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फिल्मी टीचर

समय ताम्रकर
फिल्मों में मास्टरजी को सामान्य व्यक्ति के रूप में बहुत कम दिखाया जाता है। टीचर के रूप में या तो उसे बेहद लाचार और कमजोर बताते हैं, जो कुरता-पजामा पहने, हाथ में छड़ी पकड़े, चश्मा लगाए, टूटी-फूटी साइकिल पर सवार होकर आदर्शवादी बातें करता रहता है या फिर वह आला दर्जे का बेवकूफ रहता है। अधिकांश फिल्मों में टीचर या प्रोफेसर भुलक्कड़ मिलेगा। उसे विद्यार्थी बेवकूफ बनाते रहते हैं और वह जोकरनुमा हरकत करता रहता है। फिल्मों में हास्य के दृश्य डालने के लिए अक्सर टीचर को याद किया जाता है। टीचर भी एक सामान्य व्यक्ति है, लेकिन उसके इस रूप का चरित्र-चित्रण बेहद कम किया गया है।

एक अध्यापक की भूमिका अमिताभ बच्चन ने कई बार निभाई है। ‘मोहब्बतें’ में वे एक गुरुकुल के प्राचार्य के रूप में नजर आए, जो बेहद सख्त और अनुशासनप्रिय है। हँसना तो जैसे वह जानता ही नहीं। शाहरुख और अमिताभ की कशमकश को इस फिल्म में दिखाया गया है। ‘मेजर साब’ में अमिताभ मेजर जसबीर राणा के रूप में कैडेट्स को देश के लिए मर मिटने का प्रशिक्षण देते हैं। ‘कसमे वादे’ में भी उन्होंने प्रोफेसर की भूमिका निभाई थी, लेकिन सर्वश्रेष्ठ भूमिका निभाई उन्होंने ‘ब्लैक’ में। देबराज सहाय के रूप में उन्होंने अंधी-गूँगी-बहरी लड़की मिशेल को शिक्षित करने की भूमिका निभाई। एक ऐसा शिक्षक जिसके सामने अत्यंत कठिन चुनौती है, लेकिन उसे अपने आप पर विश्वास रहता है। वह मिशेल को सिखाने के लिए दिन-रात भिड़ा रहता है। मिशेल के साथ उसकी जिंदगी में कई बार ऐसे लम्हे आते हैं, जब वह झुँझलाता है, गुस्सा करता है, दु:खी होता है, लेकिन हार नहीं मानता। ऐसे टीचर को सलाम करने का मन करता है। कुछ ऐसी ही भूमिका आमिर खान ने ‘तारे जमीं पर’ में निभाईं। एक टीचर का काम केवल पढ़ाना ही नहीं बल्कि अपने विद्यार्थी को समझना भी होता है। टीचर बने आमिर अपने विद्यार्थी दर्शील की समस्या की जड़ ढूँढते हैं, उसका निदान करते हैं और फिर उसकी खूबियों को उभारते हैं। एक अध्यापक और विद्यार्थी के रिश्ते पर आधारित यह बेहतरीन फिल्म है।

‘मैं हूँ ना’ में सुष्मिता सेन ने एक ग्लैमरस टीचर का रोल अदा किया था। चाँदनी चोपड़ा बनकर जिस अंदाज में वह क्लास में पढ़ाती थी उससे विद्यार्थियों का ध्यान पढ़ाई करने के बजाय आहे भरने में जाता था। सभी विद्यार्थी केवल चाँदनी को निहारने के लिए ही क्लास में बैठते थे। इस फिल्म में सभी अध्यापकों को नमूने के रूप में पेश किया गया था। कोई थूक उड़ाता था। कोई इतना बोलता था कि रूकने का नाम ही नहीं लेता था। कोई भुलक्कड़ था। सुष्मिता के मुकाबले में गायत्री जोशी ने फिल्म ‘स्वदेस’ में गीता के रूप में एक आदर्श टीचर की भूमिका निभाई थी। वह साधारण तरीके से रहती थी और गाँव में बच्चों को पढ़ाती थी। उसे अपनी मातृभूमि से प्यार था। यह किरदार जिंदगी के काफी करीब था।

‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ में मुन्नाभाई और बोमन ईरानी की नोकझोक काफी दिलचस्प थी। जेसी अष्ठाना के रूप में बोमन ने सराहनीय अभिनय किया था। मुन्नाभाई की हरकतों से अष्ठाना बेहद परेशान रहता है और उसे कॉलेज से निकालने की तरकीबें ढूँढता रहता है। ‘3 इडियट्‍स’ में भी बोमन प्रिंसीपल के रूप में नजर आए, जो बहुत ही ब्रिलियंट है, लेकिन छात्रों पर वह पढ़ाई के लिए दबाव बनाता है। जिंदगी को वह रेस का हिस्सा मानता है और उसकी नजर में ‍डॉक्टर या इंजीनियर बनना ही सब कुछ है। आमिर की सोच इससे अलग है और दोनों की टकराहट देखते ही बनती है। ‘कल किसने देखा’ में अध्यापक को विलेन के रूप में पेश किया गया। ऋषि कपूर साइंस टीचर है। अपने ज्ञान का वह दुरुपयोग कर खलनायकों के साथ मिल वह आतंक फैलाता है।

थोड़ा पीछे चलें तो ‘जागृति’ का नाम याद आता है। सत्येन बोस द्वारा निर्देशित यह फिल्म विद्यार्थी और अध्यापक के रिश्तों पर अच्छी रोशनी डालती है। इस फिल्म का एक गीत ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाए झाँकी हिन्दुस्तान की’ आज भी गुनगुनाया जाता है। राजकपूर द्वारा निर्देशित ‘मेरा नाम जोकर’ में टीनएज का विद्यार्थी अपनी टीचर सिमी ग्रेवाल को कपड़े बदलते हुए देख लेता है और उस पर मोहित हो जाता है।

बिगड़ैल विद्यार्थियों को सुधारने का जिम्मा विनोद खन्ना ने फिल्म ‘इम्तिहान’ में उठाया था। इस‍ फिल्म के विद्यार्थी इतने बदमाश थे कि वे अपने अध्यापक की एक लड़की के साथ आपत्तिजनक तस्वीरें खींच लेते हैं और उसे ब्लैकमेल करते हैं। कुछ इसी तरह का किस्सा फिरोज खान की फिल्म ‘अपराध’ में भी था। ‘सर’ के सर नसीरूद्दीन शाह गैंगवार में उलझ जाते हैं। ‘कोरा कागज’ में टीचर की फटीचर हालत को दिखाया गया था। इसमें प्रोफेसर बने विजय आनंद की शादी अमीर लड़की जया भादुड़ी से हो जाती है। ‘चुपके-चुपके’ में अमिताभ और धर्मेन्द्र दोनों प्रोफेसर थे। देव आनंद ‘हम नौजवान’ और राजकुमार ‘बुलंदी’ में बच्चों को ज्ञान की बातें पढ़ाते हुए नजर आए। ऐसे ही कुछ और उदाहरण भी हैं।

2010 में प्रदर्शित 'दो दूनी चार' एक शिक्षक के जीवन पर बनी बेहतरीन फिल्म है। एक आदर्श शिक्षक अपने जीवन में कितनी कठिनाई उठाता है इसका सटीक चित्रण फिल्म में देखने को मिलता है। ऋषि कपूर इस फिल्म में लीड रोल में थे। शिक्षक को सम्मान तो खूब मिलता है, लेकिन धन के मामले में उसका हाथ खाली ही रहता है। इसको लेकर परिवार में उसकी खूब खिंचाई होती है। यह फिल्म टीचर का एक अलग रूप दिखाती है। 

‘कुछ कुछ होता है’ और ‘शोला और शबनम’ जैसी कई फिल्मों में टीचरों का मजाक उड़ाया गया है। इनमें अनुपम खेर और अर्चना पूरणसिंह जैसे प्रोफेसर रहते हैं जो बेवकूफाना रोमांस करते रहते हैं। कॉलेज कैम्पस की पृष्ठभूमि पर बनी ज्यादातर फिल्मों में टीचर को एक कॉमेडियन के रूप में ही पेश किया जाता है।

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