करीब 15 साल पहले दिल्ली की गीता कालोनी के थाने में एक बंदर घुस आया। बंदर थाने के अंदर ऐसा आया कि उसने बाहर जाने से इंकार कर दिया। दिल्ली पुलिस के सिपाही उसे अपने डंडे दिखाते रहे लेकिन बंदर टस से मस न हुआ। वह कभी एक फाइल पर बैठता, कभी दूसरी पर। यह बात उन दिनों की है जब दिल्ली में मंकी मैन की कहानी वैसे भी अपने चरम पर थी और पुलिस उसे सुलझा नहीं पा रही थी। यह माना जा रहा था कि रात के अंधेरे में एक बंदर दिल्ली में तरह-तरह से उत्पात मचा रहा है। उसका साया दिखता है और वह पकड़ में नहीं आता।
गीता कालोनी के इस बंदर की खबर जब मुझे मिली तो मैं भी एनडीटीवी की अपराध बीट की प्रमुख के तौर पर इस खबर को कवर करने वहां गई। थाने के अंदर का सीन मजेदार था। डंडे लिए पुलिस वाले। दूसरी तरफ बजरंगी भाईजान स्टाइल में हाथ जोड़े खड़े कुछ पीड़ित जो किन्हीं वजहों से थाने आए थे और उनके बीच एक मस्त बंदर। इस मौके पर थाने के बाहर खड़े होकर मैंने एक पीटूसी किया – एक बंदर थाने के अंदर और पीड़ित पढ़ रहे हैं हनुमान चालीसा, अपराधी देख रहे तमाशा।
यह एक पीटूसी तब तक तक टीवी पर किए मेरे सारे पीटूसी में हिट रहा। बाद में कई दिनों तक दर्शक चैनल में फोन करके यह पूछते रहे कि बंदर थाने से बाहर आया कैसे और बाद में उस बंदर का हुआ क्या। क्या यह बंदर वही मंकी मैन था या कोई और।
बजरंगी भाईजान को देखते हुए इस बंदर की याद मुझे कई बार आई। बजरंगी भाईजान की ईमानदारी, बच्ची की चुप्पी, पाकिस्तानी पुलिस की तमाम मूर्खताओं के बीच फिल्म में जो पात्र सारे सूत्रों को आपस में जोड़ कर संवेदनाएं बटोरता है – वह है पत्रकार – चांद नवाब उर्फ नवाजुद्दीन सिद्दीकी। असल जिंदगी में पाकिस्तान का रिपोर्टर रेलवे स्टेशन अपनी स्टोरी के लिए पीटूसी कर रहा है तो लोग उसे धकेलते हुए जा रहे हैं। पर वह भी ठेठ पत्रकार है। वह अपने वाक्यों को उसी तन्मयता से दोहरा रहा है। यूट्यूब पर डाला उसका यही वीडियो कुछ साल बाद बड़े परदे पर ऐसा हिट होगा, यह खुद उसने भी सोचा न होगा। लेकिन यहां बात फिल्म में पत्रकार की संवेदना की भी है जिस पर गौर करना होगा। पहले पाकिस्तानी पुलिस की तरह वह भी बजरंगी को शक की निगाह से देखता है लेकिन बस में जैसे ही उसे बजरंगी की साफनीयती का यकीन होता है, वह तुरंत अपने विचार बदल लेता है और फिल्म के अंत तक बजरंगी और बच्ची का साथ देता है।
असल सवाल यहीं पर खड़ा है। कितने पत्रकार असल जिंदगी में ऐसा कर पाते हैं। पत्रकारिता की पढ़ाई और उसका कर्म शक पर खड़ा है। हर बात पर शक। सरकार पर, सत्ता पर, पुलिस पर। बात यहां तक जमती है क्योंकि जिनका काम जनता की सेवा है, जो जनता के लिए जवाबदेह हैं, मीडिया को उनके काम पर चौकस और शक्की निगाह रखनी ही चाहिए लेकिन जब कुछ पत्रकार इन दूरियों को पाट कर और अपने असल काम को छोड़कर पेड न्यूज के जरिए इन तीन स्तंभों को साथी और पीड़ितों को लेकर विद्रोही हो जाते हैं और पीड़ित के प्रति ही शक्की हो जाते हैं तो पत्रकारिता के मायने बदल जाते हैं। आप और हम कितने ऐसे पत्रकारों को जानते हैं जो अपने क्षेत्रीय, दफ्तरी, भाषायी गुटों और पूर्वाभासों से ऊपर उठकर किसी सच का साथ देने के लिए हर हाल पर आमादा हों।
ऐसा नहीं है कि पूरी पत्रकारिता ही दागदार है पर ऐसा जरूर है कि खबरों के इस नए बाजार में चतुराई की बजाय कुछ सफाई की जरूरत है। इस बात से इंकार नहीं है कि किसी भी चैनल या अखबार का मालिक चांद नवाब जैसे की दी खबर को बाजार की खबर नहीं मानेगा। उसे नकारेगा और न ही उसे यह समय देगा कि वह किसी खबर को इतने दिनों तक फालो कर सके। लेकिन बाजार के दबावों को अगर हम कुछ समय के लिए हाशिए पर ले जाएं तो भी पत्रकारिता के मूल को चिंतन की जरूरत तो है ही।
मामला सरोकार की पत्रकारिता का है। निर्भीकता का भी। बरसों तक प्रभात खबर, जनसत्ता और द हिन्दू जैसे अखबारों को सरोकारों से जुड़ा अखबार माना जाता रहा है। दूरदर्शन जन माध्यम है ही। लेकिन निजी मीडिया के आने के बाद परिभाषाएं बदलीं। जो खबर तुरंत बिकाऊ थी, चुस्त और स्मार्ट- उसे उठाने में कैमरे ने कोई देर नहीं की। फैशन शो बिका, किसान नहीं। किसान चैनल बना तो वहां 6.5 करोड़ की कथित रकम की मांग पर एक सीमित दर्जे की ही रिपोर्टिंग हुई।
इस पर जायज चिंताएं कम हुईं कि इस देश का सबसे बड़े जनमाध्यम कैसे बरसों से जनता के पैसे को इतने सस्ते में लेता रहा है। इस बात में हम पी साईंनाथ को भी याद कर लें जिन्होंने भारत का ध्यान इस तरफ दिलाया कि जब महाराष्ट्र में बड़ी तादाद में किसान आत्महत्या कर रहे थे तो उसे कवर करने 6 रिपोर्टर ही पहुंचे जबकि उसी समय हो रहे लैक्मे फैशन वीक को कवर करने 412 पत्रकारों का हुजूम पहुंच गया।
दिल्ली जैसे शहर में ही 80 प्रतिशत मीडिया 20 प्रतिशत लोगों के हाथों में है। यानी खबर की पूरी बागडोर सीमित हाथों में। इसका असर खबर के चुनाव और उसके प्रसार पर तो पड़ेगा ही। खबरें नपेंगी, तौली जाएंगी और राजनीतिक जरूरतों में कसी भी जाएंगी लेकिन इस सारे मोल-भाव के बीच भी इस बात को कौन नकार सकता है कि इस मीडिया मंडी को पत्रकार की कुव्वत के बिना सजाया ही नहीं जा सकता।
बाजार के दबाव में पत्रकार और संपादक का कद कुछ छोटा हो सकता है लेकिन ऐसा भी क्या कि उसके अंदर का चांद नवाब किसी परछाईं में ही सिमट जाए। पाठक और दर्शक अगर सिनेमा हाल में जाकर इस चांद नवाब को देखकर अंदर तक भीग सकता है तो असल जिंदगी में उसके मन में ऐसे चांद नवाबों को देखने की कितनी लालसा होगी, जरा यह भी तो सोचिए।
बेशक, ऐसे चांद नवाबों को खोजने के लिए कबीर खान वाली नजर भी चाहिए। मीडिया मालिक अपने चश्मे को साफ करेंगे, तभी यह मुमकिन होगा।