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बहुत बिरले व्यक्तित्व थे रज्जू बाबू

- राहुल बारपुते

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हिन्दी पत्रकारिता के अमिट हस्ताक्षर और बहुमुखी प्रतिभा के धनी राजेन्द्र माथुर (रज्जू बाबू) की 9 अप्रैल पुण्यतिथि है। रज्जू बाबू जैसा बहुमुखी प्रतिभा का एवं सदैव जाग्रत अनेकानेक जिज्ञासाओं का धनी, मात्र पत्रकारिता के क्षेत्र में ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी बिरला ही होता है, बहुत ही बिरला। लंबे समय तक रज्जू बाबू के सहकर्मी रहे ख्यात पत्रकार स्व. राहुल बारपुतेजी ने माथुर जी के लेखों के संग्रह 'राजेन्द्र माथुर संचयन' की भूमिका में रज्जू बाबू की अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया। प्रस्तुत हैं रज्जू बाबू पर बारपुतेजी के विचार...  
 
कम से कम मेरी दृष्टि से यह वास्तव में एक अत्यंत सुखद संयोग था कि रज्जू बाबू (जी हां, इंदौर और इंदौर के परिसर में, सन् 1982 से 1991 में अपनी मृत्यु तक नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक रहे स्वर्गीय श्री राजेन्द्र माथुर को इसी नाम से, अर्थात् 'रज्जू बाबू' कहकर ही पहचाना, पुकारा जाता था : और आज भी इसी नाम से याद किया जाता है) और मैं लगातार सत्ताइस वर्षों तक सहकर्मी थे, इंदौर के एक दैनिक 'नईदुनिया' में। 
 
संयोग इसलिए सुखद था कि रज्जू बाबू उन अत्यंत बिरले लोगों में से एक थे जो अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही ठान लेते हैं कि आगे चल करके क्या होंगे, फिर भले ही वे अपना लक्ष्य घोषित करें या अपने तक ही सीमित रखें, और अंतत: उस ठानी हुई मंजिल तक पहुंच ही जाते हैं। मेरी राय में रज्जू बाबू ने तय कर लिया था कि वे चोटी के पत्रकार बनेंगे।
 
और वे बने भी। जैसा कि सब जानते हैं, रज्जू बाबू अपनी अत्यंत अप्रत्याशित, और इसीलिए बेहद दुखद मृत्यु के समय नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक के पद पर कोई दस वर्षों से साधिकार आसीन थे। पूछा जा सकता है कि मैं कैसे जानता हूं कि रज्जू बाबू ने तय कर लिया था कि वे चोटी के पत्रकार बनेंगे? मेरे पास, अप्रत्यक्ष ही सही, पर प्रमाण है।
 
बात सन् 1955 की है, जब रज्जू बाबू बमुश्किल उन्नीस वर्ष के रहे होंगे। सन् 1955 के मध्य में वे शरद जोशी के साथ मुझसे मिलने 'नईदुनिया' के तत्कालीन दफ्तर में आए थे। शरद जोशी ने कहा था- 'ये मेरे मित्र रज्जू बाबू हैं जो आप से किसी काम की खातिर मिलना चाहते हैं।' मैं रज्जू बाबू की ओर मुड़ा और मैंने पूछा- 'भाई, क्या काम है?' तो रज्जू बाबू ने उत्तर दिया, 'मैं नईदु‍निया' में लिखना चाहता हूं।' मैंने कहा कि 'यह तो ठीक है, पर किस विषय पर लिखना चाहते हैं?' रज्जू बाबू ने तत्काल उत्तर दिया, 'वैसे तो कई विषयों पर लिखना चाहता हूं लेकिन खासकर विदेशी मामलों के बारे में।' 
 
इस अनपेक्षित उत्तर से मैं चौक पड़ा था; लेकिन अपनी भावनाओं को सायास छिपाकर कहा, 'अच्छी बात है। पर पहले, बतौर नमूने के, कुछ लिखकर दिखाइए, फिर तय करेंगे।' इस मुलाकात के अगले ही दिन वे 'नईदुनिया' के दफ्तर में आ धमके। दुआ-सलाम के बाद उन्होंने मेरे सामने कागजों का एक पुलिंदा रखा और कहा, 'देख लीजिएगा।'
 
उनके जाने के बाद मैंने पुलिंदा खोला तो उसमें संपादकीयनुमा कई लेख थे। जैसे 'पख़तून राष्ट्रीयता', 'यूगोस्लाव विदेश नीति', 'हिन्द-अफ्रीका' आदि। मैंने ये लेख पढ़े और मुझे ये एकदम से जंच गए। (शायद इसलिए कि उनकी भाषा वैसी ही थी जो मुझे भी पसंद थी। यानी, आडम्बरहीन, एकदम बोलचाल की आम-फहम पर, सहज प्रवाही भाषा। और साथ ही उन लेखों में ऐसे अनेक तथ्य भी थे कि जो केवल व्यापक अध्ययन एवं मनन के जरिए ही आ सकते थे!) कुछेक दिनों बाद जब रज्जू बाबू फिर मिलने आए तो मैंने कहा, 'ठीक है, आप लिखिए। लेकिन एक समस्या है कि ये लेख छपेंगे  कहां?' रज्जू बाबू ने फौरन जवाब दिया, 'अग्रलेख के तुरंत बाद। और उनका एक सामान्य शीर्षक होगा अनुलेख।' मैं उनसे सहमत हो गया। और इस प्रकार, सन् 1955 के मध्य से 'नईदुनिया' परिवार में रज्जू बाबू शामिल हो गए, मेरे सहकर्मी हो गए और अगले सत्ताइस वर्षों तक बने रहे।
 
इन सत्ताइस वर्षों में उन्होंने बहुत लिखा। प्राय: रोज ही लिखते थे। अपवादस्वरूप, विभिन्न कारणों से वे गैरहाजिर रहते थे। जैसे, उनके घर कोई मंगल कार्य हो तब, या किसी कार्यवश इंदौर से बाहर जाना होता था तब, या काफी अस्वस्थ होते तब। पर ऐसे दिन वर्ष में कम ही आते थे। तो उन्होंने काफी लिखा और उनका लिखा मैं बराबर पढ़ा करता था, क्योंकि वह मुझे पसंद भी आता था। लेकिन, उनके कुछ लेख ऐसे थे कि जो उनकी विशिष्ट गुणवत्ता के कारण मुझे याद रह गए, आज भी याद हैं। उदाहरण के लिए उन्होंने एक लेख लिखा था- 'मैं समाजवादी नहीं हूं।' इस लेख में उनकी बहुमुखी प्रतिभा खूब झिलमिलाती है (यों उनका, प्राय: हर लेख झिलमिलाता था।) 
 
पर्याप्त चिंतन-मनन के परिणामस्वरूप रज्जू बाबू की जो राय बनी थी वह कितनी सही थी, यह हम आज इक्कीस वर्ष बाद देश की नई आर्थिक नीति में प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं। आज कौन समाजवाद का नाम लेता है, सिवाय कतिपय कट्टर वामपंथियों के? और वे भी दबी जबान से ही समाजवाद का नाम लेते हैं। रज्जू बाबू की उक्त भविष्यवाणी और वर्तमान के बीच स्वयं सोवियत संघ का विलुप्त हो जाना भी एक महत्वपूर्ण कारक है वर्तमान परिस्थितियों का, लेकिन वह एक अलग विषय है। उक्त भविष्यवाणी यदि अब सही साबित होती नजर आती है तो इसका कारण यही है कि रज्जू बाबू की पैनी निगाहें यथार्थ की जड़ों तक पहुंच चुकी थीं और इसीलिए उक्त भविष्यवाणी का आधार वैज्ञानिक था। 
 
लगातार लिखने-पढ़ने, सोचने-विचारने के कारण उनकी शैली निरंतर मंजती चली गई और अंतत: उसका अपना एक व्यक्तित्व निर्मित हो गया। उनके प्रारंभिक लेखों की भाषा लगभग वैसी ही है जैसी बाद के लेखों की। 
 
प्रश्न किसी भी क्षेत्र का हो, रज्जू बाबू तब तक अपनी राय स्वयं तक ही सीमित रखते थे कि जब तक वे सभी प्रमुख पहलुओं की जानकारी लेकर किसी निश्चिय निष्कर्ष पर, फिर भले ही वह अस्थायी ही क्यों न हो, पहुंच नहीं जाते थे। मैंने लिख तो दिया है कि 'सभी प्रमुख पहलुओं की जानकारी लेकर' किसी निष्कर्ष पर पहुंचते थे, पर यह जानकारी एकत्र करना कितना कठिन है यह तो एक भुक्तभोगी ही जानता है। जिन विषयों ‍अथवा क्षेत्रों में रस हो उनके संपर्क में रहना, उनके बारे में निरंतर पढ़ते रहना आवश्यक होता है। फिर रज्जू बाबू की रुचियों का स्पेक्ट्रम तो औसत से कहीं अधिक विस्तृत था।
 
इतिहास, दर्शन, अर्थशास्त्र, साहित्य, विज्ञान, राजनीति आदि विषयों में तो उनकी रुचि थी ही पर इनके अलावा लीक से हटकर भी रुचियां थीं उनकी। जैसे पक्षियों का अध्ययन करना, या शरद ऋतु से लेकर ग्रीष्म तक की रातों में आकाश कैसा होता है, कौन से तारे कहां होते हैं आदि में भी उनकी खासी पैठ थी। मैं अक्सर ही उन्हें चलता-फिरता विश्वकोश कहता था और समूचे कार्यालय के लिए वे एक शब्दकोश तो थे ही! जो विषय ऊपर गिनाए हैं मैंने, उनके अलावा अन्य अनेक विषयों के बारे में उनकी जानकारी औसत से कहीं गहरी तो खैर होती ही थी, वह आद्यावत भी होती थी।
 
पता नहीं इतनी ढेर सारी, विविध जानकारी एकत्र करने के लिए उन्हें समय कैसे मिल जाता था। शायद वे बहुत पहले से ही ज्ञानार्जन की यात्रा पर निकल पड़े होंगे। रज्जू बाबू जैसा बहुमुखी प्रतिभा का एवं सदैव जाग्रत अनेकानेक जिज्ञासाओं का धनी, मात्र पत्रकारिता के क्षेत्र में ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी बिरला ही होता है, बहुत ही बिरला।
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