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आपके शहर से गुजरता मजदूर किसी सरकार नहीं, शायद हमारे भरोसे के इंतजार में ही बैठा हो...

आपके शहर से गुजरता मजदूर किसी सरकार नहीं, शायद हमारे भरोसे के इंतजार में ही बैठा हो...

संदीपसिंह सिसोदिया

, बुधवार, 13 मई 2020 (18:00 IST)
धूप, गर्मी, लंबी सड़कें और अन्तहीन लगने वाला सफर। लॉकडाउन में मजदूरों के पलायन का यह सबसे करुण दृश्‍य है। इस सफर में भूख, प्‍यास और जिंदा रहने की उम्‍मीद शामिल है। ये सब वही मजदूर हैं, जो अपना पेट पालने के लिए अपना गांव और घर छोड़कर शहर गए थे। लेकिन, घर वापसी के इस सफर में उन्‍हें पैसा नहीं चाहिए, धन नहीं चाहिए, बल्‍कि घर लौटने की अपनी इस जीवटता को जिंदा रखने के लिए मदद चाहिए, हौसला चाहिए। 
 
...और इंदौर उन्‍हें यह जीवटता दे भी रहा है। जीने का और चलने का हौसला दे रहा है। इंदौर के बाम्बे-आगरा बायपास से गुजरते ऐसी करुण कहानियों की एक लंबी फेहरिस्त के बीच इंदौरि‍यों की मदद अपनी कहानी खुद बयां कर रही है। ये दृश्‍य हिला देंगे, रुला देंगे। और यह दृश्‍य और उनकी दास्‍तान इंदौर की आत्‍मा को झकझोर भी रही है। 
 
क्योंकि एक तरफ उस गरीब मजदूर के सफर का संघर्ष है और दूसरी तरफ उस सफर और उसके यात्री को जिंदा रखने के लिए परोपकार की गाथा भी नजर आ रही है। 
 
इंदौर, इस सफर के यात्र‍ियों के सूखे गले की प्‍यास बुझा रहा है, कोई गरमा-गर्म रोटियां, पूरी बनाकर प्रेम से खिला रहा है, तो कोई उनके पैरों को धूप के अंगारों से झुलसने से बचाने के लिए जूते और चप्‍पल भी पहना रहा है। कोई सिर को छांव से ढकने के लिए उन्‍हें कैप दे रहा है तो कोई छोटे मासूम बच्‍चों को गमछों से लपेट रहा है।
 
इंदौर में डॉक्‍टरों की टीम पर हमला करने और थूकने की जो तस्‍वीर देश ने अब तक देखी थी, दअरसल वो बहके हुए, भटके हुए कुछ लोगों की तस्‍वीर थी। इंदौर की असल तासीर तो अब बायपास पर मजदूरों की इस करुण गाथा पर आंसू बहाते और उनकी मदद करते नजर आ रही है। यही है इंदौर के परोपकार की असली तस्‍वीर। 
 
मदद और परोपकार की इस तस्‍वीर को फलक पर और बड़ा और वि‍स्‍तृत करना होगा। इतना बड़ा कि वो देश के किसी भी कोने से नजर आ जाए।
 
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प्रवासी मजदूरों के इस अनिश्चित सफर का हमें हमसफर होना होगा। ताकि मजदूरों का यह सफर आसान हो सके। इस पर राजनीति करने का कोई और वक्‍त तय कर लिया जाएगा, फिलहाल उन्‍हें छालों से भरे पैरों के लिए ठंडी सतह की जरुरत है, सिर के लिए छांव भरे आसरे की। पेट के लिए दो नहीं तो कम से कम एक जून की रोटी की। उनके बच्‍चों को थोड़े से बिस्किट और ढेर सा दुलार मि‍ले।
 
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मजदूरों के इस अनिश्चित सफर में उन्हें पैरों में चप्‍पल चाहिए, जूते चाहिए। पानी चाहिए और भोजन चाहिए। पैसे तो वे कमाने गए ही थे दूसरे शहर, अब अपने घर जाना चाहते हैं, घर जाने में उनकी मदद कीजि‍ए। फि‍लहाल उन्‍हें इसकी जरूरत है। जितना हो सकता है किया जाना चाहिए, क्योंकि आपके शहर के एक मुहाने से गुजरते हुए मजदूरों के संघर्ष की दास्‍तान में आपकी मदद की एक पंक्‍ति भी दर्ज हो जाएगी तो उनका सफर आसान हो जाएगा।
 
मदद की यह एक पंक्‍ति आपके लिए सबसे बड़ी तसल्‍ली की बात होगी। कम से कम इतना तो आसरा मिले कि वो आपके शहर से गुजरे तो उन्हें पानी मिल जाए, 2 रोटी मिल जाए। क्योंकि हो सकता है आपके शहर से गुजरते ये गरीब, असहाय मजदूर 'आपके भरोसे' ही इस मुश्किल सफर पर निकले हों।
 
इसलिए हमें चाहिए कि अभी हम किसी 'सरकार' के भरोसे न बैठे, क्योंकि हो सकता है कि साहब-सरकार 'हमारे भरोसे' बैठै हो। क्या पता, जब ये आपके शहर से फिर कभी गुजरें तो कहें "यह है इंदौर, ऐसा शहर जो हमारे बुरे वक्त में हमारे लिए दिल खोलकर और बांहें फैलाए मौजूद था..."

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