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अमेरिका चुनाव : अगर जो बिडेन जीत गए तो चीन का क्या होगा?

अमेरिका चुनाव : अगर जो बिडेन जीत गए तो चीन का क्या होगा?

BBC Hindi

, रविवार, 1 नवंबर 2020 (14:16 IST)
- विनीत खरे

22 अक्टूबर को डोनाल्ड ट्रंप और जो बिडेन के बीच तीसरी प्रेसिडेंशियल डिबेट के दौरान बहस के संचालक ने जो बाइडेन से पूछा कि कोरोनावायरस पर चीन के पारदर्शिता न दिखाने पर वो चीन को किस तरह सज़ा देंगे? बाइडेन ने जवाब दिया, चीन को दंडित करने के लिए मैं अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार कार्रवाई करूंगा। चीन को भी अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार ही चलना होगा।

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चीन पर कोरोनावायरस से जुड़ी जानकारियां छुपाने और इसे दुनियाभर में फैलने देने का आरोप लगाते रहे हैं। चीन इन आरोपों को ख़ारिज करता रहा है। अमेरिका में कोरोनावायरस से 2,30,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान हुआ है।

अमेरिका की डेलावेयर यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान इस बयान को भ्रामक मानते हैं। उन्होंने कहा, बहस से पहले भी विदेश मामलों के जानकारों में ये राय थी कि बिडेन चीन को लेकर कमज़ोर है। ट्रंप पर आरोप है कि उन्होने शुरुआत में चीन को रिझाने की कोशिश की और कोरोनावायरस के बाद वो प्रतिबंधों और कार्यकारी आदेशों की इकतरफ़ा नीति पर चले।

प्रोफ़ेसर ख़ान कहते हैं, चीन न सिर्फ़ अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दे रहा है बल्कि अंतरराष्ट्रीय नियमों और व्यवस्था को भी चुनौती दे रहा है। अगर बिडेन के बयान को देखें तो ऐसा लगेगा कि चीन एक नियमों का पालन करने वाला देश है और उसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

मुक़्तधर ख़ान के मुताबिक़, जो बिडेन की विदेश नीति का ये कमज़ोर पक्ष है कि वो चीन पर कार्रवाई करने को लेकर हिचक रहे हैं। अमेरिका और चीन के संबंधों में कई मुद्दों को लेकर गिरावट आई है। जैसे, कोरोना महामारी को लेकर चीन का रुख, तकनीक, हांगकांग, व्यापार, दक्षिण चीन सागर, वीगर मुसलमान, टिकटॉक, ख़्वावे, जासूसी और साइबर धमकियां।

पीईडब्ल्यू (प्यू) के एक शोध के मुताबिक दो तिहाई अमेरिकी चीन को लेकर नकारात्मक विचार रखते हैं। बोस्टन यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफ़ेसर आदिल नजम कहते हैं, अमेरिकी विदेश नीति में मुद्दा नंबर एक, मुद्दा नंबर दो और मुद्दा नंबर तीन, सब चीन ही है।

लेकिन अभी ये स्पष्ट नहीं है कि चीन पर आक्रामक होने से वोट मिलेंगे या नहीं, वो भी तब जब घरेलू मुद्दों की कोई कमी ही न हो। 2017 में जारी अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में चीन का ज़िक्र 33 बार किया गया है।

इस दस्तावेज़ में कहा गया है, चीन और रूस अमेरिकी ताक़त, प्रभाव और हितों को चुनौती देते हैं और उसकी सुरक्षा और संपन्नता को ख़त्म करने का प्रयास करते हैं। चीन और रूस एक ऐसी दुनिया का निर्माण करना चाहते हैं जो अमेरिकी मूल्यों और हितों के उलट हो।

प्रांतों के गवर्नरों को फ़रवरी में दिए गए भाषण में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने चीन की से पेश संभावित ख़तरों का ज़िक्र किया था। उन्होंने कहा था, चीन ने हमारी कमज़ोरियों का विश्लेषण किया है। उसने हमारी स्वतंत्रताओं का फ़ायदा उठाने का फ़ैसला किया है ताकि वो संघीय स्तर पर, प्रांतीय स्तर पर और स्थानीय स्तर पर हमसे आगे निकल सके।

ट्रंप प्रशासन ने चीन के ख़िलाफ़ समर्थन जुटाने के लिए वैश्विक अभियान शुरू किया है। ट्रंप बार-बार ये कहते रहे हैं कि बिडेन चीन को लेकर नरम हैं। अगर जो बिडेन राष्ट्रपति बनते हैं तो उनका रुख क्या होगा? क्या बाइडेन भी ट्रंप की ही तरह चीन के कारोबार पर अधिक टैक्स लगा सकेंगे और दूसरे क़दम उठा सकेंगे?वो कारोबार, मानवाधिकार, जलवायु परिवर्तन, हांग कांग और कोरोनावायरस के मुद्दे पर चीन से कैसे निबटेंगे?

ट्रंप के चुनाव अभियान के प्रचार में एक वीडियो जारी किया गया है जिसमें जो बिडेन चीन के राष्ट्रपति शी ज़िनपिंग के साथ ग्लास टकरा रहे हैं और कह रहे हैं, चीन का समृद्ध होना हमारे हितों में हैं। अप्रैल में विदेश नीति पर लिखे एक लेख में जो बिडेन ने ज़ोर दिया था कि अमेरिका को चीन पर सख़्त रुख़ अख़्तियार करने की ज़रूरत है।

बिडेन के विज़न दस्तावेज़ में कहा गया है, भविष्य में चीन या किसी और देश के ख़िलाफ़ प्रतिद्वंदिता में आगे रहने के लिए हमें अपनी नएपन की धार को और तेज़ करना होगा और दुनियाभर के लोकतांत्रिक देशों की आर्थिक ताक़त को एकजुट करना होगा।

कुछ लोग कहेंगे कि ये ट्रंप के विपरीत बहुपक्षीयता की नीति के लिए व्यापक रूपरेखा हो सकती है लेकिन इसका विवरण कहाँ हैं? प्रोफ़ेसर ख़ान कहते हैं, ट्रंप के प्रशासन में नज़रिया ये रहा कि अमेरिका ने चीन को प्रतिद्वंदी के तौर पर स्वीकार कर लिया है, लेकिन बिडेन अभी इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे हैं।

बिडेन चीन के आलोचक हैं, लेकिन एक नज़रिया ये भी है कि वो अमेरिका की कमज़ोरी को भी स्वीकार करते हैं। एक नज़रिया ये भी है कि अमेरिका की चीन को नियंत्रित करने की नीति में अब बहुत देर हो चुकी है।

रिश्तों का रास्ता
दोनों देशों के रिश्तों का ग्राफ़ देखें तो क्या मज़ेदार चीज़ें नज़र आती हैं? 1972 में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की चीन यात्रा ने दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ़ हटाई थी। अमेरिका चाहता था कि चीन एक ऐसा देश बने जो दुनिया भर से जुड़ा हो और ज़िम्मेदार हो। लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन ने अपनी विशाल अर्थव्यवस्था के दम पर अपने आप को अमेरिका का रणनीतिक प्रतिद्वंदी बना लिया है।

द हंड्रेड इयर्स मैराथन किताब के लेखक और पंटाग के पूर्व अधिकारी माइकल पिल्सबरी कहते हैं, जिस तरह हम चीन का प्रबंधन कर रहे हैं चीन उससे बेहतर तरीके से हमारा प्रबंधन कर रहा है।
 
इस किताब के कवर पर लिखा है-चीन की गुप्त रणनीति वैश्विक महाशक्ति के रूप में अमेरिका की जगह लेना है
 
 
अमेरिका की जगह नहीं लेना चाहता चीन
वॉशिंगटन स्थित थिंक टैंक हेरिटेज फ़ाउंडेशन से जुड़े विदेश मामलों के विशेषज्ञ जेम्स जे. कैराफानो का कहना है कि बीते सालों में अमेरिकी की रणनीति चीन के साथ विवादों को किनारे कर सहयोग को बढ़ाने की रही है।

राष्ट्रपति ट्रंप के दौर में अमेरिका की ये रणनीति उल्टी हो गई है। कैराफानो कहते हैं, अब अमेरिका की रणनीति ये है कि समस्याओं का समाधान किया जाए और उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जाए और ये दिखाया जाए कि हम उपने हितों की रक्षा करना का इरादा रखते हैं।

कैराफानो कहते हैं, भले ही जनवरी 2021 के बाद अमेरिका में नया राष्ट्रपति हो लेकिन चीन को लेकर अमेरिका की रणनीति में बहुत बदलाव नहीं होगा। लेकिन क्या अमेरिका ट्रंप स्टाइल का आक्रामक हमला जारी रखेगा या बाइडेन के नेतृत्व में अधिक कूटनीतिक और नपातुला रवैया अपनाएगा?
 
बकनेल यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय राजनीति और संबंधों के प्रोफ़ेसर झीकुन झू कहते हैं, वॉशिंगटन में कुछ लोग चीन को लेकर पागल हैं।चीन दुनिया की महाशक्तियों में से एक बनना चाहता है न कि अमेरिका को हटाकर उसकी जगह लोना चाहता है।

भारत और पाकिस्तान के पास क्या हैं विकल्प?
पारंपरिक तौर पर पाकिस्तान का अमेरिका के साथ मज़बूत रिश्ता रहा है लेकिन अब वो चीन के अधिक क़रीब है।जॉन हॉप्किंस यूनिवर्सिटी के डॉक्टर एसमएम अली मानते हैं कि पाकिस्तानी पक्ष में ये समझ बन रही है कि अपना सबकुछ चीन के पास रखने के बजाय अमेरिका के साथ बीते 70 सालों से चले आ रहे रिश्तों को किनारे नहीं किया जाए।

वो कहते हैं, अमेरिका भी पाकिस्तान को यूं ही नहीं छोड़ सकता है क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान उसके लिए भी सम्मान का मुद्दा बन गया है। भारत को हमेशा से ही अपनी गुट निरपेक्ष विदेश नीति पर गर्व रहा है लेकिन कुछ लोग ये तर्क दे सकते हैं कि भारत सोवियत कैंप में रहा है।

भारत ने चीन और अमेरिका के साथ अपने संबंधों में संतुलन बनाने की कोशिश की है। लेकिन गलवान घाटी में चीन के साथ हिंसक झड़प में अपने सैनिकों की मौत के बाद भारत ने अमेरिका के क़रीब आने में हिचक नहीं दिखाई हैं।

कैराफानो मानते हैं कि अमेरिका चीन को अपने अस्तित्व के लिए ख़तरे के तौर पर नहीं देखता है लेकिन भारत गुट निरपेक्षता के दौर से आगे बढ़ गया है।वो कहते हैं, भारत अब दुनिया में एक चीन विरोधी ताक़त है। हालांकि प्रोफ़ेसर झू के विचार इसके उलट हैं।

वो कहते हैं, शुरुआत से ही भारत की विदेश नीति स्वतंत्र रही है। गुट निरपेक्ष आंदोलन में वो अहम नेता था। मुझे लगता है कि भारत को इसी रास्ते पर रहना चाहिए।इस कूटनीतिक पैंतरेबाजी में अगले कदम बहुत सोच-समझकर उठाने होंगे।

एमआईटी के राजनीति शास्त्र विभाग के प्रोफ़ेसर एडन मिल्लिफ कहते हैं, एस. जयशंकर ने कहा है कि भारत हमेशा अपना पक्ष चुनेगा...अगर यह बयानबाजी है तो ये भारत की अपनी स्वतंत्रता के लिए आवाज़ उठाने की लंबी और मज़बूत परंपरा का ही हिस्सा है।

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