देकर वे इस अमानवीय व्यवहार से मुक्त हो सकते हैं तथा इस मराठा शासन से उसका बदला भी पूरा हो जाएगा। इतिहास से जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार, महारों के साथ जानवरों से भी बुरा व्यवहार किया जाता था। शहर में प्रवेश करते समय महारों को अपनी कमर पर झाड़ू बांधकर रखनी होती थी, ताकि उनके कथित अपवित्र पैरों के निशान इस झाड़ू से मिटते चले जाएं। महारों को अपनी गर्दन में एक बर्तन भी लटकाना होता था ताकि उनका थूका हुआ जमीन पर न पड़े और कोई सवर्ण अपवित्र न हो जाए। साफ है कि वो अमानवीय व्यवहार का अंत चाहते थे और उन्हें लगा कि मराठा शासन के रहते ऐसा नहीं हो सकता।
 
 
उन्होंने गलत किया या सही किया, इस पर मतांतर हो सकते हैं। आज उसका जश्न मनाना चाहिए या नहीं उसको लेकर भी दो राय होना स्वाभाविक है। किंतु वहां एकत्रित होने, भाषण देने की परंपरा बन गई है। यह अलग बात है कि कभी बड़ी संख्या वहां नहीं जुटती। आज की स्थिति में महारों या अन्य दलितों के साथ वैसा अमानवीय व्यवहार नहीं होता, लेकिन जाति आधारित भेदभाव का पूरी तरह अंत हो गया हो ऐसा नहीं है। तो वहां जो भाषण होते हैं उनमें सवर्णों विशेषकर मराठों एवं ब्राह्मणों के विरुद्ध तीखे वचन होते हैं। होना तो यह चाहिए था कि ऐसे दिवस को आत्ममंथन दिवस के रूप में मनाया जाता और दलित तथा सवर्ण विशेषकर मराठा समुदाय के लोग भी उसमें भाग लेते। दलितों के साथ दुर्व्यवहार पर पश्चाताप करते तथा सामजिक सद्भावना का बीजारोपण होता। किंतु जब राजनीति हावी हो जाए तो ऐसा करना मुश्किल होता है। यही इस विजय दिवस के साथ हुआ है। आक्रामक दलितवाद की राजनीति है जो अपने रुख में परिवर्तन लाने को तैयार नहीं, क्योंकि उनको लगता है कि उनका पूरा आधार ही मराठा और सवर्ण विरोध पर टिका है। दूसरी ओर अन्य जातियों की राजनीति करने वाले भी हैं। महाराष्ट्र में 10.5 प्रतिशत दलित आबादी है। इसमें से विदर्भ में सबसे ज्यादा 23 प्रतिशत दलित हैं। मराठाओं की आबादी 33 प्रतिशत हैं। दोनों एक बड़े वोट बैंक हैं।
 
 
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस कह रहे हैं कि कुछ लोगों ने माहौल बिगाड़ने के लिए हिंसा फैलाई है। लेकिन अपाकी प्रशासन क्या कर रही थी? वहां पहले से तनाव का माहौल था। पुणे के डेक्कन पुलिस थाना में जिग्नेश मेवाणी और उमर खालिद के खिलाफ भड़काऊ बयान देने की शिकायत की गई। शिकायत में कहा गया कि इनके बयानों के बाद दो समुदायों में हिंसा भड़की। ये लोग 31 दिसंबर को कार्यक्रम में मौजूद थे। इस कार्यक्रम में रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला भी थीं। वहां किस तरह का राजनीतिक भाषण हुआ होगा यह बताने की आवश्यकता नहीं। तो इसके खिलाफ वहां माहौल बना होगा। किंतु ऐसे भाषण कोई पहली बार नहीं हुए हैं। अगर हुए थे तो उसके तुरत बाद संवेदनशील जगहों पर ऐसी सख्त सुरक्षा व्यवस्था होनी चाहिए थी। हालांकि महाराष्ट्र पुलिस इस मायने में थोड़ी प्रशंसा की पात्र है कि उसने अपनी ओर से ऐसी हिंसक कार्रवाई नहीं की जिससे स्थिति और बिगड़ती।
 
 
ध्यान रखने की बात है कि दो हिंदू संगठनों पर भी मामला दर्ज हुआ है। हिंदू नेता भीड़े गुरुजी के शिवराज प्रतिष्ठान और मिलिंद एकबोटे के समस्त हिंदू एकता अघाड़ी पर पुणे के पिंपरी पुलिस स्टेशन में केस दर्ज किया गया है। तो इनकी पुलिस जांच भी होगी। किंतु मुख्य बात है कि आखिर जातीय सद्भावना का कार्य कौन करेगा? क्यों न मराठा समुदाय के लोग ही पहल करके दलितों के साथ स्वयं इस कार्यक्रम में भाग लेकर पश्चाताप प्रकट करते हैं? आखिर कहीं न कहीं तो इसका अंत करना होगा। वैसे जब तक जातीय भेदभाव कायम रहेगा इस तरह की अप्रिय हिंसा और तनाव के कोई न कोई कारण कहीं भी निकल जाएंगे। आज महाराष्ट्र है, कल कोई दूसरा जगह हो सकता है।

Share this Story:

Follow Webdunia gujarati

આગળનો લેખ

महबूबा की इस अपील का मतलब क्या है...