Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia

रंगमंच व सिनेमा का सफर : नई पीढ़ी पर प्रभाव

रंगमंच व सिनेमा का सफर : नई पीढ़ी पर प्रभाव

अनिल शर्मा

अत्याधुनिक तकनीकी के विकास के मद्देनजर रंगमंच से लेकर आज के सिनेमाई सफर पर नजर डाली जाए तो लगता है कि हमने शुद्धता, सात्विकता, सरलता व सहजता को खोकर भौतिक-बनावटी दुनिया अपना ली है। आज के दौर की फिल्में (अपवादस्वरूप कुछ फिल्में छोड़कर) नई पीढ़ी में फैशनबाजी बढ़ाने में ज्यादा सक्रिय हैं। फिल्मी फैशन भी ऐसे कि कार्टून भी ठीक लगते हैं।
 
स्वाभाविक है कि घाटे का सौदा करना कोई पसंद नहीं करता इसलिए यदि कोई कला फिल्म भी बनाएगा तो उसमें एक-दो सिचुएशन ऐसी जरूर ठूंसेगा कि फिल्म के बिजनेस पर कोई इफेक्ट नहीं पड़ेगा। आधुनिकता ने फिल्मों को जहां सरपट दौड़ाया है, वहीं फिल्मों के बिजनेस ने हिंसा और नग्नता को बढ़ावा दिया है।
 
रंगमंच का प्रभाव
 
आज के सिनेमा से कल के रंगमंच जरूर साफ-सुथरे लगते हैं जिन्हें परिवार के साथ देखा जा सकता था। आज की फिल्में परिवार के साथ देखने से पहले सोचना पड़ता है कि फिल्म में बलात्कार, मर्डर वगैरह तो नहीं है? यह नहीं है कि पहले फिल्मों में ये नहीं थे, मगर खुलेआम नहीं थे। आज तो सेंसर भी ऐसे दृश्यों को कहानी की 'डिमांड' बताए जाने पर चुप्पी साध लेता है।
 
मुंबई की इलेक्ट्रिकल कंपनी में क्लर्क दादा साहब साहब तोरणे ने नाटक को फिल्म का रूप दिया और 18 मई 1912 को कोरोनेशन थिएटर में फिल्म का प्रदर्शन किया। फिल्म 2 हफ्ते चली भी लेकिन उसे उपयुक्त मान्यता नहीं मिल पाई। खैर, वह दौर विज्ञान के चमत्कार से दर्शकों को अभिभूत कराने का था यानी ये काल फिल्म का शैशवकाल था जबकि रंगमंच को अपना उत्तरार्द्ध नजर आ गया था। यह 1931 में फिल्मों को आवाज मिलने के बाद भी 1 दशक तक और चला।
 
फिल्म विधा तब अपने शैशवकाल में थी। अभिनय और प्रस्तुतीकरण के लिए रंगमंचीय स्थितियों को अपनाना उस दौर के फिल्मकारों के लिए जरूरी था और मजबूरी भी। उस दौर के सिनेमा में नाट्य संवादों का विशेषकर पारसी स्टाइल के संवादों का बोलबाला था। साधनों व तकनीक की कमी एक वजह थी, लिहाजा कलाकारों को रंगमंच की तरह एक सीमित दायरे में ही खुद को अभिव्यक्त करना पड़ता था। रिकॉर्डिंग की व्यवस्था काफी लचर थी। सवाक् फिल्मों में इसीलिए पात्रों को जोर-शोर से संवाद बोलने पड़ते थे। रंगमंचीय शैली का सबसे ज्यादा इस्तेमाल वी. शांताराम ने किया।
 
पारसी रंगमंच की समृद्धता
 
पारसी रंगमंच की समृद्ध परंपरा और लोकप्रियता पिछली सदी के 40वें दशक तक फिल्मकारों के लिए आकर्षण व प्रेरणा का केंद्र रही। यह अनायास ही नहीं है कि उस दौर के कलाकारों की संवाद अदायगी में पारसी रंगमंच की गहरी छाप दिखती थी। सोहराब मोदी ने तो इसे अपनी फिल्मों में भी ढाला। अपने आकर्षक व्यक्तित्व और बुलंद आवाज के बल पर उनके अलावा पृथ्वीराज कपूर, जगदीश सेठी, जयराज, वास्ती, उल्हास आदि ने रंगमंचीय अंदाज को फिल्मों में मान्यता दिलाई। एक एक्स्ट्रा के रूप में फिल्मी सफर शुरू करने वाले पृथ्वीराज कपूर की नाटकों में इतनी गहरी रुचि थी कि फिल्मों से ज्यादा उन्होंने रंगमंच पर काम करने को प्राथमिकता दी।
 
अंग्रेजों के शासनकाल में भारत की राजधानी जब कलकत्ता (1911) थी, वहां 1854 में पहली बार अंग्रेजी नाटक मंचित हुआ। इससे प्रेरित होकर नवशिक्षित भारतीयों में अपना रंगमंच बनाने की इच्छा जगी। मंदिरों में होने वाले नृत्य, गीत आदि आम आदमी के मनोरंजन के साधन थे। इनके अलावा रामायण तथा महाभारत जैसी धार्मिक कृतियों, पारंपरिक लोक नाटकों, हरिकथाओं, धार्मिक गीतों, जत्राओं जैसे पारंपरिक मंच प्रदर्शनों से भी लोग मनोरंजन करते थे। पारसी थिएटर से लोक रंगमंच का जन्म हुआ। एक समय में संपन्न पारसियों ने नाटक कंपनी खोलने की पहल की और धीरे-धीरे यह मनोरंजन का एक लोकप्रिय माध्यम बनता चला गया। इसकी जड़ें इतनी गहरी थीं कि आधुनिक सिनेमा आज भी इस प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है।
 
फिल्म बोली-रंगमंच अवरोह
 
फिल्मों को आवाज मिलने के बाद से कई मौकों पर रंगमंच का असर फिल्मों में दिखा है, लेकिन जैसे-जैसे फिल्मों की तकनीकी विकसित होने लगी, रंगमंच का सफर अवरोह यानी उतार पर आने लगा। ये कोई 1-2 दिन में नहीं हो गया। आधुनिक तकनीकी आने के बावजूद बरसों तक फिल्में नाटकों पर निर्भर रहीं। 1931 में तमिल में बनी पहली बोलती फिल्म 'कालिदास' में नाटक को हूबहू उठाकर उसे फिल्मी शक्ल दी गई। 1948 में उदय शंकर ने भारत की पहली और अब तक की एकमात्र बैले फिल्म 'कल्पना' बनाई। उसमें अभिनय भी किया। यह नृत्य नाटिका दर्शकों को ज्यादा रास नहीं आई लेकिन राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसे खासी ख्याति मिली। 
 
पिछले कुछ दशकों में नाटकों का फिल्मी रूपांतरण करने में फिल्मकारों ने कम ही रुचि दिखाई है। रंगमंच की दुनिया में झांकने की ज्यादा कोशिश नहीं हुई है। रंगमंच पर बेहद चर्चित रहे- 'शांतता कोर्ट चालू आहे', 'घासीराम कोतवाल', 'चरणदास चोर' जैसे नाटकों की फिल्मी रूपांतरण फ्लॉप होना शायद इसकी वजह है। मंचन का रिकॉर्ड बना चुका नाटक 'तुम्हारी अमृताह्ण' फिल्मी रूप नहीं ले पाया है तो शायद इसलिए कि उसकी व्यावसायिक सफलता संदिग्ध लगती है।
 
समानांतर सिनेमा
 
पर्दे की दुनिया का सफर अपनी गति से चलता रहा और इस दुनिया के युगों में भी परिवर्तन होता रहा। ऐतिहासिक युग, धार्मिक, सामाजिक युग आदि-इत्यादि के साथ ही इसमें समानांतर युग भी आ गया, जब व्यावसायिक सिनेमा की मुख्य धारा से हटकर एक नए विकल्प के रूप में इसे देखा गया। इसे भारतीय सिनेमा का एक नया आंदोलन कहा जाता है। इस तरह के सिनेमा में एक नए अंदाज में सामाजिक और राजनीतिक घटनाक्रमों को सेल्यूलाइड पर उतारने की कोशिश की जाती है।
 
जापान और फ्रांस के सिनेमा में यथार्थवादी दृष्टिकोण की फिल्मों को मिली सफलता से प्रेरणा लेकर सबसे पहले बंगाली सिनेमा में समानांतर सिनेमा का प्रवेश सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक घटक जैसे फिल्मकारों के जरिए हुआ। ये नहीं है कि यथार्थवादी सिनेमा को बिजनेस नहीं मिला, बल्कि कई फिल्मों ने तो अनेक पुरस्कार भी हासिल किए। फिर भी समानांतर सिनेमा की गति कम होती रही और फिल्मकार ऐसी फिल्में बनाने में जुट गए, जो ज्यादा से ज्यादा बिजनेस और प्रॉफिट दे सके। आज के दौर की फिल्म देखकर ऐसा लगता है कि दृश्यों की साफ-सफाई की बजाए किसी बच्चे ने कैनवास पर रंगों के डिब्बे बिखेरकर सत्यानाश कर दिया है। (अपवादस्वरूप आज भी कुछ फिल्में जरूर देखने योग्य कही जा सकती हैं।)
 
आज की फिल्मों की हिंसा और नग्नता कहानी की 'डिमांड' कही जाती है। सिनेमाकार दुनिया में जो हो रहा है, वे दिखाने की बात कहते हैं तो दुनिया कहती है कि सिनेमा व टीवी बच्चों को बिगाड़ रहे हैं। सामंजस्यता का दोनों में अभाव है। फिर भी ये कहा जाए कि नवयुगीन बच्चों को बिगाड़ने में टीवी और सिनेमा का अंधानुकरण या फैशन की अंधी दौड़ ने आज की किशोर और युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट करने की ठान रखी है। फिल्में अच्छी भी बन रही हैं, लेकिन आज की पीढ़ी की नजरें केवल पर्दे पर हैं कि दीपिका या प्रियंका ने कैसी साड़ी पहनी है व रणवीर, सलमान ने कैसे टैटू बनवाए हैं या किस हीरो ने अपने बाल किस स्टाइल में कटवाए हैं या किस हीरोइन ने घुटने तक कौन सी ड्रेस पहनी है? 
 

Share this Story:

Follow Webdunia gujarati

આગળનો લેખ

केदारनाथ की सफलता के बाद चमकी सुशांत सिंह राजपूत की किस्मत, मिले 12 फिल्मों के ऑफर