मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए छोटी तथा क्षेत्रीय पार्टियों के साथ तालमेल को लेकर कांग्रेस के प्रादेशिक नेतृत्व के आश्वस्तिभरे दावों को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की ओर से तगड़ा झटका मिला है। बसपा ने कांग्रेस के साथ अपनी पार्टी के गठबंधन को लेकर आ रही खबरों को महज अफवाह करार देते हुए कहा है कि बसपा मध्यप्रदेश में अकेले चुनाव लड़ेगी और सभी सभी 230 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी।
गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में डेढ़ दशक पहले सत्ता से बेदखल हो चुकने के बाद इस बार सत्ता में लौटने को आतुर दिख रही कांग्रेस की ओर से पिछले कुछ दिनों से दावा किया जा रहा था कि बसपा के साथ चुनावी गठबंधन की बातचीत जारी है और जल्दी ही सब कुछ तय हो जाएगा। इस आशय के संकेत खुद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ और प्रदेश चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया की ओर से भी दिए गए थे।
गठबंधन की बातचीत को नकारने संबंधी बसपा के ताजा बयान से जहां कांग्रेस की उम्मीदों को फिलहाल झटका लगा है, वहीं भाजपा ने निश्चित ही फौरी तौर पर राहत महसूस की होगी। भाजपा की पूरी कोशिश होगी कि बसपा आखिरी तक अपने इस फैसले पर कायम रहे और अकेले ही चुनाव मैदान में उतरे। गुजरात और कर्नाटक में भी बसपा का कांग्रेस से तालमेल नहीं हुआ था जिसका फायदा भाजपा को ही मिला था। गुजरात में बसपा अकेले लड़ी थी और कर्नाटक में उसने जनता दल (एस) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था।
वैसे तो बसपा का मुख्य जनाधार उत्तरप्रदेश में ही है, लेकिन उत्तर भारत के अन्य हिन्दीभाषी राज्यों में भी उसका इतना जनाधार तो है ही जिसके बूते वह दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टियों- भाजपा और कांग्रेस की संभावनाओं को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। ऐसे राज्यों में मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब, उत्तराखंड, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश आते हैं। इसके अलावा गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे खासी दलित आबादी वाले सूबों में भी उसका ठीक-ठाक जनाधार है।
इस साल के अंत में जिन 4 राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है उनमें मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ मुख्य हैं। इन तीनों ही राज्यों में बसपा अपने सीमित जनाधार के बूते भी चुनावी समीकरणों को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। मध्यप्रदेश में 15.6, राजस्थान में 17.83 और छत्तीसगढ़ में 11.6 फीसदी दलित आबादी है। इन तीनों ही सूबों में बसपा अभी तक हर चुनाव में अकेले ही मैदान में उतरती रही है।
उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में बसपा ने पिछले विधानसभा चुनाव में 6.29 फीसद वोटों के साथ 4 सीटों पर जीत हासिल की थी। उससे पहले के 3 विधानसभा चुनावों के मुकाबले यह उसका न्यूनतम प्रदर्शन था। 1998 के विधानसभा चुनाव में उसने 6.15 फीसदी वोटों के साथ 11 सीटें जीती थीं, जो कि उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। राजस्थान में भी वह 2008 के विधानसभा चुनाव में 7.6 फीसदी वोटों के साथ 6 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। जहां तक छत्तीसगढ़ की बात है, तो वहां उसे कभी उल्लेखनीय कामयाबी तो नहीं मिली लेकिन वह हर चुनाव में 4 से 5 फीसदी वोट जरूर हासिल करती रही है।
हालांकि मध्यप्रदेश में बसपा की ओर से गठबंधन न करने के फैसले का ऐलान उसकी प्रदेश इकाई के अध्यक्ष नर्मदा प्रसाद अहिरवार ने किया है, लिहाजा इसे अंतिम फैसला नहीं माना जा सकता, क्योंकि बसपा में तालमेल या गठबंधन करने-तोड़ने अथवा किसी पार्टी को समर्थन देने या न देने का अंतिम फैसला सिर्फ पार्टी की सुप्रीमो मायावती ही करती हैं। पार्टी की इस रीति-नीति को देखते हुए समझा जा सकता है कि प्रादेशिक नेतृत्व ने यह दोटूक ऐलान पार्टी सुप्रीमो की सहमति या उनके निर्देश पर ही किया होगा।
बसपा के बारे में यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है कि गठबंधन की राजनीति में दूसरी पार्टियों से अपनी शर्तें मनवाने, भरपूर मोलभाव करने और साझेदार दलों से अपने जनाधार के समर्थन की भरपूर कीमत वसूलने में इस पार्टी का कोई सानी नहीं है, इसलिए पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष से कराई गई घोषणा को मायावती की मोलभाव करने और तालमेल में अपनी पार्टी के लिए ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने की रणनीति के तौर पर ही देखा जा सकता है।
दरअसल, मायावती इस बात को अच्छी तरह समझती हैं कि चुनावी राजनीति के लिहाजा से कांग्रेस इस समय अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। संख्या के लिहाज से वह लोकसभा में ही दयनीय स्थिति में नहीं है, बल्कि देश के अधिकांश राज्यों में भी 1-1 करके वह सत्ता से बेदखल हो चुकी है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी वह पिछले डेढ़ दशक से सत्ता से बाहर है। राजस्थान में भी इस समय वह विपक्ष में है।
मायावती इस हकीकत को भी जानती हैं कि पिछले 4 वर्षों के दौरान हर तरफ से लुटी-पिटी कांग्रेस के लिए अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले इन तीनों राज्यों के चुनाव जीवन-मरण से जुड़े हैं। अगर इन राज्यों में तमाम प्रतिकूल स्थितियों के बावजूद भाजपा फिर सत्ता में लौट आती है तो लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की सारी संभावनाएं लगभग खत्म हो जाएंगी। इसी हकीकत को समझते-बूझते हुए मायावती अपनी रणनीति बुन रही हैं। उन्हें लगता है कि यही मौका है, जब वह कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा झुकाकर उससे तालमेल या गठबंधन की स्थिति में अपनी पार्टी के लिए अधिकतम सीटें छुड़वा सकती हैं।
चुनावी राजनीति में अपनी पार्टी के जनाधार की ताकत और अहमियत का अहसास मायावती पिछले दिनों उत्तरप्रदेश में 3 संसदीय सीटों गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के उपचुनाव में करा चुकी हैं। गोरखपुर और फूलपुर में बसपा ने समाजवादी पार्टी को तथा कैराना में राष्ट्रीय लोकदल को समर्थन दिया था। तीनों ही जगह भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। उपचुनाव के इन नतीजों ने भी मायावती की मोलभाव करने की क्षमता में इजाफा किया है।
दरअसल, मायावती का लक्ष्य सिर्फ विधानसभा चुनावों में अधिक से अधिक सीटें लड़ना और जीतना ही नहीं है, बल्कि उनकी निगाहें अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव पर भी हैं। वे विधानसभा की ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर लोकसभा चुनाव में बनने वाले संभावित व्यापक गठबंधन में भी अपनी पार्टी के लिए ज्यादा से ज्यादा सीटों पर दावेदारी करने की स्थिति में आना चाहती हैं ताकि चुनाव के बाद अगर त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति बने तो वे प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी ठोंक सके। देश की अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं की तरह मायावती की भी यह राजनीतिक हसरत किसी से छुपी नहीं है।