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अरब देश क्यों कम कर रहे हैं तेल उत्पादन, भारत पर क्या हो सकता है असर?

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मंगलवार, 4 अप्रैल 2023 (08:46 IST)
दिलनवाज़ पाशा, बीबीसी संवाददाता
 
दुनिया के कई बड़े तेल उत्पादकों के अचानक तेल उत्पादन में कटौती की घोषणा करने के बाद कच्चे तेल के दाम बढ़ रहे हैं। सोमवार को कारोबार शुरू होने के शुरुआती घंटों में ही ब्रेंट क्रूड तेल के दाम प्रति बैरल 5 डॉलर तक बढ़ गए। यानी क़रीब 7 फ़ीसदी की वृद्धि के साथ दाम 85 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गए।
 
रविवार को सऊदी अरब, इराक और खाड़ी के कई अन्य देशों ने प्रतिदिन तेल उत्पादन को दस लाख बैरल तक कम करने की घोषणा की थी। इस घोषणा के बाद से ही अंतरराष्ट्रीय तेल बाज़ार में उथल-पुथल है।
 
पिछले साल फ़रवरी में जब रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया था तो कच्चे तेल के दामों में भारी उछाल आया था। एक समय कच्चे तेल के दाम 130 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गए थे। लेकिन अब कच्चे तेल के दाम युद्ध शुरू होने से पहले के स्तर पर पहुंच गए थे।
 
तेल के दाम बढ़ने की वजह से पिछले साल दुनियाभर में महंगाई बढ़ गई थी। तेल आयात पर निर्भर देशों की अर्थव्यवस्था पर व्यापक असर हुआ था। कई देशों में आम लोगों के लिए रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरा करना मुश्किल हो गया था।
 
वहीं अमेरिका ने तेल उत्पादकों से उत्पादन बढ़ाये रखने की अपील की है ताकि तेल के दाम कम रहें। तेल उत्पादन में कटौती की घोषणा पर प्रतिक्रिया देते हुए अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की प्रवक्ता ने कहा है, "हमें लगता है कि बाज़ार की मौजूदा अनिश्चितता को देखते हुए उत्पादन में कटौती सही नहीं है और हमने ये बात स्पष्ट की है।"
 
विश्लेषक मानते हैं कि तेल के दाम अगर बढ़े तो महंगाई को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाएगा। अगर तेल के दामों में तेज़ी आई तो यातायात सेवाओं के दाम बढ़ सकते हैं।
 
ओपेक से जुड़े देशों ने रविवार को कटौती की घोषणा की है। रूस ने पहले से ही अपने तेल उत्पादन में पांच लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती की हुई है।
 
तेल उत्पादन में ये कटौती ओपेक प्लस के सदस्य देशों ने की है। दुनियाभर में कुल कच्चे तेल का 40 प्रतिशत उत्पादन ओपेक समूह देशों में ही होता है।
 
सऊदी अरब 5 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती करने जा रहा है। इराक़ 2 लाख 11 हज़ार बैरल प्रतिदिन की कटौती करेगा। इसके अलावा संयुक्त अरब अमीरात, ओमान, कुवैत और अल्जीरिया भी उत्पादन कम करने जा रहे हैं।
 
सऊदी अरब की अधिकारिक समाचार सेवा अरब न्यूज़ के मुताबिक सऊदी अरब ने एक बयान में कहा है कि ये क़दम तेल बाज़ार की स्थिरता को ध्यान में रखते हुए एहतियातन उठाया जा रहा है।
 
वहीं कुवैत के तेल मंत्री बदर अल मुल्ला ने भी एक बयान में कहा है कि तेल उत्पादन कम करने का फ़ैसला एहतियातन लिया गया है।
 
रूस के उप प्रधानमंत्री एलेक्सेंडर नोवाक ने एक बयान में कहा है कि "ओपेक प्लस तेल उत्पादन में कटौती करने के लिए इसलिए तैयार हुआ है क्योंकि बाजार अस्थिर है और वैश्विक बाज़ार में ज़रूरत से अधिक तेल उपलब्ध है।"
 
यूक्रेन युद्ध, अमेरिका और यूरोप में बैंकिंग संकट के बीच वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी की आशंका बढ़ रही है। यदि वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी आती है तो इससे तेल की खपत कम हो सकती है।
 
विश्लेषक मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर मंदी की आशंकाओं के मद्देनज़र तेल उत्पादक देश तेल का उत्पादन कम कर रहे हैं ताकि तेल के दामों को स्थिर रखा जा सके।
 
हालांकि तेल बाज़ार का विश्लेषण करने वाली फ़र्म वंदा इनसाइट्स की संस्थापक वंदना हरी ने समाचार एजेंसी रायटर्स से बात करते हुए कहा है, "एहतियातन या नुक़सान को रोकने के तर्क को मानना आसान नहीं है, ख़ासकर इस समय जब ब्रेंट क्रूड के दाम फिर से 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गए हैं। मार्च में कच्चे तेल के दाम पिछले पंद्रह महीनों में सबसे निचले स्तर पर हैं।"
 
क्यों कटौती कर रहे हैं अरब देश?
तेल उत्पादक देश ये तर्क दे रहे हैं कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में अस्थिरता को देखते हुए ये क़दम अहतियातन उठाया जा रहा है। हालांकि विश्लेषक मानते हैं कि इसकी वजह कुछ और भी हो सकती है।
 
जाने माने ऊर्जा विशेषज्ञ नरेंद्र तनेजा कहते हैं, "लगभग 16 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती उत्पादन में होगी और ये मई से लागू हो जाएगी।"
 
तेल उत्पादन में कटौती का ये फ़ैसला ऐसे समय में लिया गया है जब अमेरिका का स्ट्रेटेजिक रिज़र्व (आपात स्थिति के लिए तेल का भंडार) बेहद कम स्तर पर है। अपने भंडार को भरने के लिए अमेरिका को बड़ी मात्रा में तेल ख़रीदना पड़ रहा है। अगर तेल की क़ीमतें बढ़ती हैं तो अमेरिका को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था पहले से ही मंदी की आहट झेल रही है। अब अगर तेल के दाम और बढ़े तो अमेरिका को और अधिक ख़र्च करना होगा।
 
नरेंद्र तनेजा कहते हैं, "तेल उत्पादक देश ये दिखा रहे हैं कि अब हम अपनी मर्ज़ी से क़ीमतें निर्धारित करेंगे और उत्पादन तय करेंगे। किसी के दबाव में नहीं आएंगे। पहले सऊदी अरब अमेरिका के प्रभाव में रहता था लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि सऊदी अमेरिका को ये संकेत दे रहा है कि वो अपने तेल के मामले में अपनी मर्ज़ी का मालिक है।"
 
बदल रही है दुनिया की तेल व्यवस्था
विश्लेषक इस नए घटनाक्रम में दुनिया की तेल व्यवस्था में बड़े बदलाव के संकेत भी देख रहे हैं।
 
नरेंद्र तनेजा कहते हैं, "यूक्रेन युद्ध के बाद से अंतरराष्ट्रीय तेल व्यवस्था अस्थिर हो गई है। युद्ध से पहले तेल की व्यवस्था और बाज़ार स्थिर था। लेकिन यूक्रेन युद्ध के बाद तेल का हथियारीकरण हुआ है। पश्चिमी देशों ने रूस के तेल पर प्रतिबंध लगा दिया। रूस ने अपने तेल के दाम कम किए तो यूरोपीय देशों ने इसकी ख़रीद पर रोक लगा दी ताकि ये यूरोपीय बाज़ार में बिके ही ना। यूक्रेन युद्ध ने तेल की व्यवस्था को उथल-पुथल कर दिया और कोई नई व्यवस्था बन नहीं पाई।"
 
तनेजा कहते हैं, "सऊदी अरब, इराक, कुवैत और अन्य देशों ने किसी की परवाह किए बिना अपना तेल उत्पादन रोक दिया। ओपेक की बैठक से पहले ही इन देशों ने ये घोषणा कर दी। इन देशों ने ये भी नहीं सोचा कि इसका पश्चिम पर क्या असर होगा। 16 लाख बैरल प्रतिदिन कटौती करने का फ़ैसला इस बात का संकेत है कि एक नई अंतरराष्ट्रीय तेल व्यवस्था का जन्म हो रहा है। हालांकि इसकी रूपरेखा क्या होगी ये कहना मुश्किल है।"
 
तेल उत्पादक देशों के इस फ़ैसले के बाद अगर क़ीमतें और बढ़ीं तो दुनिया के कई हिस्सों पर महंगाई की मार पड़ सकती है। तेल उत्पादक देशों ने इकतरफ़ा कटौती का ऐलान करके ये भी स्पष्ट किया है कि अब वो किसी के दबाव में नहीं है। तनेजा कहते हैं, "अमेरिका और पश्चिमी देश इस पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं ये अभी देखना होगा।"
 
भारत पर क्या हो सकता है असर?
भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता है। अमेरिका और चीन के बाद भारत सबसे बड़ा बाज़ार है।
 
नरेंद्र तनेजा कहते हैं, "ज़ाहिर है अगर तेल का उत्पादन कम होता है और अगर उससे तेल की क़ीमत बढ़ती है तो उसका सीधा असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था तेल पर ही आधारित है।"
 
भारत के रूस और सऊदी अरब से सामरिक संबंध हैं, ऐसे में अगर तेल के दाम बढ़ेंगे भी तब भी भारत को तेल मिलता रहेगा।
 
भारत यूक्रेन युद्ध से पहले सिर्फ़ अपना दो प्रतिशत तेल रूस से ख़रीदता था लेकिन अब भारत 27 फ़ीसदी तेल रूस से ख़रीद रहा है। भारत के रूस से ऐतिहासिक संबंध भी रहे हैं। लेकिन विश्लेषक मानते हैं कि इस बदलाव के पीछे दोनों देशों के रिश्तों के मुक़ाबले ज़रूरतें अधिक हैं।
 
तनेजा कहते हैं, "रूस तेल का बड़ा निर्यातक और उत्पादक है। पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद रूस को नए बाज़ार की ज़रूरत थी और भारत को सस्ते तेल की। ऐसे में तेल का कारोबार दोनों देशों के लिए फायदेमंद हैं। भारत को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के मुक़ाबले सस्ते में तेल मिला। इसके अलावा रूस ने इस तेल को भारत के बंदरगाहों तक पहुंचाया। भारत को भुगतान करने में भी रूस की तरफ़ से राहत मिली। भारतीय अर्थव्यवस्था तेल की बढ़ती क़ीमतों से जूझ रही थी। रूस से मिले सस्ते तेल से भारत को निश्चित रूप से राहत मिली है।"
 
भारत ने पश्चिमी देशों की आलोचना को दरकिनार करके रूस का तेल ख़रीदा है, क्योंकि ये भारत की ज़रूरत है। हालांकि भारत के सामने बड़ा सवाल ये है कि उसे रूस से सस्ती दरों पर तेल कब तक मिलता रहेगा।
 
तनेजा कहते हैं, "भारत के अलावा दुनिया के कई और देश रूस का तेल ख़रीद रहे हैं। दुनिया के 80 फ़ीसदी देश ऐसे हैं जो तेल आयात करते हैं। तुर्की, पाकिस्तान और मोरक्को जैसे देश अब रूस से तेल ख़रीद रहे हैं। ऐसे में जैसे-जैसे रूस का बाज़ार बढ़ेगा, भारत को मिल रही छूट कम होती जाएगी।"
 
क्या बढ़ेंगे तेल के दाम?
तेल के दाम भविष्य में क्या होंगे ये कहना मुश्किल होता है। तेल के दाम कई कारणों पर निर्भर करते हैं। ऐसे में सवाल ये उठता है कि अगर उत्पादन कम हुआ तो क्या अगले कुछ महीनों में तेल के दाम क्या बहुत ज़्यादा बढ़ सकते हैं। विश्लेषक मानते हैं कि ऐसा होना मुश्किल है।
 
नरेंद्र तनेजा कहते हैं, "ये अनुमान लगाया जा सकता है कि अगले तीन महीनों के दौरान तेल 80 से 90 डॉलर प्रति बैरल के बीच रहेगा। अगर तेल 90 डॉलर तक पहुंचता है तो भारत जैसी अर्थव्यवस्था को परेशानी तो होती है लेकिन वो झेल जाती है। दिक्कत तब आ सकती है जब तेल इसके भी पार जाएगा।"
 
वहीं सऊदी अरब जैसे तेल उत्पादकों का तर्क होता है कि 80 डॉलर प्रति बैरल की दर से नीचे कच्चा तेल बेचने पर उनके लिए फ़ायदेमंद नहीं है और इसलिए वो मांग और आपूर्ति के संतुलन को बनाने के लिए तेल उत्पादन कम कर देते हैं।
 
तनेजा कहते हैं, "भविष्य में अगर यूक्रेन युद्ध बेकाबू हो जाता है या कोरोना महामारी फिर से लौट आती है या चीन की अर्थव्यवस्था में और गिरावट हो जाती है, अगर ऐसा कुछ होता है तो तेल के दाम और ऊपर जा सकते हैं। अगर ऐसा कुछ बड़ा नहीं होता है तो कम से कम अगले तीन महीने तक तेल के दाम बहुत अधिक नहीं बढ़ेंगे और भारतीय उपभोक्ता के लिए भी तेल के दामों के बढ़ने के आसार नहीं हैं।"

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