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जूली 2 : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
2004 में प्रदर्शित जूली न तो कोई महान फिल्म थी और न ही सुपरहिट कि इसका भाग दो बनाया जाए। चूंकि इस फिल्म के निर्देशक दीपक शिवदासानी पिछले आठ वर्षों से खाली बैठे थे, इसलिए वापसी के लिए उन्होंने जूली फिल्म की सनसनी को चुनते हुए जूली 2 बनाई। वैसे इस फिल्म का नाम है 'दीपक शिवदासानी की जूली 2'। 
 
फिल्म के आरंभ में ही स्पष्ट कर दिया गया है कि फिल्म की कहानी और पात्र काल्पनिक है। हालांकि दबी जुबां में कहा जा रहा है कि फिल्म अभिनेत्री नगमा के जीवन की कुछ घटनाएं इसमें डाली गई हैं। नगमा और दीपक का भी कनेक्शन है। नगमा ने अपनी पहली बॉलीवुड मूवी 'बागी' (1990) दीपक के साथ ही की थी। 
 
बात की जाए फिल्म की, तो यह जूली नामक अभिनेत्री की कहानी है। जूली को सफलता हासिल करने के लिए तमाम तरह के समझौते करने पड़ते हैं। वह नाजायज औलाद है। उसका पिता कौन है, उसे नहीं पता। सौतेला पिता उसे घर से निकाल देता है और जूली किस तरह फिल्मों में सफलता हासिल करती है यह दास्तां बताई गई है। जूली के इस संघर्ष की कहानी में थोड़ा थ्रिल डालने का प्रयास भी किया गया है। जूली को गोली मार दी जाती है। कौन है इसके पीछे और उसका क्या मकसद है, यह फिल्म में दर्शाया गया है। 
 
दीपक शिवदासानी की कहानी बहुत ही घटिया है। उन्होंने इस उद्देश्य से जूली के संघर्ष को दिखाया है कि दर्शक उसके दर्द को महसूस कर सके। जूली के प्रति उनकी सहानुभूति हो, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं होता। जूली के आगे कभी ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न नहीं होती कि वह फिल्म निर्माताओं के साथ सोने के समझौते को मान ले। 
 
उसके हाथ से फिल्म निकल जाती है और कार की किश्त अदा न कर पाने के कारण बैंक कार जब्त कर लेती है। यह इतना बड़ा दु:ख तो है नहीं कि आप इस तरह का समझौता कर ले। कुल मिलाकर जूली को 'बेचारी' दिखाने के जो सीन लिखे गए हैं वे अत्यंत ही सतही हैं। लिहाजा जूली के संघर्ष की दास्तां बिलकुल भी असर नहीं करती। 
 
फिल्म में बार-बार जताया गया है कि सभी जूली के जिस्म से प्यार करते हैं और जूली से कोई प्यार नहीं करता, लेकिन जूली भी जिस तरह से सुपरस्टार, क्रिकेट खिलाड़ी, अंडरवर्ल्ड डॉन की बांहों में तुरंत पहुंच जाती है उससे ऐसा तो कतई नहीं लगता कि वह 'प्यार' चाहती है। 
 
थ्रिलर वाले ट्रैक की चर्चा करना बेकार है। खूब सस्पेंस पैदा करने की कोशिश की गई है कि जूली की जान कौन लेना चाहता है, लेकिन अंत में खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली बात सच हो जाती है। 
 
निर्देशन में भी दीपक शिवदासानी प्रभावित नहीं कर पाते। फिल्म में एक भिखारी दिखाया गया है जो कई दिनों से भूखा है, लेकिन उस भिखारी के चेहरे से तो ऐसा लगता है जैसे वह सुबह-शाम बिरयानी खाता हो। इस तरह के नकलीपन से पूरी फिल्म भरी हुई है। कहीं भी कोई विश्वसनीयता नजर नहीं आती। दीपक शॉट जरूर अच्छे ले लेते हैं, लेकिन कलाकारों से अभिनय कराना उन्हें नहीं आया। दीपक फिल्म को मनोरंजक भी नहीं बना पाए और पूरी फिल्म इतना उबाऊ है कि आप झपकियां भी ले सकते हैं।  
 
दक्षिण भारतीय फिल्म अभिनेत्री राय लक्ष्मी ने 'जूली 2' के जरिये हिंदी फिल्मों में अपनी शुरुआत निराशाजनक रूप में की है। उनका अभिनय औसत से भी निचले दर्जे का है। उनका रोल भी कुछ इस तरह लिखा गया है कि वे दर्शकों से कनेक्ट ही नहीं हो पाती हैं। 
 
आदित्य श्रीवास्तव सीआईडी धारावाहिक वाले सीनियर इंस्पेक्टर अभिजीत के मोड से बाहर ही नहीं निकल पाए। अपने आपको सख्त दिखाने की उनकी कोशिश हास्यास्पद है। रवि किशन बेहद बनावटी लगे। रति अग्निहोत्री को तो ऐसे संवाद दिए गए कि वे फाल्तू का 'ज्ञान' बांटते नजर आईं। व्हाट्स एप में तो ऐसे ज्ञान की गंगा बहती है। घटिया निर्देशन और घटिया एक्टिंग का असर पंकज त्रिपाठी जैसे काबिल एक्टर पर भी हो गया और उनके अंदर का अभिनेता भी गुम हो गया। 
 
इस जूली 2 को देखने की बजाय मूली खाना बेहतर है। 
 
निर्माता : दीपक शिवदासानी, विजय नायर
निर्देशक : दीपक शिवदासानी 
संगीत : विजू शाह 
कलाकार : राय लक्ष्मी, रवि किशन, आदित्य श्रीवास्तव, रति अग्निहोत्री, पंकज त्रिपाठी 
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 17 मिनट 55 सेकंड 
रेटिंग : 0.5/5 

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