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इंग्लैंड के चुनाव परिणाम भारत के हित में हैं

शरद सिंगी
12 दिसंबर को इंग्लैंड में समय से 3 वर्ष पूर्व मध्यावधि आम चुनाव हुए। आपको बता दें कि ब्रेक्जिट मुद्दे ने ये दूसरी बार मध्यावधि आम चुनाव करवा दिए। यह मुद्दा 2 प्रधानमंत्रियों की कुर्सी को भी निगल चुका है। किसी भी एक दल के पास पूर्ण बहुमत न होने से पिछले कुछ वर्षों से ब्रिटेन की संसद राजनीतिक रूप से पंगु हो चुकी थी और किसी भी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रही थी इसलिए पुन: चुनाव करवाए गए इस उम्मीद में कि किसी एक दल को बहुमत मिले तो निर्णय लिया जा सके।

इंग्लैंड में 2 प्रमुख राजनीतिक दल हैं- कंजर्वेटिव (टोरी) और लेबर। टोरी पार्टी के लीडर थे वर्तमान प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और लेबर लीडर थे जेर्मी कार्बिन, बाकी छोटे दल और भी हैं। कुल 650 सीटें थीं जिनमें 326 बहुमत के लिए चाहिए थी।

नतीजे भी तुरंत आ गए। ये चुनाव राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों ही दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण थे। चुनाव से पहले कयास लगाए जा रहे थे कि इन चुनावों में टोरी पार्टी को बहुमत मिल सकता है किंतु न केवल बहुमत मिला वरन अपेक्षाओं से बहुत अधिक अंतर से टोरी पार्टी की विजय हुई। लेबर पार्टी की नीति ब्रेक्जिट पर ढुलमुल तो थी ही, उसके नेता जेर्मी कार्बिन का झुकाव भी वामपंथी था। उन्होंने ब्रेक्जिट पर फिर से मतदान करवाने का वादा घोषणा पत्र में रखा था।

अब यह किसी से छुपा नहीं है कि दुनिया में वामपंथी विचारधारा धीरे-धीरे सिमट रही है किंतु उसके नेताओं को यह समझ में नहीं आ रहा है कि यदि उन्होंने अपनी विचारधारा में नई पीढ़ी की सोच के अनुसार परिवर्तन नहीं किए तो वे दुनिया के राजनीतिक मंच से गायब हो जाएंगे।

भारतीय मूल के नागरिक भी इंग्लैंड में बड़ी संख्या में हैं। उनका रुझान भी टोरी पार्टी के पक्ष में रहा, क्योंकि लेबर पार्टी के कुछ नेता भारतविरोधी रहे हैं और कश्मीर पर उनके बयान भी भारतविरोधी थे। इस पार्टी ने 21 उम्मीदवार पाकिस्तानी मूल के उतारे थे।

हम पहले भी कई बार लिख चुके हैं कि इंग्लैंड, जो किसी समय पर एक महाशक्ति था और भारत सहित आधी पृथ्वी पर उसका शासन था, वह आज खोखला हो चुका है। विकसित देशों की श्रेणी में होते हुए भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वह अपना प्रभाव खो चुका है। एक तो यह देश 4 छोटे देशों का समूह है, जो किसी तरह से साथ में बंधे हैं, ऊपर से यूरोपीय संघ के साथ भी अब उसके संबंध खराब हो चुके हैं।

अमेरिका के साथ उसके वर्षों से विशेष रिश्तों पर अब प्रश्नचिन्ह है। सरकार के पिछले 5 वर्ष ब्रेक्जिट की बहस में जाया हो चुके हैं। 2 प्रधानमंत्रियों को कुर्सी छोड़ना पड़ी। नतीजा सिफर। ब्रेक्जिट मुद्दे ने दोनों ही दलों के समर्थकों को भी बांट दिया। विचारधाराओं पर एक मुद्दा हावी हो गया।

टोरी पार्टी को बहुमत मिलने से अब ऊहापोह की स्थिति समाप्त हुई। 5 वर्षों से ब्रिटेन जो चौराहे पर खड़ा था, अब अंतत: आगे बढ़ सकता है। बहुत समय बर्बाद हुआ और वह दुनिया की दौड़ में पीछे छुट चुका है। समय है अपनी खोई प्रतिष्ठा पुन: अर्जित करने का। दुनिया और विशेषकर भारत के लिए यह आवश्यक है कि ये समझदार शक्तियां कमजोर न हों, क्योंकि ये सब भारत के मित्र हैं और वर्तमान शताब्दी में चीन के विरुद्ध भारत को इन सबका सहयोग चाहिए।

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