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ब्रेक्जिट से बढ़ी यूरोप और तुर्की की दूरी

ब्रेक्जिट से बढ़ी यूरोप और तुर्की की दूरी
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अनवर जमाल अशरफ

, बुधवार, 29 जून 2016 (21:06 IST)
ग्रेट ब्रिटेन में हुए जनमत संग्रह के ठीक बाद यूरोप के बीमार देश यानी तुर्की में आतंकवादी हमले ने यूरोप के अंदर के भौगोलिक और राजनीतिक माहौल को पेचीदा बना दिया है। ब्रिटेन में यूरोपीय संघ से बाहर निकलने को लेकर रायशुमारी हुई है, जबकि तुर्की काफी वक्त से यूरोपीय संघ में शामिल होने की कोशिश कर रहा है। यूरोपीय संघ के सदस्य देश इस मुद्दे पर भी बंटे हुए हैं।
इस्तांबुल का कमाल अतातुर्क हवाई अड्डा यूरोप का तीसरा सबसे व्यस्त एयरपोर्ट है। 2015 की रैंकिंग के मुताबिक टर्किश दुनिया की चौथी सबसे अच्छी एयरलाइन है और चूंकि तुर्की एशिया और यूरोप को जोड़ने वाला देश है, लिहाजा यह एक बहुत बड़ा हवाई जंक्शन बन गया है। यहां से दुनिया भर के महत्वपूर्ण शहरों के लिए हवाई सेवा है, जिसमें यूरोपीय देश भी शामिल हैं। ब्रसेल्स के बाद इस्तांबुल दूसरा शहर है, जहां एयरपोर्ट पर आतंकी हमला हुआ है।
 
तुर्की एक यूरेशियन देश है। इसका 97 फीसदी हिस्सा एशिया में आता है, जबकि सिर्फ तीन फीसदी यूरोप में। फिर भी यह खुद को यूरोपीय देश मानता मानता है, यह बात अलग है कि यूरोप के ज्यादातर देश इसे अपने साथ नहीं जोड़ना चाहते। मध्य पूर्व की क्रांति और सीरिया के गृहयुद्ध के बाद तुर्की की अहमियत यूरोप के लिए बहुत ज्यादा बढ़ गई है। इसकी सीमाएं आठ देशों से मिलती हैं, जिनमें ईरान, इराक और सीरिया शामिल हैं। इन देशों से न सिर्फ प्रवासी और शरणार्थियों का यूरोप में प्रवेश होता है, बल्कि तुर्की आतंकवादियों के लिए भी यूरोप का प्रवेश द्वार बनता है।
 
संकटग्रस्त देशों से जुड़ी सीमा : पश्चिमी यूरोप से सीरिया जाकर आइसिस के लिए युद्ध लड़ने वाले यूरोपीय युवाओं ने तुर्की के रास्ते ही उस हिस्से में पहुंच बनाई है। तुर्की भी अपने इस भौगोलिक अहमियत को खूब समझता है और इस मुद्दे पर यूरोप के देशों से मोल-भाव करता रहता है। हाल के दिनों में जब शरणार्थियों का मुद्दा हल होता नहीं दिख रहा था, तो यूरोपीय देशों ने तुर्की को मनाने के लिए काफी जद्दोजेहद की। इसके बाद तुर्की शरणार्थियों को अपनी जमीन पर पनाह देने के लिए राजी भी हो गया। लेकिन पर्दे के पीछे दोनों पक्षों में खासी कूटनीतिक सौदेबाजी हुई है।
 
तुर्की ने 2005 में औपचारिक रूप से यूरोपीय संघ में शामिल होने की दावेदारी की है और ऐसा समझा जा रहा था कि 2020 तक तुर्की संघ में शामिल हो जाएगा। तुर्की की दावेदारी में उसके मित्र ब्रिटेन का अहम रोल था, जो उसे संघ में शामिल करने का समर्थन कर रहा था। उसके अलावा उसे जर्मनी का भी साथ हासिल था, जहां बड़ी संख्या में तुर्क मूल के लोग रहते हैं। लेकिन खुद ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से निकलने के फैसले के बाद यह समीकरण गड़बड़ा गया है। फ्रांस और ऑस्ट्रिया कई बार इस बात की चर्चा कर चुके हैं कि यूरोपीय संघ मूल रूप से ईसाई देशों का समूह है और उसमें तुर्की जैसे मुस्लिम राष्ट्र का प्रवेश मुश्किलें पैदा कर सकता है।
 
शायद तुर्क राष्ट्रपति रज्जब तैयब एर्दवान भी बदली हुई परिस्थिति को समझते हैं। लिहाजा उन्होंने अपने ही देश में एक जनमत संग्रह कराने की बात कही है, जिसमें तुर्क नागरिकों से पूछा जाएगा कि क्या ब्रेक्जिट के बाद भी वे यूरोपीय संघ का हिस्सा बनना चाहते हैं या इस दावेदारी को यहीं खत्म कर दिया जाए।
 
यूरोप में बदलता माहौल : पिछले दो साल के घटनाक्रमों की वजह से यूरोप के साझा समाज और धर्मनिरपेक्ष वातावरण में काफी बदलाव आया है। पहले मुस्लिम राष्ट्रों से आए शरणार्थियों और बाद में पेरिस और ब्रसेल्स के आतंकी हमलों ने माहौल खराब किया है। दक्षिणपंथी ताकतों का प्रभाव बढ़ा है और इस्लाम को लेकर नफरत ज्यादा दिखने लगी है। ब्रिटेन में भी ब्रेक्जिट के बाद इस्लाम विरोधी प्रदर्शन हो रहे हैं, जबकि यूरोप के दूसरे देशों में पिछले कई महीनों से इस्लाम और मुस्लिम राष्ट्रों के खिलाफ माहौल बन रहा है। 
 
तुर्की अपने संविधान के अनुसार एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, लेकिन एर्दवान के नेतृत्व में वहां कट्टरता बढ़ी है और ऐसे में उसके यूरोपीय संघ में शामिल होने की संभावनाएं कमजोर हुई हैं। रणनीतिक नजरिए से तुर्की के महत्व को देखते हुए विकसित देशों के पश्चिमी गठबंधन ने अपनी सैन्य टुकड़ी नाटो में तुर्की को जगह दी है।
 
अर्मेनिया के अलावा तुर्की एकमात्र मुस्लिम राष्ट्र है, जिसे अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों के साथ इस गठबंधन में शामिल किया गया है। तुर्की से ज्यादा इसकी जरूरत पश्चिमी देशों को है, जो अपने सैनिक ठिकाने तुर्की में जमा सकते हैं और मध्य पूर्व के देशों पर नजदीक से नजर रख सकते हैं। लेकिन तुर्की को यूरोपीय संघ में शामिल करने का मतलब होगा कि यूरोप की सीमाएं आगे बढ़ कर सीरिया, ईरान और इराक से जा मिलेंगी। तुर्की मध्य पूर्व के शरणार्थियों का विशाल पनाहगाह है। यूरोपीय संघ में शामिल होने का बाद यहां के लोग बिना वीजा के यूरोप में दाखिल हो सकेंगे। जांच की प्रक्रिया कमजोर हो जाएगी और सुरक्षा के लिहाज से पश्चिमी देशों को यह पसंद नहीं आएगा।
 
खट्टे होते रिश्ते :  ब्रिटेन में अंदरखाने कहीं न कहीं तुर्की का मुद्दा भी चल रहा था, जहां यूरोपीय संघ से अलग होने के हिमायती तुर्की की मिसाल देकर प्रचार कर रहे थे कि तुर्की के लिए दरवाजे पूरी तरह खोलने का मतलब यूरोप में आए दिन हिंसक वारादत की घटना को दावत देना है। 
 
तुर्क राजधानी अंकारा और सबसे बड़े शहर इस्तांबुल में इस साल अब तक छह बड़ी आतंकवादी घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 100 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। इनमें से कुछ घटनाओं के लिए आतंकवादी संगठन आइसिस ने जिम्मेदारी भी ली है। तुर्की अगर यूरोपीय संघ में शामिल होता है, तो भविष्य में इस तरह की घटनाएं यूरोप पर हमले के तौर पर देखी जाएंगी।
 
पिछले तीन साल में तुर्की और यूरोपीय संघ के बीच तकरार बढ़ा है। यही वह समय है, जब यूरोप में दक्षिणपंथी ताकतें उभार पर आई हैं और तुर्की में कट्टरपंथ का प्रभुत्व बढ़ा है। यूरोप का आरोप है कि तुर्की मानवाधिकार और लोकतंत्र की रक्षा के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा रहा है, जबकि तुर्की का कहना है कि मुस्लिम राष्ट्र होने की वजह से  संघ में प्रवेश के लिए यूरोप दोहरा मपदंड अपना रहा है। तुर्की की आबादी लगभग आठ करोड़ है, जिनमें करीब 96 फीसदी लोग मुस्लिम हैं।
 
ब्रेक्जिट वोट ने यूरोप के अंदर एक और पिटारा खोल दिया है। आशंका बढ़ चली है कि कुछ और सदस्य देश यूरोपीय संघ के बाहर जाने का बहाना खोजेंगे। नीदरलैंड्स, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, डेनमार्क और चेक गणराज्य जैसे देश इसका संकेत भी दे चुके हैं। तुर्की के लिए संघ के दरवाजे खोलना खतरे की निशानी हो सकती है क्योंकि इसे भी कुछ राष्ट्र संघ से बाहर जाने का बहाना बना सकते हैं।

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