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मसाला फिल्मों के मसीहा मनमोहन देसाई, जिन पर अमिताभ आंख मूंद करते थे विश्वास

मनमोहन देसाई के जन्मदिन (26 फरवरी) पर स्पेशल आर्टिकल

समय ताम्रकर
मनमोहन देसाई का सिनेमा मसाला-सिनेमा है। वे दूसरे फिल्मकारों की तुलना में डबल तड़का लगाकर अपने दर्शकों को परोसते थे। वह यह बात अच्छी तरह जानते थे कि देश के फिल्म समीक्षक उन्हें निजाम ऑफ नानसेंस (बकवास का बादशाह) या फिर ड्रीम ऑफ एम्परर (सपनों का शहंशाह) विशेषणों के साथ खिल्ली उड़ाते हैं। मनजी ने अपने आलोचकों की कभी परवाह नहीं की। जो रास्ता एक बार तय कर लिया था, आखिरी समय तक उस पर चलते रहे। उनका सीधा तर्क था- 'सिनेमा मेरे लिए शिक्षा तथा कला बिलकुल नहीं है। महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी भ्रष्टाचार और अभावों के बीच रहने वाला आदमी जब फिल्म देखने के लिए आता है, तो उसे मनोरंजन और सिर्फ मनोरंजन चाहिए। मैं हमेशा मनोरंजन प्रधान फिल्में बनाता रहूंगा। जब नहीं बना पाऊंगा, तो फिल्मों से संन्यास ले लूंगा।'
 
छलिया मेरा नाम
मुम्बई के गुजराती परिवार में जन्मे मनमोहन देसाई के पिता का साया उन पर से साढ़े तीन साल में ही उठ गया था। उनसे बड़े सुभाष देसाई हैं, जो फिल्म लाइन में आ गए थे। सेंट जेवियर्स स्कूल-कॉलेज से मनजी ने इन्टरमीजिएट तक शिक्षा प्राप्त की। बीस साल की उम्र में बड़े भैया सुभाष से कहा कि उन्हें फिल्मों में किस्मत आजमाना है। उन्हें फिल्म छलिया के निर्देशन का भार दिया गया। अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धी वाले राज कपूर और नूतन फिल्म की नायिका थी। नौजवान मनजी उनके सामने बौने थे। अपनी एंटरटेनिंग स्टाइल से उन्होंने राज साहब को प्रसन्न किया। फिर उनकी मदद से कल्याणजी-आनंदजी से राज साहब की पसंद का संगीत भी तैयार कराया। फिल्म हिट हुई। छलिया मेरा नाम, छलना मेरा काम आज भी लोकप्रिय है। इस पहली फिल्म के पालने से ही मनजी के पांव दिखाई दे गए थे कि वे कितना आगे जाएंगे। 
 
गोविंदा आला रे
मनजी जब फिल्मों में आए तब दिलीप-देव-राज की त्रिमूर्ति के अलावा शम्मी कपूर रिबेल हीरो के रूप में तेजी से उभर रहे थे। उन्होंने शम्मी को लेकर फिल्म 'ब्लफ मास्टर' तथा 'बदतमीज' फिल्में बनाईं। फिल्मों ने औसत सफलता हासिल की। ब्लफ मास्टर का  हंसी-मजाक-जोश-खरोश से फिल्माया गाना 'गोविंदा आला रे' हर जन्माष्टमी पर मक्खन की हंडिया फोड़ते समूह द्वारा जोर-शोर से गाया जाता है। दरअसल मनजी, राजकपूर के स्कूल के विद्यार्थी थे। गुरु तथा चेले में अंतर यही था कि राज कपूर की फिल्म स्टाइल का वह सरलीकरण कर देते थे। 
 
मनजी की फिल्मों में ऐसे-ऐसे सीन देखने को मिलते हैं कि जादूगर पी.सी. सरकार भी वैसा जादू कभी नहीं दिखा पाते। अथवा कोई बेटमैन-सुपरमैन-स्पाइरमैन भी जिसे संभव नहीं कर पाता, उसे मनजी की फिल्म का साधारण कलाकार संभव बना देता था। फिल्म मर्द में हवाई जहाज आसमान में उड़ रहा है। जमीन पर दारासिंह खड़े हैं। वह रस्सी का फंदा इतनी ताकत से उछालते हैं कि वह हवाई जहाज के पंखों में उलझकर उसे जमीन पर उतरने को मजबूर कर देता है। यह भले ही अति हो, मगर दर्शक दारासिंह के हाथों से यह कमाल देखते हैं, तो आसानी से भरोसा कर तालियां पीटने लगते थे। फिल्म का हीरो किसी इमारत की दसवीं मंजिल से नीचे गिर रहा है, तो सड़क पर कपड़ों से लदा ट्रक गुजरता है, जो उसे बचा लेता है। भारतीय पौराणिक कथाओं में जो किरदार तथा चमत्कार हुए हैं, उन्हें आधुनिक अंदाज में परदे पर दिखाने में मनजी की महारत को सलाम करने का जी चाहता है। इसके पीछे एक सच्चाई यह है कि डायरेक्टर बनने के पहले मनजी की ट्रेनिंग सिनेमाटोग्राफर बाबू भाई मिस्त्री के निर्देशन में हुई। बाबू भाई धार्मिक फिल्मों की ट्रिक फोटोग्राफीके बादशाह थे। मनजी ने उस कला का इस्तेमाल सामाजिक फिल्मों में किया। 
 
अमर अकबर एंथोनी
यदि मनजी की तमाम फिल्मों को खारिज कर दिया जाए और सिर्फ अमर अकबर एंथोनी फिल्म को ही रखा जाए, तो भी वे हमेशा याद किए जाएंगे और इस मनोरंजक फिल्म के जरिये फिल्म इतिहास में शामिल रहेंगे। बीबीसी लंदन ने जब अपने चैनल पर हिंदी फिल्म दिखाने का फैसला लिया, तो पहली फिल्म थी- अमर-अकबर-एंथोनी। इस फिल्म की कव्वाली परदा है परदा बेहद लोकप्रिय हुई। वे मुंबई के खेतवाड़ी इलाके में रहते थे, जहां अक्सर कव्वाली की रातें होती थी। उसका असर उन पर जबरदस्त हुआ। आम आदमी के बीच रहना मनजी को अच्छा लगता था इसलिए मुंबई के पॉश इलाके में रहने के लिए वे नहीं गए। खेतवाड़ी में वे अक्सर आम लोगों के साथ क्रिकेट खेलते थे और उन्हीं के बीच से वे अपनी फिल्मों के लिए किरदार ढूंढ लिया करते थे। 
 
खोया-पाया फारमूला
यह मनजी की विशेषता भी है और उनका फॉर्मूला भी है कि उन्होंने बचपन में खोए भाई तथा मां-बाप के फॉर्मूले पर इतना जोर दिया कि वह उनके नाम से पेटेंट बन सकता था। खोए बच्चों की मां का किरदार निभा रही अभिनेत्री निरुपा राय पर तो मजाक में यह लिखा जाता था कि वह ऐसी मां हैं, जो दो बच्चों को भी संभाल कर नहीं रख पाती और वे बचपन में ही बिछुड़ जाते हैं। लेकिन इस फारमूले की शुरुआत के लिए पाठकों को हम याद दिला दें कि बॉम्बे टॉकीज की फिल्म किस्मत (1943) में भी अशोक कुमार अपने मां-बाप से कुंभ बिछड़ जाते हैं। मनजी ने विदेशी फिल्मों की कभी नकल नहीं की और न कभी प्रेरणा प्राप्त की। वे भारतीय फिल्मकारों की फिल्मों से ही आइडिया लेकर अगली फिल्म उससे बेहतर बनाने की कला जानते थे। जैसे बीआर चोपड़ा की फिल्म वक्त से आइडिया लेकर अमर अकबर एंथोनी बना कर अधिक सफलता हासिल करने में कामयाब रहे। 
 
मनजी के सितारे : सितारों के मनजी
मनजी में भी कुछ चुंबकीय शक्ति ऐसी थी कि वे जिस सितारे को ऑफर करते वह उनकी फिल्म में काम करने को राजी हो जाता। राज कपूर से उन्होंने शुरुआत की थी। जब राजेश खन्ना सितारा बने, तो उन्हें अपनी फिल्म में मौका दिया। अमिताभ बच्चन को सितारा हैसियत बनाने का श्रेय भी मनजी को जाता है। मनजी पर अमिताभ आंख मूंद कर विश्वास करते थे और कभी उन्होंने सवाल नहीं किया कि फिल्म में उनसे ऐसा क्यूं करवाया जा रहा है? अमिताभ जानते थे कि आम आदमी की नब्ज पर मनजी को गजब की पकड़ है। अमिताभ, मनजी के पसंदीदा एक्टर हो गए थे। कुली फिल्म के सेट पर खलनायक के एक घूंसे से घायल अमिताभ के स्वास्थ्य लाभ के लिए मनजी ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया था। शशि कपूर, ऋषि कपूर, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी, परवीन बॉबी जैसे तमाम स्टार्स के साथ उन्होंने फिल्में बनाईं। अपने तीस साल के फिल्म करियर में मनजी ने बीस फिल्में डायरेक्ट की। इनमें से पन्द्रह फिल्मों ने सिल्वर, गोल्डन तथा डायमंड जुबिली तक मनाई थी। मनजी की फिल्में बड़े बजट, बड़े सितारे और भव्यता के साथ बनाई जाती थी। वे भी शो-मैन थे़, लेकिन घर की छत पर चढ़कर अपने शो-मैन होने की बात पर वे कभी जोर से नहीं चिल्लाए।  
 
आम आदमी को हंसाते रहे
मनजी का पूरा सिनेमा मनोरंजन का सिनेमा है। आम आदमी की रूचि का सिनेमा उन्होंने हमेशा बनाया, लेकिन कभी फूहड़ता का सहारा नहीं लिया। अपनी फिल्मों में कभी हीरोइनों से अंगप्रदर्शन नहीं करवाया। वे खुद हंसमुख थे। मिलनसार थे। सूरत के शहर से उनके पूर्वजों का वास्ता था। वे हमेशा सूरत स्टाइल में गालियां बका करते थे। अपशब्द उनके मुंह से कब निकल जाएगा, कोई बता नहीं सकता था। एक बार अमिताभ ने उनसे पूछा था कि मनजी आप सेंट जेवियर्स की प्रोडक्ट हैं, फिर ये गालियां क्यों? उनका जवाब था इनमें कोई दुर्भावना नहीं है, बस ये अलंकार का काम करती हैं। अपने अंतिम दिनों में मनजी परेशान थे। उनके बेटे द्वारा बनाई गई फिल्में असफल हो गईं। वीडियो के आने से घर-घर फिल्में देखे जानें लगी, जिससे उन्हें सिनेमा का भविष्य अंधकारमय नजर आने लगा। इस तरह आम आदमी को हंसाने वाला खुद ट्रेजेडी का शिकार होकर स्वर्ग गया। मनजी की यह नियति समझ से परे है। 
 
मनमोहन देसाई : प्रमुख फिल्में 
छलिया (1960), ब्लफ मास्टर (1963), बदतमीज (1966), किस्मत (1968), सच्चा झूठा (1970), भाई हो तो ऐसा (1972), रामपुर का लक्ष्मण (1972), शरारत (1972), आ गले लग जा (1973), अमर अकबर एंथोनी (1977), चाचा भतीजा (1977), धरमवीर (1977), परवरिश (1977), सुहाग (1979), नसीब (1981), देशप्रेमी (1982), कुली (1983), मर्द (1985), गंगा जमुना सरस्वती (1988), तूफान (1989)
 
 
मनमोहन देसाई : आधा हकीकत, आधा फसाना
- एक मार्च 1994 को मनजी ने अपनेघर की पांचवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी। यह रहस्य आज भी रहस्य है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया।
- मनमोहन देसाई अपनी वेन (कार) में कभी बैठकर सफर नहीं करते थे। पिछली सीट पर लेट जाते थे। ऐसी स्पेशल वैन उन्होंने अपने तथा अमिताभ के लिए डिजाइन कराई थी।
- मनजी कभी टीवी नहीं देखते थे। कभी देखना होता, तो टीवी स्क्रीन की इमेज को दर्पण में देखा करते थे। उनका मानना था कि इससे आंखें खराब नहीं होती।
- मनजी शराब, सिगरेट, गुटखा का इस्तेमाल नहीं करते थे। सिर्फ दिलचस्प सपने देखते थे।
- मनजी अपनी हीरोइनों में पापुलर थे, लेकिन कभी किसी से अफेयर नहीं किया।
- गंगा जमुना सरस्वती, तूफान फिल्मों के पिटने के बाद वे मनजी डिप्रेशन के शिकार हो गए थे।
- धनिया दाल और सुपारी खाने का मनजी को बेहद शौक था। 

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