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5 अप्रैल की रोशन रात… जैसे जीने के जज्‍बे और जीतने की उम्‍मीद का कोई द‍िन उग आया हो

नवीन रांगियाल
रविवार, 5 अप्रैल 2020 (21:02 IST)
ये रोज की तरह ही एक साधारण सी शाम थी। धीरे-धीरे अपने अंधेरे में घि‍रती हुई। चीड़ि‍याओं की चहक, झींगूरों की आवाजें और ‘लॉकडाउन’ के अपने सन्‍नाटे को समेटे हुए।

लेक‍िन फि‍र भी ये शाम दूसरी सभी शामों से अलग थी, क्‍यों थी?  क्‍योंक‍ि इसके गहराते अंधेरे में उम्‍मीद का उजाला भी शाम‍िल था। एक प्रतीक्षा थी। एक जज्‍बा था। एक प्रतीक्षा क‍ि दुन‍िया फि‍र से शुरू होगी। एक जज्‍बा क‍ि हम सब फि‍र से वैसे ही ज‍िंदगी को हंसते और चहचहाते हुए देखेंगे और मुस्‍कुराएंगे। हम और ये दुन‍िया और हमारा
ये शहर एक बार फ‍िर से अपनी उसी रफ्तार को हासि‍ल करेंगे।

रात का अंधेरा गहरा रहा था, लेक‍िन उम्‍मीदों का उजाला चमकने लगा था। इसी जज्‍बे और इंतजार की उम्‍मीद के साथ हम सब अपनी छतों पर थे, अपनी गैलरी में और अपने-अपने आंगन में। अपने आसपास अंधेरा और हाथ में उजाले की उम्‍मीद को ल‍िए हुए।

5 अप्रैल को रव‍िवार की इस शाम को रोशनी का कोई पर्व नहीं था, कोई दीवाली नहीं थी लेक‍िन यह उसी तरह अपना उजि‍यारा फैला रही थी जैसे दीवाली की कोई शाम रोशन हो रही हो।

धीमे-धीमे छत की बाउंड्रीवॉल पर कतार से दि‍ए महकने लगे, आंगन में रखे द‍िए मुस्‍कुराने लगे और गैलरी में भी कतारबद्ध द‍िए यूं टि‍मटि‍माने लगे मानो उम्‍मीद का कोई पूरा द‍िन उग आया हो।

अंधेरा कहीं नहीं था, चारों तरफ रोशनी थी। और हथेल‍ियों से द‍ीयों को हवा से बचाने की कवायद और चेहरों पर जीत की मुस्‍कान। जो अंधेरा था वो भी रोशनी को और ज्‍यादा से ज्‍यादा रोशन करने में अपना साथ दे रहा था। 
कोई ऐसी जगह नहीं थी, कोई छत नहीं थी, कोई आंगन नहीं, जहां रोशनी नहीं थी। कहीं दीए टिमटि‍मा रहे थे तो कहीं मोबाइल की फ्लैशलाइट तो कहीं टॉर्च।

रात की 9 बजे 9 म‍िनट तक पूरा शहर इस उजाले में नहाकर जैसे पव‍ित्र हो गया हो। यह स‍िलस‍िला अपने उजाले में स‍िर्फ 9 म‍िनट तक ही नहीं बल्‍कि‍ देर रात तक यूं ही जगमगाता रहा।

कोरोना वायरस के संकट से निजात दिलाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से की गई रोशनी करने की इस अपील में न सि‍र्फ प्रकाश था, बल्‍क‍ि लोगों की आंखों में जीने का जज्‍बा भी था। इस संक्रमण से लड़ने का जुनून और हौंसला भी था।

यह ठीक उसी तर‍ह का जज्‍बा था जैसे ‘जनता कर्फ्यू’ वाले दि‍न पूरे देश ने एक सूर में ताली और थाली बजाकर जगाया था।

जहां दुनि‍या के आधे देश इस संकट के आगे हार मानकर नतमस्‍तक हो चुके हैं, वहीं भारत ने अपनी हथेल‍ियों में रोशनी उगाकर यह द‍िखा द‍िया क‍ि उसके हौंसले पस्‍त होने के ल‍िए नहीं बने हैं।

संक्रमण और महामारी के इस अंधि‍यारे में इसी तरह रोशनी कर के वो ज‍ितेगा और ज‍ियेगा भी।

5 अप्रैल की यह शाम अपने आंगन में उजाला करने के ल‍िए तो जानी ही जाएगी, बल्‍कि‍ अपने मन और आंखों में पैदा क‍िए गए लड़ने की ताकत और जीने के जज्‍बे के ल‍िए भी याद की जाएगी।

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