ट्रेलर बनाए ही इसीलिए जाते हैं ताकि फिल्म, कहानी, अभिनय, एक्शन आदि बातों की झलक दिखलाई जा सके। उसी के आधार पर दर्शक मानसिक रूप से तैयार होते हैं कि वे किस तरह की फिल्म देखने वाले हैं। कुछ समझदार दर्शक ट्रेलर देख कर ही फैसला ले लेते हैं कि फिल्म वे देखेंगे या नहीं। इसीलिए ट्रेलर पर फिल्म से भी ज्यादा मेहनत की जाती है।
विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म 'शिकारा' का जब ट्रेलर रिलीज हुआ तो ट्रेलर में इस बात की झलक मिली कि यह कश्मीरी पंडितों की कहानी है जिन्हें 30 बरस पहले मजबूरी में कश्मीर छोड़ना पड़ा था। लिहाजा यह अंदाजा लगाना आसान रहा कि फिल्म इस मुद्दे पर आधारित है।
रिलीज के पहले प्रचार-प्रसार के दौरान विधु ने कहा भी कि यह फिल्म उन्होंने अपनी मां के लिए बनाई है जिन्हें भी कश्मीर छोड़ना पड़ा था और वे फिर कभी वहां पर नहीं जा पाईं। कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अन्याय और उनके दर्द की दास्तां इस फिल्म में है, ये विधु की बातों से महसूस हुआ।
'शिकारा' देखने के बाद दर्शक ठगे रह गए। उन्हें आभास हुआ कि माल कुछ और दिखाया गया और पैक कुछ और कर दिया गया। फिल्म में एक प्रेम कहानी दिखाई गई है जो 30 वर्षों तक फैली हुई है। प्रेम कहानी पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन इस प्रेम कहानी के बैकड्रॉप में कश्मीरी पंडितों वाला मुद्दा है।
होना यह चाहिए था कि कश्मीरी पंडितों वाले मुद्दे की पृष्ठभूमि में लव स्टोरी होनी थी। कश्मीरी पंडितों वाला मुद्दा दब गया। उनके साथ हुए अन्याय और दर्द की दास्तां वाली बात उभर ही नहीं पाई।
किसी भी मुद्दे पर फिल्म इसलिए बनाई जाती है ताकि उस मुद्दे से जुड़ी ऐसी बातें सामने लाई जाए जो बहुत कम लोगों को पता हो। इसलिए बहुत रिसर्च की जाती है, लेकिन 'शिकारा' में कोई भी नई बात पता नहीं चलती।
इस फिल्म में दिखाई गईं बातें ऐसी हैं जो सभी को पता है। कश्मीरी पंडितों को धमकी दी गई और उन्होंने कश्मीर छोड़ दिया। आखिर ऐसा क्यों किया गया? क्यों कुछ लोग भड़के हुए थे? पाकिस्तान की इसमें क्या भूमिका थी? क्यों तत्कालीन सरकार उस स्थिति पर नियंत्रण नहीं कर पाई? क्यों कश्मीरी पंडितों को अब तक न्याय नहीं मिला?
ये सारे प्रश्न अनुत्तरित रह गए। जवाब मिले भी तो सतही। ऐसे में लोगों का भड़कना सही लगता है।