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कोरोना वायरस का पता लगाने वाली महिला कौन थी?

कोरोना वायरस का पता लगाने वाली महिला कौन थी?
, गुरुवार, 16 अप्रैल 2020 (11:36 IST)
मनुष्यों में पहली बार कोरोना वायरस की खोज करने वाली महिला स्कॉटलैंड के एक बस ड्राइवर की बेटी थीं जिन्होंने 16 वर्ष की आयु में स्कूल छोड़ दिया था। उनका नाम था जून अलमेडा जो वायरस इमेजिंग क्षेत्र के चर्चित लोगों की फ़ेहरिस्त में अपना नाम लिखना चाहती थीं।
 
लेकिन कोविड-19 महामारी के समय में जून के काम की चर्चा हो रही है और उनकी खोज चर्चा के केंद्र में है।
कोविड-19 एक नया वायरस है, लेकिन यह कोरोना वायरस का ही एक प्रकार जिसकी खोज डॉक्टर अलमेडा ने सबसे पहले, वर्ष 1964 में लंदन के सेंट थॉमस अस्पताल में स्थित लैब में की थी।

वायरोलॉजिस्ट जून अलमेडा का जन्म वर्ष 1930 में हुआ था। स्कॉटलैंड के ग्लासगो शहर के उत्तर-पूर्व में स्थित एक बस्ती में रहने वाले बेहद साधारण परिवार में उनका जन्म हुआ।
 
16 साल की उम्र में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद जून ने ग्लासगो शहर की ही एक लैब में बतौर तकनीशियन नौकरी की शुरुआत की थी। बाद में वे नई संभावनाएं तलाशने के लिए लंदन चली गईं और वर्ष 1954 में उन्होंने वेनेज़ुएला के कलाकार एनरीके अलमेडा से शादी कर ली।
 
सामान्य सर्दी-ज़ुखाम पर रिसर्च
मेडिकल क्षेत्र के लेखक जॉर्ज विंटर के अनुसार शादी के कुछ वर्ष बाद ये दंपति उनकी युवा बेटी के साथ कनाडा के टोरंटो शहर चला गया था।
 
कनाडा के ही ओंटारियो केंसर इंस्टीट्यूट में डॉक्टर जून अलमेडा ने एक इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप के साथ अपने उत्कृष्ट कौशल को विकसित किया। इस संस्थान में काम करते हुए उन्होंने एक ऐसी विधि पर महारत हासिल कर ली थी जिसकी मदद से वायरस की कल्पना करना बेहद आसान हो गया था।
 
लेखक जॉर्ज विंटर ने बीबीसी को बताया कि 'यूके ने डॉक्टर जून अलमेडा के काम की अहमियत को समझा और साल 1964 में उनके सामने लंदन के सेंट थॉमस मेडिकल स्कूल में काम करने का प्रस्ताव रखा। ये वही अस्पताल है जहाँ कोविड-19 से संक्रमित होने के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का इलाज हुआ।
 
कनाडा से लौटने के बाद डॉक्टर अलमेडा ने डॉक्टर डेविड टायरेल के साथ रिसर्च का काम शुरू किया जो उन दिनों यूके के सेलिस्बरी क्षेत्र में सामान्य सर्दी-ज़ुखाम पर शोध कर रहे थे।

जॉर्ज विंटर ने बताया कि डॉक्टर टायरेल ने ज़ुखाम के दौरान नाक से बहने वाले तरल के कई नमूने एकत्र किये थे और उनकी टीम को लगभग सभी नमूनों में सामान्य सर्दी-जुख़ाम के दौरान पाये जाने वाले वायरस दिख रहे थे।
लेकिन इनमें एक नमूना जिसे बी-814 नाम दिया गया था और उसे साल 1960 में एक बोर्डिंग स्कूल के छात्र से लिया गया था, बाकी सबसे अलग था।
 
कोरोना वायरस नाम किसने दिया
डॉक्टर टायरेल को लगा, क्यों ना इस नमूने की जाँच डॉक्टर जून अलमेडा की मदद से इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप के ज़रिए की जाए। यह सैंपल जाँच के लिए डॉक्टर अलमेडा के पास भेजा गया जिन्होंने परीक्षण के बाद बताया कि 'ये वायरस इनफ़्लूएंज़ा की तरह दिखता तो है, पर ये वो नहीं, बल्कि उससे कुछ अलग है।' और यही वो वायरस है जिसकी पहचान बाद में डॉक्टर जून अलमेडा ने कोरोना वायरस के तौर पर की।
 
जॉर्ज विंटर कहते हैं कि डॉक्टर अलमेडा ने दरअसल इस वायरस जैसे कण पहले चूहों में होने वाली हेपिटाइटिस और मुर्गों में होने वाली संक्रामक ब्रोंकाइटिस में देखे थे।

विंटर बताते हैं कि जून का पहला रिसर्च पेपर हालांकि यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया गया था कि 'उन्होंने इन्फ़्लूएंज़ा वायरस की ही ख़राब तस्वीरें पेश कर दी हैं।'

लेकिन सैंपल संख्या बी-814 से हुए इस नई खोज को वर्ष 1965 में प्रकाशित हुए ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में और उसके दो वर्ष बाद जर्नल ऑफ़ जेनेरल वायरोलॉजी में तस्वीर के साथ प्रकाशित  किया गया।
 
जॉर्ज विंटर के अनुसार वे डॉक्टर टायरेल, डॉक्टर अलमेडा और सेंट थॉमस मेडिकल संस्थान के प्रोफ़ेसर टोनी वॉटरसन थे जिन्होंने इस वायरस की ऊंची-नीची बनावट को देखते हुए ही इस वायरस का नाम कोरोना वायरस रखा था।
 
बाद में डॉक्टर अलमेडा ने लंदन के पोस्टग्रेजुएट मेडिकल कॉलेज में काम किया। वहीं से उन्होंने अपनी डॉक्ट्रेट की पढ़ाई पूरी की। अपने करियर के अंतिम दिनों में डॉक्टर जून अलमेडा वैलकॉम इंस्टिट्यूट में थीं जहाँ उन्होंने इमेजिंग के ज़रिए कई नए वायरसों की पहचान की और उनके पेटेंट अपने नाम करवाए।
 
वैलकॉम इंस्टिट्यूट से रिटायर होने के बाद डॉक्टर अलमेडा एक योगा टीचर बन गई थी। लेकिन 1980 के दशक में उन्हें संरक्षक के तौर पर एचआईवी वायरस की नोवल तस्वीरें लेने के लिए बुलाया गया था। साल 2007 में जून अलमेडा का देहांत हुआ। उस समय वे 77 वर्ष की थीं।
 
अब उनकी मृत्यु के 13 साल बाद उन्हें और उनके काम को वाक़ई वो मान्यता मिल रही है जिसकी वे हक़दार थीं। एक बेमिसाल रिसर्चर के तौर पर उन्हें याद किया जा रहा है क्योंकि उनकी रिसर्च की वजह से ही मौजूदा समय में दुनिया भर में फैले कोरोना वायरस संक्रमण को समझने में मदद मिल रही है।

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