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कश्मीर का काला सच : 65 साल बाद भी हिन्दू स्थानीय निवासी नहीं...

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शनिवार, 17 जून 2017 (14:04 IST)
जम्मू और कश्मीर के हिस्से जम्मू को भारत में शरणार्थियों की राजधानी का दर्जा दिया जा सकता है क्योंकि करीब 17 लाख यहां अमानवीय स्थितियों में रहने के लिए विवश हैं। जम्मू-कश्मीर का जम्मू क्षेत्र आज एशिया में विस्थापितों या कहें कि शरणार्थियों की सबसे घनी आबादी वाला इलाका है। इन लोगों में एक बड़ा वर्ग (लगभग दो लाख लोग) बंटवारे के समय पश्चिम पाकिस्तान से आए उन हिंदुओं का है, जिन्हें भौगोलिक दूरी के साथ-साथ सांस्कृतिक रूप से जम्मू अपने ज्यादा नजदीक लगा और वे यहीं आकर अस्थायी तौर पर बस गए। यहां रहने वाले ज्यादातर लोगों ने शुरुआत में सोचा होगा कि वे समाज की मुख्य धारा में शामिल हो जाएंगे। 

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लेकिन, समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की बात तो दूर वे यहां के निवासी तक नहीं बन पाए हैं। आज इन लोगों की तीसरी पीढ़ी मतदान करने से लेकर शिक्षा तक के बुनियादी अधिकारों से वंचित है। इससे ही मिलती-जुलती हालत उन 10 लाख शरणार्थियों की भी है जो आजादी के समय पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर हुए पाकिस्तानी सेना और कबाइलियों के हमलों से विस्थापित होकर जम्मू आ गए थे। ये लोग भी पिछले छह दशक से अपने पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं। लेकिन इनकी बात न तो केन्द्र सरकार और न ही राज्य सरकार सुनने के लिए तैयार है।
 
जम्मू और कश्मीर जैसे राज्य में ही, जहां मानवाधिकारों को लेकर जबरदस्त हो-हल्ला होता रहता है, लेकिन  इसमें मानवाधिकारों की कोई सुनवाई नहीं होती है। सरकार और राजनीतिक पार्टियों से लेकर आम लोगों तक कोई इनकी बातें या जायज मांगें सुनने-मानने को तैयार ही नहीं। इस मामले पर सरकारी रवैए को उजागर करने वाले एक बयान में राज्य सरकार में मंत्री भल्ला ने हाल ही में जम्मू और कश्मीर विधानसभा के सदस्यों को आश्वस्त करते हुए कहा था, 'सरकार ने पश्चिम पाकिस्तान से आए हुए शरणार्थियों को कोई सहायता नहीं दी है और इन लोगों को राज्य की नागरिकता नहीं दी जा सकती।'
 
इन शरणार्थियों में ज्यादातर हिंदू और सिख हैं। जम्मू-कश्मीर की आबादी के हिसाब से अल्पसंख्यक लेकिन राज्य में अल्पसंख्यक आयोग ही नहीं हैँ,  जिससे इन शरणार्थियों की मुश्किलें और बढ़ा देता है। राज्य में एक मानवाधिकार आयोग जरूर है, लेकिन जब आयोग के एक सदस्य अहमद कवूस से विस्थापितों की समस्या के बारे में जानना चाहा तो उनका जवाब था, 'अभी तक हमारे पास इस मामले की शिकायत नहीं आई है। अगर शिकायत आएगी तो मामला देखा जाएगा।'
देश में लोकतंत्र की शासन प्रणाली होने के साथ-साथ, एक ही राज्य में तरह-तरह की राजनीति और गड़बड़झालों में फंसे देश में पीछे छूट गए बेबस लोगों के लिए हमारे पास सहारे का ऐसा कोई हाथ नहीं जो कि जरूरतमंदों की बातों पर ध्यान दे। लोकतंत्र में सद्भावना का ऐसा कोई सीमेंट नहीं जो उन्हें आगे खींचकर थोड़ी मानवीय परिस्थितियों में स्थापित कर सके। यह शासन प्रणाली का रोबोटनुमा काम करने का तरीका है। शासन तंत्र ऐसी व्यवस्था में घिरा हुआ है जिसके पास बहुत सी समस्याओं का हल ही नहीं है या उसके पास ऐसी समस्याओं को सुलझाने की को‍ई प्रक्रिया ही नहीं है। 
 
वास्तव में, लोग राज्य और देश की केंद्र सरकार द्वारा थोपी गई एक ऐसी अमानवीय उपेक्षा के शिकार हैं जिसने इनका जीवन गुलामों सरीखा बना दिया है। पिछले 65 साल से राजनीतिक और नागरिक अधिकारों के बिना रह रहे इन लोगों की त्रासदी इस मायने में और भयावह है कि जब-जब अपने बुनियादी अधिकारों के लिए इन्होंने आवाज उठाई, उसे व्यवस्था ने न सिर्फ अनसुना किया बल्कि कई बार इनके आगे जाने के रास्तों को और भी अवरुद्ध कर दिया।
 
जिन परिस्थितियों में इन लोगों ने शरणार्थियों के रूप में जीवन शुरू किया था। आज उनकी तीसरी पीढ़ी भी उन्हीं मुश्किलों का सामना कर रही है। कठुआ में रहने वाले शरणार्थी अमरनाथ बताते हैं, 'अगर हमें जरा भी पता होता कि यहां हमारे साथ इस तरह का सलूक होगा तो हम पाकिस्तान में अपनी जान दे देते लेकिन जम्मू-कश्मीर की जमीन पर पैर नहीं रखते।'
 
सीधी-सपाट बात यही है कि इन लोगों की तरफ न केंद्र सरकार ने कोई ध्यान दिया और न राज्य सरकार ने कहा कि ये लोग जम्मू और कश्मीर राज्य के नागरिक नहीं हैं, इसीलिए इन्हें वे सारे अधिकार नहीं मिल सकते जो यहां के लोगों को मिलते हैं। इनमें सबसे बड़ा अधिकार था राजनीतिक अधिकार, लेकिन यहां रहने वाले केवल मुस्लिम, स्थानीय मुस्लिम ही सुरक्षित हैं। उनमें भी सुन्नी मुसलमान ही ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है। 
 
भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति होने के कारण यहां के लोगों को भारतीय नागरिकता के साथ स्थायी निवास प्रमाण पत्र भी दिया जाता है। 1947 से 1950 तक उथल पुथल के अनुसार वर्ष इन का समय उथल-पुथल से भरा रहा। लाखों लोग बेघर हुए। बड़ी संख्या में लोगों का पलायन हुआ। ऐसे में मानवता और विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिए था। शायद ही विश्व में कोई दूसरा उदाहरण होगा जहां पिछले 65 साल से सरकार ने लोगों को ऐसे गुलाम बना रखा हो। विधानसभा के लगभग हर सत्र में हम इन शरणार्थियों को स्थायी निवास प्रमाण पत्र दिए जाने तथा इनकी अमानवीय स्थिति एवं पुनर्वास पर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिए प्रयास करते हैं लेकिन सरकार इस पर चर्चा करने को तैयार ही नहीं है। 
 
राजनीति में गहरे विभाजन का जहर : जम्मू-कश्मीर की राजनीति में कश्मीर के वर्चस्व ने इस मामले को कभी हल नहीं होने दिया। पीड़ित यहां तक आरोप लगाते हैं कि चूंकि वे हिंदू हैं और हिंदुओं में भी अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखते हैं इसलिए कश्मीर केंद्रित तथा मुस्लिम प्रभुत्व वाली प्रदेश की राजनीति में उनकी कोई सुनवाई नहीं है. 
कार्यकारी नागरिकता (स्थायी निवास प्रमाणपत्र) नहीं दी दिया जाता, तब तक कि निवास प्रमाणपत्र न दे दिया जाए। लेकिन निवास प्रमाण पत्र देने में भी सरकार ने कोई खास रुचि नहीं दिखाई। वे परिवार जिनकी मासिक आय 300 रुपए से अधिक थी यानी पीओके में रहते हुए अगर इनकी आमदनी 300 रुपए से अधिक थी तो उन्हें सरकारी सहयोग नहीं मिल सकता।
 
पीओके के विस्थापितों की मांग है कि उनका पुनर्वास भी उसी केंद्रीय विस्थापित व्यक्ति मुआवजा और पुनर्वास अधिनियम 1954 के आधार पर किया जाना चाहिए जिसके आधार पर सरकार ने पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल से आए लोगों को स्थायी तौर पर किया था।
 
इन शरणार्थियों में उन लोगों की समस्या और भी गंभीर है जो रोजगार या किसी अन्य कारण से भारत के किसी और राज्य में रह रहे हैं। कुछ सालों पहले दिल्ली से वापस लौटे एक शरणार्थी राजेश कहते हैं, 'मैं मीरपुर का रहने वाला हूं, लेकिन मेरे पास स्टेट सब्जेक्ट नहीं है। मेरे घरवाले 1947 के कत्लेआम में जम्मू आ गए। वहां सरकार की तरफ से कोई मदद मिली नहीं। आखिर कितने दिनों तक भूखे रहते, रोजगार के सिलसिले में दिल्ली आ गए। 
 
अब जब हम राज्य सरकार की किसी नौकरी के लिए आवेदन करना चाहते हैं तो हमसे स्टेट सब्जेक्ट की मांग होती है। हमसे राशन कार्ड और बाकी दस्तावेज मांगे जाते हैं। आप ही बताइए इतने साल बाद हम ये सब कहां से लाएं। हमारे पास पास फॉर्म ए है जो सभी पीओके रिफ्यूजियों को सरकार ने दिया था। हम यहीं के नागरिक हैं, लेकिन हमसे स्टेट सब्जेक्ट की मांग हो रही है।
 
सरकार पीओके पर अपने दावे को लेकर कितनी गंभीर है, यह इस बात से ही पता चल जाता है कि जम्मू-कश्मीर पर होने वाली किसी भी वार्ता में वह हम 12 लाख लोगों में से किसी से बात नहीं करती। ऐसा लगता है मानो हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है। राज्य के कश्मीरी मूल के नागरिकों और बाकी लोगों के बीच की गहरी खाई को इस हाल के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है। ऐसी संपत्ति जिसे बंटवारे के समय पाकिस्तान जाने वाले लोग छोड़कर गए थे उस पर भी राज्य सरकार विस्थापितों को अधिकार नहीं दे रही है। राज्य के बारे में इन लोगों का कहना है कि राज्य में केन्द्र सरकार की तरह से केवल मुस्लिमों को खुश रखने की नीति अपना रखी है। 
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