यह तथ्य तो अब जगजाहिर हो चुका है कि भारत में कोरोना वायरस के संक्रमण के बढ़ते मामलों के लिए एक संप्रदाय विशेष को संगठित और सुनियोजित रूप से जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। यह काम सरकार के स्तर पर भी हो रहा है और सत्तारूढ़ भाजपा के संगठनात्मक स्तर पर भी।
मुख्यधारा के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी इस काम में बढ़-चढ़ कर उनका साथ निभा रहा है। लेकिन दिल्ली में आम आदमी पार्टी और उसकी सरकार भी इस तरह की मुहिम में पीछे नहीं है। दोनों के अभियान में फर्क इतना है कि जहां भाजपा और केंद्र सरकार का अभियान जमीनी स्तर पर साफ दिखाई देता है, जबकि आम आदमी पार्टी उसी काम को बेहद सधे हुए ढंग से कर रही है।
हालांकि यह तो नहीं कहा जा सकता कि इस महामारी के सांप्रदायिकीकरण के अभियान में आम आदमी पार्टी का भारतीय जनता पार्टी के साथ किसी तरह का तालमेल है, लेकिन यह तो तय है कि वह भी परोक्ष रूप से इस महामारी की चुनौती को अपना राजनीतिक लक्ष्य साधने के एक अवसर की तरह इस्तेमाल कर रही है।
जिस तरह केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल रोजाना देश भर के कोरोना संक्रमितों की पहचान और उनके इलाज से संबंधित आंकडे रोजाना मीडिया के समक्ष बताते वक्त अलग से यह बताना नहीं भूलते कि जिन लोगों की पॉजिटिव रिपोर्ट आई है उनमें कितने लोग तब्लीगी जमात से जुडे हैं या कितने लोग जमात के लोगों के सम्पर्क में आने की वजह से संक्रमित हुए हैं। ठीक उसी तरह यही काम दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल रोजाना शाम को वीडियो कांफ्रेन्सिंग के जरिए मीडिया से बात करते वक्त करते हैं।
इस दौरान वे अपनी विकास पुरुष और गरीब नवाज वाली छवि बनाए रखने को लेकर भी बेहद सतर्क रहते हैं और कभी-कभार लोगों से एकता तथा भाईचारा बनाए रखने तथा किसी किस्म की नफरत फैलाने से बचने की अपील भी करते हैं। लेकिन वे यह सब कहते और करते हुए इस बात को लेकर भी पूरी तरह सचेत रहते हैं कि उनके किसी कदम या बयान से उनकी छवि मुस्लिम परस्त न बन जाए।
इस सिलसिले में सबसे महत्वपूर्ण गौरतलब तथ्य यह है कि दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन ने 14 अप्रैल को सुबह न्यूज एजेंसी एएनआई को जानकारी दी कि जिस निजामुद्दीन इलाके में पिछले महीने तब्लीगी जमात के मरकज में कार्यक्रम हुआ था, उस पूरे इलाके के छह हजार घरों के करीब 30 लोगों की स्क्रीनिंग का काम दिल्ली सरकार की ओर से पूरा किया जा चुका है। सभी की रिपोर्ट आ गई है और वहां मरकज के बाहर बैठने वाले एक भिखारी के अलावा सभी निगेटिव पाए गए हैं।
उनके इस बयान का वीडियो उस दिन सोशल मीडिया पर भी दिखाई दिया। उनका यह बयान सुनकर कई लोगों ने राहत महसूस की सोचा कि अब शायद मीडिया और सोशल मीडिया में तब्लीगी जमात के बहाने एक समुदाय विशेष को निशाना बनाए जाने का अभियान थम जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उनके इस बयान को न तो किसी टीवी चैनल ने दिखाया और न ही किसी अखबार ने छापा। यही नहीं, शाम होते-होते इस बयान का वह वीडियो सतेंद्र जैन के फेसबुक पेज से भी गायब हो गया।
इसी सिलसिले में दूसरा महत्वपूर्ण और गौरतलब तथ्य यह है कि दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग ने दिल्ली में कोरोना महामारी से संबंधित जानकारी लोगों को देने के लिए एक वेबसाइट शुरू की थी। इस वेबसाइट को शुरू करने के साथ ही 4 मार्च 2020 से रोजाना हेल्थ बुलेटिन जारी करना शुरू किया था।
कोरोना संक्रमण के बारे में 4 मार्च से 13 अप्रैल तक के सभी को हेल्थ बुलेटिन इस वेबसाइट पर मौजूद है। लेकिन इसके बाद का न तो कोई हेल्थ बुलेटिन इस वेबसाइट पर है और न ही निजामुद्दीन इलाके के उन 30 हजार लोगों की वह स्क्रीनिंग रिपोर्ट, जिसके बारे में दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री ने सार्वजनिक रूप से जानकारी दी थी।
जाहिर है कि 13 अप्रैल के बाद से दिल्ली सरकार ने हेल्थ बुलेटिन जारी करना ही बंद नहीं कर दिया, बल्कि कोरोना संक्रमण से संबंधित कोई अन्य जानकारी भी वेबसाइट पर साझा करना बंद कर दिया। यही नहीं, उसके बाद से दिल्ली में कोरोना से संक्रमित लोगों के इलाज से संबंधित कोई भी जानकारी देने के लिए दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री भी मीडिया के सामने नहीं आ रहे हैं। इस संबंध में हर जानकारी सिर्फ मुख्यमंत्री केजरीवाल ही रोजाना शाम को मीडिया को देते हैं।
सवाल है कि निजामुद्दीन इलाके के लोगों की स्क्रीनिंग रिपोर्ट पर चुप्पी क्यों साध ली गई और उसे दिल्ली सरकार की वेबसाइट पर क्यों नहीं डाला गया? सवाल यह भी है कि 13 अप्रैल के बाद दिल्ली सरकार ने हेल्थ बुलेटिन जारी करना क्यों बंद कर दिया? अखबारों और टीवी चैनलों के संवाददाताओं की ओर से भी यह सवाल मुख्यमंत्री या उनकी पार्टी के दूसरे नेताओं से नहीं पूछे जा रहे हैं।
इन पंक्तियों के लेखक की तरफ से इन सवालों का जवाब तलाशने के सिलसिले में दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन, आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह, विधायक सौरभ भारद्वाज और दिलीप पांडेय से संपर्क करने की कोशिश की गई, लेकिन कई प्रयासों के बावजूद उनमें से किसी से भी बात नहीं हो सकी।
दरअसल, अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक भाव-भंगिमा में आया यह बदलाव नया नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से ही उन्होंने इस बात को मान लिया है कि दिल्ली में राजनीति करने के लिए उन्हें मुस्लिम समुदाय के भरोसे नहीं रहना है। यह सही है कि 2015 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को मुसलमानों का जबरदस्त समर्थन मिला था, जिसकी वजह से कांग्रेस विधानसभा में अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी। हालांकि उस समय आम आदमी पार्टी में धर्मनिरपेक्ष छवि वाले विश्वसनीय चेहरों की भरमार थी, जिनकी वजह से 2014 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों सीटों पर भाजपा के मुकाबले आम आदमी पार्टी दूसरे नंबर पर रही थी।
लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम समुदाय पूरी तरह कांग्रेस के साथ चला गया, जिसका नतीजा यह हुआ दिल्ली की सात में पांच सीटों पर कांग्रेस के मुकाबले आम आदमी पार्टी बुरी तरह पिछड़ते हुए तीसरे नंबर पर चली गई। इन नतीजों के बाद ही केजरीवाल का धर्मनिरपेक्ष राजनीति से मोहभंग हो गया और उन्होंने अपनी राजनीति गैर मुस्लिम वोटों पर केंद्रित कर दी। यही वजह रही कि उन्होंने और उनकी पार्टी ने न तो नागरिकता संशोधन कानून और न ही राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर एनआरसी का मुखर होकर विरोध किया और न ही शाहीन बाग में तीन महीने तक चले अभूतपूर्व आंदोलन का मुखर समर्थन।
दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भी वे भाजपा या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला करने से बचते रहे। यहां तक कि जब केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर और भाजपा के कुछ अन्य नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान उन्हें आतंकवादी तक कह दिया, तो भी केजरीवाल आक्रामक हुए बगैर अपनी सरकार के कामकाज के आधार पर ही लोगों से समर्थन मांगते रहे। उनकी यह रणनीति बेहद सफल रही। उन्हें भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाने में भरपूर कामयाबी मिली। कांग्रेस चूंकि हारी हुई मानसिकता के साथ मैदान में थी, लिहाजा मुस्लिम समुदाय ने भी 2015 की तरह इस बार भी भाजपा को हराने के लिए आम आदमी पार्टी का समर्थन किया।
चुनाव नतीजों से केजरीवाल को महसूस हो गया कि दिल्ली की राजनीति में मुसलमानों के समर्थन के बगैर भी बना रहा जा सकता है, बशर्ते की भाजपा और मोदी समर्थक मध्य वर्ग को नाराज न किया जाए। इसीलिए चुनाव नतीजे आने के बाद भी अपने को धर्मनिष्ठ हिंदू दिखाने के लिए वे हनुमान मंदिर गए। इसीलिए उन्होंने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा, जन लोकपाल और दिल्ली पुलिस को दिल्ली सरकार के अधीन करने जैसे अपने प्रिय और पुराने मुद्दों का स्मरण भी नहीं किया। इसीलिए उन्होंने अपनी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में किसी भी गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री या विपक्षी दलों के नेताओं को भी नहीं बुलाया। यहीं नहीं, मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद उन्होंने दिल्ली के लोगों के हित में केंद्र सरकार के साथ मिलकर काम करने की बात भी कही।
भाजपा के प्रति नरमी बरतने और केंद्र सरकार के साथ टकराव न करने की उनकी यही समझ फरवरी महीने में दिल्ली में हुई व्यापक सांप्रदायिक हिंसा के दौरान भी दिखाई दी। साफ-साफ दिख रहा था कि दिल्ली में हिंसा भड़काने का काम भाजपा के नेताओं की ओर से हुआ है और इसमें पुलिस भी मददगार रही है, इसके बावजूद केजरीवाल या उनकी पार्टी के किसी नेता हिंसा के दौरान और हिंसा के बाद भी न तो ऐसा कोई बयान नहीं दिया और न ही ऐसा कोई काम किया, जिससे कि केंद्र सरकार या भाजपा का समर्थक वर्ग नाराज हो।
अब केजरीवाल और उनकी पार्टी का राजनीतिक लक्ष्य है दिल्ली के तीनों नगर निगमों के चुनाव, जो 2022 में होना है। केजरीवाल जानते हैं कि कोरोना महामारी का किस्सा बहुत जल्द खत्म होने वाला नहीं है। यह सिलसिला लंबे समय तक चलेगा और उनकी सरकार को ज्यादा से ज्यादा समय इसी मोर्चे पर जूझना होगा। इसीलिए वे बेहद सधे हुए अंदाज में आगे बढ रहे हैं। यह सही है कि गरीब और वंचित तबकों को राहत सामग्री और आर्थिक मदद पहुंचाने में उनकी सरकार धार्मिक, सांप्रदायिक या जातीय आधार पर कोई भेदभाव नहीं कर रही है।
मुस्लिम बस्तियों में भी राहत सामग्री समान रूप से पहुंच रही है, लेकिन वे और उनकी पार्टी के दूसरे नेता इस बात का ढोल नहीं पीट रहे हैं। मकसद यही है कि भाजपा और मोदी के समर्थक वर्ग में कहीं से भी यह संदेश नहीं जाए कि आम आदमी पार्टी और उसकी सरकार मुसलमानों से अतिरिक्त सहानुभूति रखती है। इसीलिए दिल्ली में कोरोना संक्रमण के मामले बढ़ने का जिक्र करते वक्त वे इसके लिए तब्लीगी जमात और उसके मरकज को याद करना नहीं भूलते हैं।