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देखो बिहार के दिल में क्या है .... डीएनए में क्या है?

जयदीप कर्णिक
इस्पात भी जब इस्पात से टकराता है तो चिंगारियाँ निकलती हैं। वो नीचे कहाँ गिरेंगी और क्या जलेगा पता नहीं होता। ठीक ऐसे ही जब अहं से अहं टकराता है तो भी घर्षण होता है... बहुत तगड़ा ...और चिंगारियाँ भी निकलती हैं। निर्भर इस पर करता है कि टकराने वाले व्यक्तित्व कैसे हैं और कौन हैं। चिंगारियाँ भी आसानी से दिखाई नहीं पड़तीं। अहं के इस टकराव पर ही वक्त ने करवट ली है और इतिहास रचे गए हैं।
 
आज यानी आठ नवंबर 2015 को भी पाटलिपुत्र में अहं के टकराव से निकली चिंगारियों से इतिहास लिखा गया....। विधानसभा चुनावों में महागठबंधन की जीत के नायक बनकर उभरे हैं नीतीश कुमार। प्रत्यंचा पर चढ़ा हुआ बिहार छूटकर सीधे महागठबंधन की झोली में जा गिरा है। सीटें भले ही लालू के पास ज़्यादा हैं मगर वो चुपचाप (फिलहाल) महागठबंधन के पीछे लामबंद हैं।
 
अहं की इस लड़ाई का पहला अध्याय मई 2014 में लिखा गया था। निश्चित ही उसका कैनवास कहीं ज़्यादा बड़ा था। देशव्यापी था। पर नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार के बीच अहं की लड़ाई का पहला दौर था वही। मैदान देश का था और लहर मोदी की थी जो ब्लोअर से नहीं वोटिंग मशीनों से भी निकली और नीतीश को उड़ाकर ले गई। इसकी टीस नीतीश को इतनी गहरी चुभी की उन्होंने ख़ुद ही अपने वनवास की घोषणा कर दी। मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी और जीतनराम माँझी को मुख्यमंत्री बना दिया। लगभग एक साल लगा उनको ख़ुद को संभालने में। पर वो संभले और इससे पहले कि माँझी और भाजपा की गलबहियाँ आगे बढें, नीतीश  कुमार ने फिर कुर्सी संभाल ली। ना केवल कुर्सी संभाली बल्कि अगले दौर में हार का बदला लेने के लिए निश्चयपूर्वक जुट गए। कुछ अहम फैसले जो उन्होंने लिए –
 
1. अपने बहुत पुराने साथी पर पिछले कई वर्षों के कट्टर दुश्मन लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया। विषपान और भुजंग के बयानों के बावजूद दोनों को ही समझ में आ गया था कि ये राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई है और सारे गिले–शिकवे भुलाकर एक होना ही होगा। नीतीश के लिए तो ये अहं की लड़ाई भी थी और इसके लिए वो बाकी दूसरे समझौते करने को तैयार थे। उन्होंने दूरदृष्टि रखते हुए अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार होने की बात भी पहले ही मनवा ली और लालू को 100 सीटें देने को भी तैयार हो गए। 
 
2. कांग्रेस को भी अपने साथ मिलाया और उसके अलग से चुनाव लड़ने की स्थिति में हो सकने वाले वोटों के बँटवारे को भी रोक लिया। जिस देश की राजनीति में विपक्ष कांग्रेस के विरोध के नाम पर लामबंद होता आया हो वहाँ कांग्रेस को एक सहयोगी के रूप में जोड़ने का कमाल उन्होंने किया और भाजपा विरोध के नए राजनीतिक एजेंडा के सूत्रधार भी बने। 
 
3. 2014 के आम चुनावों में भाजपा की जीत के प्रमुख रणनीतिकार प्रशांत किशोर को अपनी ओर किया और अपने महागठबंधन के प्रचार का जिम्मा सौंपा। ये निर्णय बहुत समझदारी भरा और दूरगामी साबित हुआ। 
 
4. अपनी ओर से कोई नकारात्मक बात नहीं की। सामने से होने वाले हमलों का जवाब ज़रूर दिया पर ख़ुद ऐसा करने से बचते रहे। 
 
5. सोशल इंजीनियरिंग में भी बहुत बारीकी से अपने वोट बैंक को संभाला और राजद और कांग्रेस की ताकत का भी इस्तेमाल किया।
 
6. डीएएनए, आरक्षण और गौमाँस के तीरों को उन्होंने कुशलता से उलटा घुमा दिया। 
 
7. जंगलराज – 2 के प्रचार को हावी नहीं होने दिया। 
 
जीत के बाद अपनी पहली पत्रकार वार्ता में जब वो अपने सामने लगे मीडिया के माइक के ढेर को बारी-बारी से लालू यादव और कांग्रेस के अशोक चौधरी की ओर ख़िसका रहे थे तो ये समझ आ रहा था की इस महाजीत को जज़्ब करने की परिपक्वता वो जुटा रहे हैं। 
 
... तो अहं की इस लड़ाई में दो व्यक्तित्वों के अहं का इस्पात जब टकराया तो प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से किया गया बिहार के डीएनए का वार बिहारियों को बहुत मर्मांतक चोट पहुँचा गया। नीतीश ने इस ज़ख़्म को उभारने में और फिर उस पर मरहम लगाने में जरा भी देर नहीं की। बाहरी और बिहारी की पट्टी भी तुरंत उस पर लपेट दी। नतीजा सामने है...। नीतीश की साख और बिहार के स्वाभिमान से पगे बिहारी ने महागठबंधन की महाजीत की इबारत लिख दी। 
 
भाजपा की दिक्कत ये है कि उसकी सबसे बड़ी ताकत भी नरेन्द्र मोदी हैं और सबसे बड़ी कमज़ोरी भी। दिल्ली में भी मोदीजी और केजरीवाल का अहं टकराया था। ऐन वक्त पर किरण बेदी को आगे कर देने के बाद भी हार उनकी ही हुई थी। उससे उलटा सबक लेकर बिहार में कोई किरण बेदी नहीं खड़ी की, पर सबक तो ये था कि क्षेत्रीय नेतृत्व को आगे किया जाना बहुत ज़रूरी था। - सचिन तेंदुलकर कितने ही अच्छे खिलाड़ी हों – एक से ग्यारह तक वो ही नहीं खेल सकते। तुरुप के इक्के को हर बार दाँव पर नहीं लगाया जा सकता। कैडर और ज़मीनी पकड़ की बात करने वाली पार्टी जुमलों और छिछले प्रहारों में उलझ जाए तो ये अफसोसजनक है। लालू को एक मसखरे के रूप में देखकर हल्के में लेना भी भाजपा को भारी पड़ा। ये सोच कि लालू के जंगलराज से डराकर वो नीतीश को भी रोक लेंगे, बिलकुल ग़लत साबित हुई।
 
बहरहाल, अहं की इस लड़ाई में कैनवास अलग होने के बाद भी बात 1-1 पर आ गई है। पर बात ख़त्म नहीं हुई है। अभी सवाल भी कई हैं–
 
1. क्या जीत की इस नींव पर खड़े होकर नीतीश कुमार भाजपा विरोध के तमाम झंडों को देश के स्तर पर भी गोलबंद कर पाएँगे?
 
2. क्या इस गोलबंदी में फिर नीतिश-लालू की राष्ट्रीय राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं नहीं टकराएँगी? 
 
3. क्या लालू सबसे बड़े दल के नेता होने के बाद भी शांति से नीतीश को काम करने देंगे? 
 
4. क्या भाजपा इससे सबक लेकर उत्तर प्रदेश, बंगाल और तमिलनाडु में अपनी रणनीति में आमूलचूल परिवर्तन कर पाएगी?
 
5. क्या बिहार अब विकास की राह पर निर्बाध आगे बढ़ पाएगा या केवल अहं की लड़ाई का अखाड़ा बना रहेगा? 
 
फिलहाल तो इस चुनाव का हासिल यही है कि – 
1. देश में गठबंधन की राजनीति अभी ख़त्म नहीं हुई है। 
2. देश का मतदाता राष्ट्रीय और स्थानीय राजनीति में अलग-अलग सोचता है, परिपक्व है और अपने हिसाब से वोट देता है। 
3. अब परिणाम निर्णायक ही होते हैं, ख़ास तौर पर ज़्यादा सीटों के मामले में। त्रिशंकु स्थिति अब नहीं बनती। 
4. विचारधाराओं के नाम पर राजनीतिक स्वार्थ की लड़ाई अब और तेज़ होगी। छिपकर और सामने से, दोनों ही तरह से प्रहार होंगे। 
5. बिहार के परिणाम ना केवल संसद के शीतकालीन सत्र को वरन देश की राजनीति को प्रभावित किए बिना नहीं रहेंगे। 
 
तो बिहार में बहार की उम्मीदों के साथ इस वक्त तो हम नीतीश कुमार को बधाई देते हैं और उम्मीद करते हैं कि वो अहंकार से बचेंगे क्योंकि – बादशाह तो वक़्त है –अच्छे में अहंकार से बचो और बुरे में अवसाद से। 
 

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