Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia

क्या 'दादी की कहानी' दोहराएंगे ज्योतिरादित्य सिंधिया?

क्या 'दादी की कहानी' दोहराएंगे ज्योतिरादित्य सिंधिया?
webdunia

अनिल जैन

, शनिवार, 7 सितम्बर 2019 (15:45 IST)
महज साढ़े तीन महीने पहले लोकसभा चुनाव में अपने इतिहास की सबसे शर्मनाक हार का सामना कर चुकी कांग्रेस के सूबाई क्षत्रप अब विभिन्न राज्यों में पार्टी संगठन पर काबिज होने के लिए एक-दूसरे की गर्दन नापने पर आमादा हैं। इस सिलसिले में वे अपने आलाकमान को आंखें दिखाने और पार्टी छोड़ने की धमकी देने से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं। भीतरी कलह से ग्रस्त सूबों में सबसे ज्यादा संगीन हालत मध्यप्रदेश की है, जहां कांग्रेस चंद महीनों पहले ही पूरे डेढ़ दशक के अंतराल के बाद जैसे-तैसे सत्ता में आई है।
 
बेहद सूक्ष्म बहुमत के सहारे बनी कांग्रेस की सरकार को शुरू दिन से अल्पमत की सरकार करार देते हुए भाजपा के नेताओं ने उसकी बिदाई का गीत गाना शुरू कर दिया था। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपना 5 महीने पुराना विधानसभा चुनाव का प्रदर्शन भी नहीं दोहरा सकी और उसका पूरी तरह सफाया हो गया। हालांकि भाजपा की ओर से न तो सरकार गिराने की कोशिश की गई और न ही उसके किसी नेता ने इस आशय का कोई बयान दिया।
इसके बावजूद राजनीतिक हलकों में माना जाने लगा कि अब सूबे में कांग्रेस की सरकार के दिन करीब आ गए हैं। भाजपा नेताओं की चुप्पी, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की मुख्यमंत्री कमलनाथ से नाराजगी की खबरों और खुद कमलनाथ की कुछ राजनीतिक भाव-भंगिमाओं को लेकर ये कयास लगाए जाने लगे थे कि मध्यप्रदेश में भी 4 दशक पुराना हरियाणा का ऐतिहासिक 'भजनलाल प्रसंग' दोहराया जा सकता है यानी मुख्यमंत्री कमलनाथ बड़ी संख्या में अपने समर्थक मंत्रियों-विधायकों के साथ कांग्रेस से अलग हो सकते हैं और भाजपा के बाहरी समर्थन से सरकार बना सकते हैं, हालांकि ऐसा कुछ नहीं हुआ।
 
लेकिन अब मध्यप्रदेश की राजनीति में पिछले कुछ दिनों से ये कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या सूबे में एक बार फिर सिंधिया 'राजघराने' की चहारदीवारी के भीतर कांग्रेस सरकार के पतन की पटकथा रची जा रही है? ठीक वैसी ही पटकथा जैसी कि करीब आधी सदी पहले 1967 में पूर्व ग्वालियर रियासत में महारानी रहीं विजयाराजे सिंधिया ने रची थी।
 
विजयाराजे उस समय कांग्रेस में हुआ करती थीं और मध्यप्रदेश में द्वारका प्रसाद (डीपी) मिश्र की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार थी। युवक कांग्रेस के एक जलसे में भाषण करते हुए डीपी मिश्र ने राजे-रजवाड़ों को लेकर एक तीखा कटाक्ष कर दिया। जलसे में मौजूद विजयाराजे सिंधिया को वह कटाक्ष बुरी तरह चुभ गया। उन्होंने मिश्र को सबक सिखाने की ठानी।
webdunia
उन्होंने मिश्र से असंतुष्ट कांग्रेस विधायकों को गोलबंद करना शुरू किया। किसी समय मिश्र के बेहद करीबी रहे गोविंद नारायण सिंह को भी वे अपने पाले में ले आने में वे सफल हो गईं। गोविंद नारायण सिंह भी विंध्य इलाके की रीवा रियासत से ताल्लुक रखते थे। उधर विधानसभा में विपक्ष भी पहली बार अच्छी-खासी संख्या में मौजूद था।
 
जनसंघ के 78 और सोशलिस्ट पार्टी 32 विधायक थे। इसके अलावा निर्दलीय व अन्य छोटे दलों के विधायकों को भी विजयाराजे ने साध लिया था। जब कांग्रेस के 36 विधायक उनके साथ हो गए तो उन्होंने विधानसभा में डीपी मिश्र की सरकार को ही गिरा दिया। डीपी मिश्र की सरकार गिरने के बाद गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकार बनी। वह देश की पहली संविद सरकार थी।
 
इस समय भी मध्यप्रदेश के राजनीतिक हालात कमोबेश 5 दशक पहले जैसे ही हैं। विधानसभा में सत्तापक्ष और विपक्ष के संख्याबल के लिहाज से भी और सत्तारूढ़ दल की अंदरुनी कलह के मद्देनजर भी। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद को लेकर पार्टी में सूबे के शीर्ष नेताओं के बीच जबरदस्त घमासान मचा हुआ है। इस घमासान से सूबे की राजनीति में पिछले कई दिनों से पसरा सन्नाटा टूटा है। इस सन्नाटे को तोड़ा है ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों के आक्रामक तेवरों ने।
 
सूबे का मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में पिछड़ जाने और फिर अप्रत्याशित रूप से लोकसभा चुनाव हार जाने के बाद सिंधिया इस समय पार्टी एक तरह से भूमिकाविहीन हैं। हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के चयन के लिए बनी छानबीन समिति का अध्यक्ष बनाया है, लेकिन सिंधिया इस जिम्मेदारी से संतुष्ट नहीं हैं। वे अपने गृह प्रदेश में कांग्रेस संगठन का मुखिया और प्रकारांतर से राज्य में सत्ता का दूसरा केंद्र बनना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि सत्ता का दूसरा केंद्र बनकर ही वे राज्य में सत्ता का पहला केंद्र यानी मुख्यमंत्री बन सकते हैं।
 
सिंधिया की मुख्यमंत्री बनने की हसरत पुरानी है। विधानसभा चुनाव से पहले भी उनके समर्थकों की ओर से सिंधिया को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के लिए पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाया गया था। हालांकि उनकी यह मांग नहीं मानी गई थी, लेकिन गुटीय संतुलन बनाने के मकसद से सिंधिया को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया गया था। लेकिन इसके बावजूद चुनाव प्रचार के दौरान कई इलाकों में सिंधिया को उनके समर्थकों ने भावी मुख्यमंत्री के रूप में ही पेश किया था।
 
सिंधिया खुद भी अपने को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानकर चल रहे थे। लेकिन जिस तरह के नतीजे आए, उसके मद्देनजर कांग्रेस नेतृत्व ने अनुभव को तरजीह देते हुए कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाना उचित समझा। प्रदेश में कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी सिंधिया को मुख्यमंत्री पद से दूर रखने और कमलनाथ की ताजपोशी कराने में वही भूमिका निभाई, जो भूमिका एक समय दिग्विजय सिंह को मुख्यमंत्री बनवाने में कमलनाथ ने निभाई थी।
 
इस समय प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद का दायित्व भी मुख्यमंत्री कमलनाथ के पास ही है, जो कि उन्हें छोड़ना ही है। कमलनाथ अध्यक्ष के दायित्व से मुक्त तो होना चाहते हैं, लेकिन नया अध्यक्ष ऐसा चाहते हैं, जो पूरी तरह उनके अनुकूल हो और सत्ता का दूसरा केंद्र बनने की कोशिश न करे। इस मामले में दिग्विजय सिंह भी उनके साथ हैं यानी दोनों ही नेता सिंधिया को अध्यक्ष पद से दूर रखना चाहते हैं।
 
दिग्विजय की कोशिश इस पद पर दिवंगत कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह के बेटे और पिछली विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे अजय सिंह को बैठाने की है। अजय सिंह रिश्ते में दिग्विजय सिंह के दामाद होते हैं। मुख्यमंत्री कमलनाथ भी इस सिलसिले में आदिवासी कार्ड का इस्तेमाल करते हुए राज्य के गृहमंत्री और अपने विश्वस्त बाला बच्चन का नाम अध्यक्ष पद के लिए आगे कर चुके हैं। कुल मिलाकर सिंधिया को रोकने के लिए कमलनाथ और दिग्विजय ने तगड़ी घेराबंदी की है।
 
दूसरी ओर सिंधिया इस बार 'अभी नहीं तो कभी नहीं' या 'करो या मरो' के अंदाज में मैदान में हैं। उनके समर्थक भी अब हर हाल में अपने नेता को प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और आगे चलकर मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। इस सिलसिले में सिंधिया समर्थक मंत्रियों और विधायकों ने जिस तरह के आक्रामक तेवर अपना रखे हैं, वे अभूतपूर्व हैं।
 
सिंधिया के संसदीय क्षेत्र गुना-शिवपुरी में तो उनके समर्थकों ने बाकायदा बैनर लगा दिए हैं जिन पर लिखा है कि अगर एक सप्ताह के भीतर सिंधिया को प्रदेशाध्यक्ष घोषित नहीं किया गया तो मुख्यमंत्री कमलनाथ को गुना और शिवपुरी जिले प्रवेश नहीं करने दिया जाएगा। ग्वालियर जिले की विधायक और राज्य की महिला एवं बाल विकास मंत्री इमरतीदेवी का तो साफ कहना है कि प्रदेश अध्यक्ष के पद पर हमें महाराज के अलावा कोई भी मंजूर नहीं होगा। किसी और को अध्यक्ष बनाया गया तो महाराज जो कदम उठाएंगे, उसमें हम महाराज के पीछे नहीं, बल्कि दो कदम आगे रहेंगे।
 
इस सिलसिले में सिंधिया के ही एक अन्य समर्थक वनमंत्री उमंग सिंघार ने तो सीधे-सीधे दिग्विजय सिंह के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने मीडिया से बातचीत में न सिर्फ दिग्विजय की नर्मदा यात्रा को 'रेत सर्वे यात्रा' बताया, बल्कि उन पर शराब व खनन माफिया को संरक्षण देने, ट्रांसफर-पोस्टिंग के धंधे में लिप्त रहने और मंत्रियों के साथ 'सुपर मुख्यमंत्री' की तरह व्यवहार करने का भी आरोप लगाया।
 
अपेक्षा की जा रही थी कि मौका आने पर सिंधिया अपने समर्थक मंत्री के इन आरोपों से पल्ला झाड़ लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ग्वालियर में जब सिंधिया से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि आरोपों में कुछ तो सच्चाई है ही और जिन पर आरोप लगे हैं, उन्हें इस बारे में सफाई देनी चाहिए।
 
सिंधिया और उनके समर्थक मंत्रियों के इन तेवरों से न सिर्फ राज्य की राजनीति में सिंधिया परिवार और दिग्विजय सिंह की पुरानी अदावत खुलकर सामने आई है, बल्कि इससे इस बात का भी संकेत मिलता है कि सिंधिया इस बार आर-पार की लड़ाई के मूड में हैं।
 
बताया जाता है कि सिंधिया ने भोपाल में अपने समर्थक मंत्रियों और विधायकों की भी एक बैठक बुलाई थी जिसमें 4 मंत्रियों सहित 30 विधायक मौजूद थे। सिंधिया समर्थक एक मंत्री के मुताबिक 109 सदस्यीय कांग्रेस विधायक दल में करीब 40 विधायक पूरी तरह सिंधिया के साथ हैं और वे आगे भी हर स्थिति में सिंधिया के साथ ही रहेंगे।
 
सिंधिया और उनके समर्थकों की इन्हीं गतिविधियों और तेवरों के आधार पर कहा जा रहा है कि अगर प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए इस बार सिंधिया के दावे को अनदेखा किया गया तो वे अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस से अलग होकर कमलनाथ सरकार को गिरा देंगे। कहा जा रहा है कि कांग्रेस से अलग होकर सिंधिया क्षेत्रीय पार्टी का गठन कर भाजपा के समर्थन से सरकार बनाने का दावा कर सकते हैं।
 
गौरतलब है कि ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया ने भी 1996 के लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस से अलग होकर 'मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस' का गठन किया था और उसी पार्टी से चुनाव लड़कर लोकसभा में पहुंचे थे। उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने उन सभी कांग्रेस नेताओं को टिकट देने से इंकार कर दिया था जिनके नाम जैन हवाला डायरी कांड में आए थे। माधवराव सिंधिया भी टिकट से वंचित उन नेताओं में से एक थे।
 
बहरहाल, ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस से बगावत किए जाने की अटकलों के सिलसिले में ही उनके परिवार की राजनीतिक पृष्ठभूमि का भी उल्लेख किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि सिंधिया घराने की जड़ें वैसे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ और भाजपा से जुड़ी हुई हैं। सिंधिया राजघराने और संघ का तो देश की आजादी के पहले से एक विशिष्ट रिश्ता रहा है।
 
ज्योतिरादित्य की दादी विजयाराजे सिंधिया जरूर अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती वर्षों में कांग्रेस से जुड़ी रहीं, लेकिन वे भी कांग्रेस से अलग होने के बाद जनसंघ से ही जुड़ीं और भाजपा के संस्थापक नेताओं में से एक रहीं। उनके पुत्र और ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया ने भी अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत जनसंघ से ही की थी और 1971 में पहली बार जनसंघ के टिकट पर ही चुनाव लड़कर वे लोकसभा पहुंचे थे। इस समय भी ज्योतिरादित्य सिंधिया की दोनों बुआएं वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे भाजपा में ही हैं। इसलिए ज्योतिरादित्य भी अगर कांग्रेस से अलग होकर भाजपा में जाते हैं या नई पार्टी बनाकर भाजपा के सहयोगी बनते हैं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
 
हालांकि सिंधिया ने इस तरह की अटकलों को खारिज किया है, लेकिन पिछले 1 महीने के दौरान सिंधिया की जो राजनीतिक भाव-भंगिमाएं रही हैं, वे इन अटकलों को पुख्ता बनाती हैं। इस सिलसिले में उनका जम्मू-कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किए जाने के केंद्र सरकार के फैसले का खुलकर समर्थन करना और उसके बाद दिल्ली में गृहमंत्री तथा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से और भोपाल में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से उनकी मुलाकात की खबर आना प्रमुख है। हालांकि अमित शाह से मुलाकात का सिंधिया ने खंडन किया, लेकिन खबर आने के 20 दिन बाद।
 
वैसे सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने और भाजपा के साथ मिलकर 'कुछ नया' करने की संभावनाओं को कांग्रेस में भी कई लोग खारिज करते हैं और भाजपा में भी। लेकिन यह उक्ति भी ध्यान रखे जाने लायक है कि 'राजनीति संभावनाओं का खेल है और विरोधाभासों को साधने की कला'। पिछले 5 साल के दौरान नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने तो इस उक्ति को एक नहीं बल्कि कई बार चरितार्थ किया है।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

Share this Story:

Follow Webdunia gujarati

આગળનો લેખ

गधों को चीन के काले बाजार से बचाने के लिए गैंग बना रहे हैं लोग