Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia

गर्मी के कहर को किसने बनाया जानलेवा?

गर्मी के कहर को किसने बनाया जानलेवा?
webdunia

अनिल जैन

, शनिवार, 15 जून 2019 (00:08 IST)
देरी से ही सही, मगर मॉनसून केरल के तट पर दस्तक देता हुआ इस वर्ष की अपनी भारत-यात्रा पर निकल पड़ा है। चूंकि इस बार केरल में ही मॉनसून के आने में पूरे 1 सप्ताह की देरी हुई है, तो जाहिर है कि देश के बाकी हिस्सों में भी उसकी आमद में देरी होगी ही। मॉनसून के इंतजार में व्याकुल हो रहे देश के विभिन्न हिस्सों को इस समय भीषण गर्मी ने बुरी तरह झुलसा रखा है।
 
वैसे तो हर साल मई के महीने में गर्मी पूरे शबाब पर होती है और जून आते-आते जब धूलभरी आंधी चलने लगती है तो गर्मी का असर कुछ कम होने लगता है। मगर इस बार ऐसा नहीं हो रहा है। आधा जून बीतने को है लेकिन गर्मी कम होने का नाम ही नहीं ले रही है।
 
न सिर्फ उत्तर भारत के मैदानी इलाके, बल्कि दक्षिण के पठार भी गर्मी से बुरी तरह झुलस रहे हैं। राजधानी दिल्ली सहित देश में कई जगहों पर तापमान 48 से 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच रहा है। बढ़ते तापमान का आम जनजीवन पर गहरा असर पड़ा है। देश के विभिन्न इलाकों से लोगों के मरने की खबरें आ रही हैं।
 
मौसम विभाग की चेतावनी भी डराने वाली है। उसकी ओर से कहा जा रहा है कि उत्तर भारत को अभी और कुछ दिनों तक गर्मी का सितम झेलना पडेगा। मौसम विभाग ने न सिर्फ आगामी 4-5 दिनों तक भीषण गर्मी पडने की चेतावनी दी है बल्कि इस बार मॉनसून के कमजोर रहने का अनुमान भी जताया है।
 
मौसम विभाग का मानना है कि इन दिनों हवा में नमी बिलकुल नहीं है और नम हवा की तुलना में शुष्क हवा को सूरज बड़ी तेजी से गरम करता है। यही कारण है कि गर्मी कम होने का नाम ही नहीं ले रही है।
 
मौसम विज्ञानियों के मुताबिक इस भीषण गर्मी में कुछ भूमिका प्रशांत महासागर में मौजूद 'अल नीनो' प्रभाव की भी हो सकती है। अल नीनो की मौजूदगी के चलते ही इस वर्ष एक बार फिर कमजोर मानसून की भविष्यवाणी भी की जा रही है।
 
अल नीनो की वजह से प्रशांत महासागर का पानी सामान्य से ज्यादा गरम हो जाता है जिससे मानसून के बादलों के बनने और उनके भारत की ओर बढ़ने की गति कमजोर हो जाती है। फिलहाल तो प्रशांत महासागर का पानी गरम होने की वजह से समुद्री हवाओं का एशियाई भू-भाग की ओर रुख करना संभव नहीं हो पा रहा है, लिहाजा जमीन की तपन कम होने का नाम नहीं ले रही है।
 
दरअसल, पिछले कुछ सालों से इस मौसम में यह शिद्दत से महसूस किया जा रहा है कि इस बार गर्मी पिछले साल से ज्यादा है। तापमान संबंधी आंकड़े भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि गर्मी साल-दर-साल बढ़ रही है। मौसम विभाग के अनुसार 1901 के बाद साल 2018 में सबसे ज्यादा गर्मी पड़ी थी और कुछ समय पहले लगाए गए अनुमान के मुताबिक इस साल औसत तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है।
 
मौसम की जानकारी देने वाली वेबसाइट 'एल डोरैडो' ने पिछले दिनों दुनिया के सबसे गर्म जिन 15 इलाकों की सूची जारी की थी, वे सभी जगहें भारत में ही हैं- मध्यभारत और उसके आसपास। सूची में दिए गए 15 नामों में से 9 महाराष्ट्र, 3 मध्यप्रदेश, 2 उत्तरप्रदेश और 1 तेलंगाना का है।
 
जब भी गर्मी इस तरह से बढ़ती है, तो यह भी कहा जाने लगता है कि यह ग्लोबल वॉर्मिंग का नतीजा है। यह सही है कि मौसम चक्र बदल रहा है जिसकी वजह से पर्यावरण भी बदल रहा है और ग्लोबल वॉर्मिंग को हमारे युग के एक हकीकत के तौर पर स्वीकार कर लिया गया है।
 
फिर भी इस बात को अभी शायद पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि हर कुछ साल के अंतराल पर आ जाने वाली भीषण गर्मी या कड़ाके की जानलेवा सर्दी इस ग्लोबल वॉर्मिंग का ही परिणाम है। लेकिन गर्मी की वजह से मरने वालों की बड़ी संख्या यह तो बताती ही है कि हर कुछ साल बाद आने वाली मौसमी आपदा या उसके बिगड़े मिजाज का सामना करने के लिए हमारी कोई तैयारी नहीं है।
 
बात सिर्फ भीषण गर्मी की ही नहीं है, उत्तर भारत में कड़ाके की शीतलहर और अनवरत मूसलधार बारिश के चलते आने वाली बाढ़ के शिकार भी ज्यादातर सामाजिक और आर्थिक रूप से निचले क्रम के लोग ही होते हैं। दरअसल, ऐसे लोगों को मौसम नहीं मारता, बल्कि वह गरीबी और लाचारी मारती है, जो उन्हें निहायत प्रतिकूल मौसम में भी बाहर निकलने को मजबूर कर देती है।
 
हैरानी की बात यह भी है कि हमारे देश में भीषण सर्दी और बाढ़ को तो कुदरत का कहर या प्राकृतिक आपदा माना जाता है, लेकिन झुलसा देने वाली गर्मी को प्राकृतिक आपदा मानने का कोई प्रावधान सरकारी नियम-कायदों में नहीं है। ऐसे में भीषण गर्मी के बावजूद सरकारों पर लोगों की जान बचाने का कोई दबाव नहीं रहता। वे बस एडवाइजरी जारी कर देती हैं कि लोग इस गर्मी के प्रकोप से बचने के लिए यह करें और वह न करें।
 
देश के विभिन्न हिस्सों में बड़ी संख्या में लोग गर्मी की वजह से मौत का शिकार बनते हैं लेकिन उनकी खबर तक नहीं बन पाती। गरीब तबके के पास गर्मी से मुकाबला करने के पर्याप्त बुनियादी इंतजाम नहीं होते। करोड़ों परिवार ऐसे हैं जिनके पास पंखे-कूलर जैसी सुविधा भी नहीं है। पीने का साफ पानी नहीं है। लू लगने पर उन्हें पर्याप्त चिकित्सा सुविधा भी नहीं मिल पाती। ऐसे में गर्मी गरीब को निगल जाती है।
 
इस स्थिति की इसकी बड़ी वजह हमारी भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था और राजनीतिक नेतृत्व की काहिली तो है ही, इसके साथ ही एक अन्य वजह यह भी है कि मौसम से लड़ने वाला हमारा सामाजिक तंत्र भी अब कमजोर हो गया है।
 
एक समय था, जब सरकार से इतर समाज खुद मौसम की मार से लोगों को बचाने के काम अपने स्तर पर करता था। सामाजिक और पारमार्थिक संस्थाएं लोगों को पानी पिलाने के लिए जगह-जगह प्याऊ लगाती थीं या शरबत पिलाने का इंतजाम करती थीं। यही नहीं, पशु-पक्षियों के लिए भी पीने के पानी का इंतजाम किया जाता था। सड़कों के किनारे पेड़ भी इसीलिए लगाए जाते थे ताकि राह चलते लोग उन पेड़ों की छांव में कुछ देर सुस्ता सकें।
 
सच कहें तो किसी भी मौसम की अति हमारे भीतर के इंसान को आवाज देती थी, परस्पर एक-दूसरे की चिंता करने के लिए प्रेरित करती थी। लेकिन आर्थिक आपाधापी और विकास के इस नए दौर में परस्पर चिंता और लिहाज का लोप हो गया है और इसीलिए परमार्थ के ये काम अब बंद हो गए हैं।
 
अब तो सड़कों से पेड़ भी गायब हो गए हैं और बिना पैसा खर्च किए प्यास बुझाना भी मुश्किल है। पानी को हमारी सरकारों ने लगभग पूरी तरह बाजार के हवाले कर दिया है और बाजार को इससे कोई मतलब नहीं कि गर्मी में पानी राहत या जान बचाने के लिए कितना उपयोगी है? ऐसे में लोगों का लू की चपेट में आना स्वाभाविक है।
 
कहा जा सकता है कि गर्मी के कहर को जानलेवा बनाने के लिए हमारी सरकारों और हमारे सामाजिक तंत्र का 'निष्ठुर रवैया' जिम्मेदार है! (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

Share this Story:

Follow Webdunia gujarati

આગળનો લેખ

उत्तराखंड में हाथियों और बाघों के बीच क्यों चल रही है जंग