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सलमान रुश्दी की किताब 'सैटेनिक वर्सेज़' पर जब राजीव गांधी ने लगाया था प्रतिबंध

BBC Hindi
शनिवार, 13 अगस्त 2022 (09:18 IST)
भारत में जन्मे ब्रितानी उपन्यासकार सलमान रुश्दी पर न्यूयॉर्क में एक कार्यक्रम के दौरान चाकू से हमला किया गया है। रुश्दी गंभीर रूप से घायल हैं और उनकी सर्जरी की गई है। 5 दशकों से साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय रुश्दी अपने काम की वजह से धमकियां और जान से मारने की चेतावनियां झेलते रहे थे।
 
75 वर्षीय सलमान रुश्दी की कई किताबें बेहद लोकप्रिय हुई हैं। इनमें उनकी दूसरी किताब 'मिडनाइट चिल्ड्रन' भी शामिल है जिसे साल 1981 का बुकर सम्मान मिला था। लेकिन उनका सबसे विवादित काम 1988 में आया उनका चौथा उपन्यास 'सैटेनिक वर्सेज़' रहा। इस उपन्यास को लेकर दुनियाभर में अभूतपूर्व हंगामा हुआ था।
 
सलमान रुश्दी को जान से मारने की धमकियां दी जा रही थीं। जान बचाने के लिए उन्हें छिपकर रहना पड़ा। ब्रितानी सरकार ने सलमान रुश्दी को पुलिस सुरक्षा भी मुहैया कराई थी। मुसलमान सलमान रुश्दी के इस उपन्यास से आहत थे। हालात ऐसे हो गए थे कि ईरान और ब्रिटेन ने राजनयिक संबंध तक तोड़ लिए थे। हालांकि पश्चिमी देशों में सलमान रुश्दी को समर्थन मिल रहा था। पश्चिमी बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों ने उन्हें मुसलमान कट्टरवादियों से मिल रही धमकियों की आलोचना की।
 
हत्या का फ़तवा
 
1988 में द 'सैटेनिक वर्सेज़' के प्रकाशित होने के बाद सलमान रुश्दी को हत्या की धमकियां मिलनी शुरू हो गई थीं किताब के प्रकाशन के एक साल बाद 1989 में ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह रूहुल्लाह ख़मेनई ने सलमान रुश्दी की हत्या का आह्वान करते हुए फ़तवा जारी कर दिया था।
 
सलमान रुश्दी भारत की आज़ादी से 2 महीने पहले मुंबई में पैदा हुए थे। वो 14 साल के थे जब उन्हें पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया था। बाद में उन्होंने कैंब्रिज के किंग्स कॉलेज से इतिहास में ऑनर्स की डिग्री ली। वो ब्रितानी नागरिक बन गए और धीरे-धीरे इस्लाम धर्म से दूर हो गए। उन्होंने कुछ समय के लिए एक अभिनेता के रूप में भी काम किया। बाद में वो विज्ञापन के क्षेत्र में आए और कॉपीराइटर की भूमिका में काम किया। इसके साथ-साथ वो उपन्यास भी लिखते रहे।
 
उनकी पहली किताब 'ग्राइमस' को कोई ख़ास कामयाबी नहीं मिली। हालांकि कुछ समीक्षकों ने उनकी लेखन क्षमता को पहचान लिया था। रुश्दी ने अपनी अगली किताब मिडनाइट चिल्ड्रन लिखने में 5 साल का वक्त लगाया। इसे बुकर पुरस्कार मिला और ये किताब दुनियाभर में लोकप्रिय हुई। इसकी 5 लाख से अधिक प्रतियां बिकीं।
 
रुश्दी की मिडनाइट चिल्ड्रन में भारत की कहानी थी लेकिन उनके 2 साल बाद आया तीसरा उपन्यास शेम पाकिस्तान के बारे में था। 4 साल बाद उन्होंने 'द जैगुआर स्माइल' लिखी, जो निकारागुआ में उनकी यात्रा के बारे में थी।
 
सलमान रुश्दी के ख़िलाफ़ दिल्ली में प्रदर्शन
 
सितंबर 1988 में द 'सैटेनिक वर्सेज़' प्रकाशित हुई। इस किताब ने उनकी ज़िंदगी को ख़तरे में डाल दिया। मुसलमानों के एक समूह ने इस अतियथार्थवादी, उत्तर आधुनिक उपन्यास को ईशनिंदा माना और इसके ख़िलाफ़ व्यापक प्रदर्शन किए।
 
भारत पहला देश था जिसने इस उपन्यास को प्रतिबंधित किया। किताब प्रकाशन के एक महीने के भीतर ही भारत में प्रतिबंधित हो गई थी। तब भारत में राजीव गांधी की सरकार थी। किताब के आयात पर तो प्रतिबंध था लेकिन इसे रखना अपराध नहीं था।
 
इसके बाद पाकिस्तान और कई अन्य इस्लामी देशों ने इसे प्रतिबंधित कर दिया। दक्षिण अफ़्रीका में भी इस पर प्रतिबंध लगा। हालांकि कई वर्गों में इस उपन्यास की तारीफ़ भी हुई और इसे व्हाइटब्रेड पुरस्कार भी दिया गया। लेकिन किताब के प्रति विरोध बढ़ता गया और 2 महीने बाद ही इसके ख़िलाफ़ सड़कों पर प्रदर्शन शुरू हो गए।
 
मुसलमान इस उपन्यास को इस्लाम का अपमान मान रहे थे। मुसलमानों का विरोध कई चीज़ों को लेकर था, लेकिन 2 वेश्याओं किरदारों को लेकर ख़ासकर विरोध हुआ। इनका नाम पैग़ंबर मोहम्मद की 2 पत्नियों के नाम पर था।
 
जनवरी 1989 में ब्रैडफर्ड के मुसलमानों ने किताब की कॉपियां जला दीं। किताब बेचने वाले न्यूज़एजेंट डब्ल्यूएच स्मिथ ने किताब का प्रकाशन करना बंद कर दिया। इसी दौरान रूश्दी ने ईशनिंदा के सभी आरोपों को ख़ारिज किया।
 
मुंबई में दंगों में मारे गए 12 लोग
 
फ़रवरी 1989 में रुश्दी के ख़िलाफ़ मुंबई में मुसलमानों ने बड़ा विरोध प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन पर पुलिस की गोलीबारी में 12 लोग मारे गए और 40 से अधिक घायल हो गए थे।
 
मुसलमान मुंबई में ब्रिटेन के राजनयिक मिशन के बाहर प्रदर्शन करना चाहते थे। पुलिस ने बैरिकेड लगाकर उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया था। जब प्रदर्शनकारियों ने बैरिकेड तोड़कर आगे बढ़ने की कोशिश की तो पुलिस ने गोली चला दी। इस दौरान जमकर हिंसा हुई थी। हिंसक भीड़ ने भी पुलिस पर हमला किया था और वाहनों और पुलिस स्टेशन को आग लगा दी थी।
 
फ़रवरी 1989 में ही तत्कालीन भारत प्रशासित कश्मीर में 'द 'सैटेनिक वर्सेज़' के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे लोगों और पुलिस के बीच झड़प में भी तीन लोग मारे गए थे। पुलिस के साथ इस हिंसक झड़प में सौ से अधिक लोग घायल भी हुए थे।
 
वहीं पाकिस्तान के इस्लामाबाद में अमेरिकी इंफोरेशन सेंटर के बाहर प्रदर्शन कर रही भीड़ और पुलिस के बीच हुई हिंसक झड़प में 6 लोग मारे गए थे और 83 घायल हुए थे। ये भीड़ अमेरिका में किताब पर प्रतिबंध की मांग कर रही थी।
 
1989 में जब ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह ख़मेनई ने रुश्दी की हत्या का आह्वान किया था तब दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्लाह बुख़ारी ने भी उनका समर्थन किया था और रूश्दी की हत्या का आह्वान कर दिया था।
 
ईरान और पश्चिमी देशों के बीच तनाव
 
वहीं ईरान में हुए प्रदर्शनों में ब्रितानी दूतावास पर हमला हुआ था। रुश्दी की हत्या करने पर ईनाम की घोषणा भी कर दी गई थी। वहीं इस तनाव के दौरान जहां ब्रिटेन में कुछ मुसलमान नेता संयम बरतने की अपील कर रहे थे, अन्य अयातुल्लाह ख़मेनई का समर्थन कर रहे थे। अमेरिका, फ्रांस और अन्य पश्चिमी देशों ने रुश्दी को दी जा रही हत्या की धमकियों की आलोचना की थी।
 
दुनियाभर में प्रदर्शन और ईरान के हत्या का फ़तवा जारी करने के बाद रुश्दी अपनी पत्नी के साथ छिप गए थे। उन्होंने मुसलमानों को आहत करने के लिए गहरी संवेदना ज़ाहिर करते हुए माफ़ी मांग ली थी। इसके बावजूद अयातुल्लाह ने दोबारा उनकी हत्या का फ़तवा जारी कर दिया था। रुश्दी की किताब को प्रकाशक पेंगुइन वाइकिंग ने प्रकाशित किया था। प्रकाशक के लंदन दफ़्तर के बाहर पुलिस तैनात कर दी गई थी जबकि न्यूयॉर्क दफ़्तर को भी धमकियां मिलीं थीं।
 
हालांकि अटलांटिक महासागर के दोनों तरफ़ यानी अमेरिका और यूरोप में किताब बेहद चर्चित हुई। मुसलमानों की चरम प्रतिक्रिया के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों का यूरोपीय देशों ने समर्थन किया था और लगभग सभी यूरोपीय देशों ने ईरान से अपने राजदूतों को वापस बुला लिया था।
 
साल 2004 में जब लेखक सलमान रुश्दी मुंबई आए तो मुसलमानों ने उनके ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया। हालांकि इस किताब की सामग्री की वजह से सिर्फ़ लेखक सलमान रुश्दी को ही धमकियों का सामना नहीं करना पड़ा था। इस किताब का जापानी में अनुवाद करने वाले अनुवादक का शव जुलाई 1991 में टोक्यो के उत्तर-पूर्व में स्थित एक यूनिवर्सिटी में मिला था।
 
पुलिस के मुताबिक अनुवादक हितोशी इगाराशी को सूकूबा यूनिवर्सिटी में उनके दफ़्तर के बाहर कई बार चाकू से गोदा गया था और मरने के लिए छोड़ दिया गया था। वो यहां असिस्टेंट प्रोफ़ेसर भी थे। जुलाई 1991 में ही किताब के इतालवी अनुवादक इत्तोरो कैपरियोलो पर मिलान में उनके अपार्टमेंट में हमला हुआ था, हालांकि वो इस हमले में ज़िंदा बच गए थे। साल 1998 में ईरान ने रुश्दी की हत्या का आह्वान करने वाले फ़तवे को वापस ले लिया था।

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