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उत्तराखंड में फिर सुनाई देने लगी पहाड़ी बनाम बाहरी की गूंज, क्या बीजेपी की बढ़ेगी चिंता?

उत्तराखंड में फिर सुनाई देने लगी पहाड़ी बनाम बाहरी की गूंज, क्या बीजेपी की बढ़ेगी चिंता?

BBC Hindi

, मंगलवार, 26 दिसंबर 2023 (08:40 IST)
राजेश डोबरियाल, बीबीसी हिंदी के लिए देहरादून से
उत्तराखंड के गठन के लिए हुए आंदोलन के बाद देहरादून में पहली बार एक खास मकसद को लेकर महारैली हुई जिसमें किसी भी राजनीतिक पार्टी की रैलियों से ज़्यादा लोग जुटे। खास बात यह है कि सत्तारूढ़ बीजेपी को छोड़कर लगभग सभी दल और सामाजिक संगठनों के लोग इसमें शामिल हुए।
 
सख़्त भू-कानून और मूल निवास की मांग को लेकर देहरादून में हज़ारों की संख्या में लोग जुटे लेकिन इससे एक सवाल भी खड़ा हो गया है कि क्या उत्तराखंड में पहाड़ी बनाम मैदानी द्वंद्व शुरू हो जाएगा?
 
मूल निवास, भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति ने सशक्त भू-कानून और मूल निवास लागू करने के साथ ही इसकी कट ऑफ़ डेट 26 जनवरी, 1950 रखे जाने की मांग को लेकर रविवार को महारैली का आह्वान किया था।
 
रैली को उत्तराखंड क्रांति दल, आम आदमी पार्टी के साथ ही कई छोटी पार्टियों ने समर्थन देने का एलान पहले ही कर दिया था।
 
कांग्रेस ने एक दिन पहले शनिवार की शाम को रैली को समर्थन देने का एलान किया। इसके बाद देर रात राज्य सरकार ने एक उच्चाधिकार समिति को (जिसका गठन एक दिन पहले ही किया गया था) मूल निवास पर भी सिफ़ारिशें देने को कह दिया।
 
यह समिति मूल निवास प्रमाण पत्र जारी करने के संबंध में मानकों का निर्धारण करने के संबंध में सरकार को सिफ़ारिशें देगी।
 
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भू-कानून पर विचार के लिए समिति
इससे पहले 22 तारीख को राज्य सरकार ने अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी की अध्यक्षता में एक पांच सदस्यीय समिति का गठन किया था।
 
इसे भू-कानून समिति की ओर से दाखिल रिपोर्ट का विस्तृत परीक्षण करने के बाद सरकार को अपनी सिफ़ारिशें देनी हैं।
 
पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद पुष्कर सिंह धामी ने भू-कानून पर विचार के लिए एक समिति गठित की थी, जो 2022 में ही अपनी सिफ़ारिशें सरकार को सौंप चुकी है लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
 
इससे पहले उत्तराखंड के सबसे लोकप्रिय गीतकार और गायक नरेंद्र सिंह नेगी, मशहूर गायिकाएं उप्रेती सिस्टर्स समेत कई गायक-कलाकार महारैली में शामिल होने की अपील कर चुके थे।
 
मूल निवास, भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति के संयोजक मोहित डिमरी ने कहा कि सरकार की ओर से विभिन्न माध्यमों से संघर्ष समिति से जुड़े सदस्यों से संपर्क कर रैली को टालने का अनुरोध किया गया था लेकिन यह उत्तराखंड की जनता की अस्मिता और अधिकारों की लड़ाई है, इसलिए रैली टाली नहीं जा सकती थी।
 
मूल निवास का मुद्दा
मूल निवास, भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति ने जिन दो मुद्दों को लेकर आंदोलन छेड़ा है उसमें कई मांगें हैं।
 
जैसे, प्रदेश में ठोस भू कानून लागू हो, शहरी क्षेत्र में 250 मीटर भूमि खरीदने की सीमा लागू हो, ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगे, गैर कृषक की ओर से कृषि भूमि खरीदने पर रोक लगे।
 
साथ ही पर्वतीय क्षेत्र में गैर पर्वतीय मूल के निवासियों के भूमि खरीदने पर रोक लगे, राज्य गठन के बाद से वर्तमान तिथि तक सरकार की ओर से विभिन्न व्यक्तियों, संस्थानों, कंपनियों को दान या लीज़ पर दी गई ज़मीन का ब्यौरा सार्वजनिक किया जाए।
 
इसके अलावा प्रदेश में ख़ासकर पर्वतीय क्षेत्रों में लगने वाले उद्यमों, परियोजनाओं में भूमि अधिग्रहण या ख़रीदने की अनिवार्यता अगर है या भविष्य में होगी तो उन सभी में स्थानीय निवासी और ज़िले के मूल निवासी का हिस्सा सुनिश्चित किया जाए।
 
इसके अलावा ऐसे सभी उद्यमों में स्थानीय व्यक्ति को रोज़गार देना सुनिश्चित किया जाए।
 
मूल निवास प्रमाण पत्र जारी करने की मांग
इसके अलावा मूल निवास का प्रावधान लागू किया जाए। साल 2000 से उत्तराखंड में रहने वाले सभी लोगों को स्थायी निवास प्रमाण पत्र मिलता है।
 
संघर्ष समिति की मांग है कि मूल निवास प्रमाण पत्र जारी किए जायें और इसकी कट ऑफ़ डेट 26 जनवरी, 1950 रखी जाए यानी कि जो व्यक्ति उक्त तारीख को राज्य में निवास करता था वही (और उसकी पुश्तें) ही यहां के मूल निवासी माने जायें।
 
दरअसल, उत्तराखंड एकमात्र हिमालयी राज्य है, जहां राज्य के बाहर के लोग पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि भूमि, गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद सकते हैं।
 
रैली में शामिल हुए लोगों का आमतौर पर मानना है कि सशक्त भू कानून नहीं होने की वजह से राज्य की ज़मीन को राज्य से बाहर के लोग बड़े पैमाने पर खरीद रहे हैं और राज्य के संसाधन पर बाहरी लोग हावी हो रहे हैं।
 
लोगों का मानना है कि इसकी वजह से यहां के मूल निवासी और भूमिधर भूमिहीन होते जा रहे हैं। इसका असर पर्वतीय राज्य की संस्कृति, परंपरा, अस्मिता और पहचान पर पड़ रहा है।
 
सबसे बड़ा जमावड़ा
उत्तराखंड के एक प्रमुख दैनिक अख़बार में एक वरिष्ठ छायाकार नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर कहते हैं कि देहरादून की सड़कों पर इतना बड़ा जमावड़ा राज्य बनने के बाद से नहीं दिखा।
 
उन्होंने बतौर फ़ोटोग्राफ़र राज्य आंदोलन को भी कवर किया है और रविवार की रैली में भी वह अपने कैमरे के साथ सक्रिय थे।
 
वह कहते हैं, "आज की महारैली ने राज्य आंदोलन की याद ताज़ा कर दी। तब भी ऐसे ही, स्वतः स्फूर्त लोग सड़कों पर उतरे थे, एक उद्देश्य के साथ। आज भी वैसा ही नज़ारा था।"
 
उन्होंने बताया, "आज की रैली में बुजुर्गों के साथ बच्चे भी मौजूद थे और सबसे अधिक थे युवा- बड़ी संख्या में और ऊर्जा से भरपूर। आपको याद रखना होगा कि इसी युवा, इसी मातृशक्ति ने राज्य दिलाया था इसलिए ऐसा नहीं हो सकता कि इनकी ये दो मांगें न मानी जाएं।"
 
वरिष्ठ पत्रकार दिनेश जुयाल कहते हैं कि यह पूरी तरह स्वतःस्फूर्त और जनता का आंदोलन रहा। सिर्फ़ यूकेडी के झंडे ही रैली में दिख रहे थे लेकिन मंच से उन्हें भी दूर ले जाने को कह दिया गया जबकि संघर्ष समिति का नेतृत्व करने वाले युवा भी यूकेडी से जुड़े हुए हैं।
 
मूल निवास, भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति के सदस्य प्रांजल नौडियाल कहते हैं कि महारैली में 100 से अधिक संगठन शामिल हुए थे और कांग्रेस, उत्तराखंड क्रांति दल, आम आदमी पार्टी, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी, राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी जैसे छोटे-बड़े राजनीतिक दल भी इस महारैली में शामिल हुए।
 
इनके अलावा राज्य के सभी ज़िलों से लोग व्यक्तिगत रूप से इस रैली में शामिल होने के लिए पहुंचे थे।
 
अलग-अलग जगहों से, अलग-अलग समूहों में आए लोगों का असर रैली में भी दिखा। कचहरी स्थित शहीद स्मारक पर पहुंचने और नेतृत्व के संक्षिप्त संबोधन के बाद जब रैली समाप्त हो गई उसके बाद भी लोग समूहों में पहुंचते रहे।
 
आंदोलन पर सवाल
भाकपा (माले) के राज्य सचिव इन्द्रेश मैखुरी ने अपनी पार्टी के साथ ही भाकपा और माकपा के नाम से इस रैली को लेकर एक संयुक्त संदेश जारी किया। इसमें उन्होंने आशंका जताई कि जिस दिशा में यह आंदोलन जा रहा है उससे अंध क्षेत्रीयतावाद को ही बढ़ावा मिलेगा।
 
उन्होंने लिखा, "इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी राज्य के संसाधनों-जल, जंगल, ज़मीन पर पहला अधिकार, उस राज्य के मूलनिवासियों का होता है, होना चाहिए। राज्य की नियुक्तियों में भी पहली प्राथमिकता उस राज्य के मूलनिवासियों को मिलनी चाहिए।"
 
"लेकिन मूल निवास को बहाल किए जाने की मांग को पहाड़-मैदान और बाहरी-भीतरी के लबादे में लपेटना, अंध क्षेत्रीयतावादी उन्माद खड़ा करने की कोशिश है। यह कुछ लोगों को सस्ती लोकप्रियता तो दिला सकता है, लेकिन वह राज्य की उस बड़ी आबादी के हितों को सुरक्षित नहीं कर सकती।"
 
रैली के दौरान दिखाए जा रहे कुछ प्लेकार्ड्स और मंच से किए गए कुछ संबोधन में भी पहाड़ी-बाहरी की बात उठी, जिसे लोगों का समर्थन भी मिला।
 
'ज़मीन बचाने की लड़ाई'
तो क्या मैखुरी की आशंका सच है? क्या भू-कानून और मूल-निवास का मुद्दा राज्य में एक तीखा विभेद शुरू कर सकता है?
 
दिनेश जुयाल कहते हैं, "किसी भी असंगठित आंदोलन में ऐसी बातें उठती ही हैं। बीजेपी और कांग्रेस जैसे बड़े, संगठित दलों से भी अलग-अलग बातें आ जाती हैं। लेकिन आंदोलन की मूल भावना और आज की रैली कुल मिलाकर सत्याग्रह जैसी ही रही है।"
 
वह कहते हैं कि बड़ा सवाल यह भी है कि राज्य में कृषि योग्य भूमि 5 प्रतिशत भी नहीं रह गई है। आप एयरपोर्ट बना रहे हो, सड़कें बना रहे हो, रेलवे स्टेशन बना रहे हो और उसके लिए लोगों की ज़मीन का अधिग्रहण करते जा रहे हो।
 
वो कहते हैं, "अब आप निवेश के नाम पर भी बाहर से लोगों को ला रहे हो और लोगों की ज़मीन का अधिग्रहण करते जा रहे हो। ऐसे में तो ज़मीन रह ही नहीं पाएगी लोगों के पास।"
 
जुयाल कहते हैं, "जब सरकार और राजनीतिक दल प्रॉपर्टी डीलर बन जाएंगे तो अपनी ज़मीन बचाने के लिए जनता को सड़क पर उतरना ही पड़ेगा।"
 
आम चुनावों पर होगा असर?
क्या इस रैली का असर उत्तराखंड की राजनीति पर पड़ेगा, ख़ासकर 2024 के आम चुनावों पर?
 
जुयााल कहते हैं, "अगर इतने लोग आ गए अचानक, तो इसका मतलब यह है कि उनमें कहीं न कहीं आग है।।। लेकिन आज की रैली के बाद 6 महीने तक सो जाएंगे तो फिर कुछ नहीं होगा। अगर इसका फॉलोअप करते जाते हैं और यह मोमेंटम बना रहता है, तो फ़र्क पड़ सकता है।"
 
ये भी दावा किया जा रहा है कि इससे किसी एक पार्टी, जैसे कि यूकेडी, को फ़ायदा मिलेगा इसकी संभावना कम ही है लेकिन इस महारैली से एक बात तो साबित हुई है कि एक ऐसा मुद्दा है जिसके लिए लोग खुद सड़क पर आने को तैयार हैं।
 
जानकारों का कहना है अब यह आंदोलन कैसे आगे चलता है, इतने सारे संगठनों को कैसे साथ रखता है यह देखने वाले बात होगी लेकिन एक विकल्प की संभावना तो बनी ही है जिससे सबसे ज़्यादा चिंता शायद बीजेपी को हो।
 

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