Webdunia - Bharat's app for daily news and videos

Install App

उत्तर प्रदेश चुनावः अखिलेश यादव सपा से परिवारवाद और यादववाद का टैग हटाने में कामयाब होंगे?

BBC Hindi
गुरुवार, 27 जनवरी 2022 (07:43 IST)
दीपक के मंडल, बीबीसी संवाददाता
समाजवादी पार्टी चीफ़ अखिलेश यादव क्या इस बार अपनी पार्टी को परिवारवाद की छाया से दूर रखना चाहते हैं? अखिलेश पर 'परिवारवाद' और 'यादववाद' को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं।
 
यूपी के मतदाताओं के बीच बनी इस धारणा ने समाजवादी पार्टी को 2017 में काफ़ी नुकसान पहुंचाया था और पार्टी सिर्फ़ 47 सीटों पर सिमट कर रह गई थी। बीजेपी-गठबंधन उस चुनाव में यादवों की लामबंदी के खिलाफ ग़ैर यादव ओबीसी जातियों को एकजुट करने की रणनीति लेकर उतरा और 403 में से 325 सीटें जीतने में कामयाब रहा।
 
2017 के विधानसभा और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में भी समाजवादी पार्टी को बीजेपी की ग़ैर यादव ओबीसी वोटरों को इकट्ठा करने की रणनीति से मात मिली। लिहाज़ा, 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी ने अपने ऊपर लगाए गए जा रहे 'परिवारवाद' और 'यादववाद' के ठप्पे को हटाने की कोशिश तेज़ कर दी है।
 
अखिलेश ने हाल के अपने चुनावी अभियानों में पार्टी के यादव नेताओं से दूरी बनाए रखी है। पार्टी के उम्मीदवारों की पहली लिस्ट में सिर्फ़ उनके चाचा शिवपाल यादव का नाम है। शिवपाल की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया है। इसलिए वह गठबंधन के आधिकारिक उम्मीदवार हैं, समाजवादी पार्टी के नहीं।
 
उन्होंने परिवार के नेताओं को भी चुनावी रैलियों से दूर रखने की कोशिश की है। पहले उनके चाचा रामगोपाल यादव, शिवपाल यादव और भाई धर्मेंद्र यादव लगभग हर मंच पर उनके साथ दिख जाते थे। उनकी पत्नी डिंपल यादव भी उनके साथ रैलियों में नहीं जा रही हैं।
 
अखिलेश ने पहले ही साफ़ कर दिया था कि इस बार परिवार के लोगों को टिकट नहीं दिया जाएगा। उनके भाई प्रतीक यादव की पत्नी अपर्णा यादव को लखनऊ कैंट सीट से समाजवादी पार्टी का टिकट मिलने की उम्मीद थी। लेकिन अखिलेश ने उन्हें तवज्जो नहीं दी। वह बीजेपी में शामिल हो गईं।
 
'बीजेपी ने 2017 में जो किया वही अब अखिलेश कर रहे हैं'
लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर और समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता सुधीर पंवार का मानना है कि पार्टी को परिवारवाद और कथित यादववाद से दूर रखने की अखिलेश की यह कोशिश नई नहीं है। यह कोशिश काफ़ी पहले से चल रही है। पहले पार्टी की कमान पूरी तरह से उनके हाथ में नहीं थी इसलिए वह इसमें पूरी तरह सफल नहीं हो सके। लेकिन अब पार्टी पर उनका पूरी तरह नियंत्रण है। लिहाज़ा वह सधी हुई रणनीति के साथ काम कर रहे हैं।
 
पंवार कहते हैं, अखिलेश ने इस बार तीन चीज़ों पर जोर दिया। पहली, उन्होंने ग़ैर यादव ओबीसी आधार वाली छोटी पार्टियों से गठबंधन किया। ओमप्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी जैसे नेताओं को अपने साथ लाकर उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की कि वह सत्ता में दूसरे पिछड़े समाज के लोगों को भी भागीदारी देने के बारे में बिल्कुल स्पष्ट हैं।
 
दूसरे, अखिलेश ने जाति जनगणना का समर्थन कर भी ग़ैर यादव ओबीसी जातियों को साथ लाने की कोशिश की। जातीय संतुलन बनाने की कोशिश समाजवादी पार्टी की उम्मीदवारों की पहली लिस्ट में भी दिखती है। कुल 159 उम्मीदवारों में से सिर्फ़ दस-पंद्रह फ़ीसदी ही यादव हैं।
 
2017 में एसपी की लगभग 40 फ़ीसदी सीटें यादव और मुस्लिम उम्मीदवारों को मिली थीं। लेकिन इस बार मुज़फ़्फ़रनगर सीट को छोड़कर इस विधानसभा क्षेत्र की सभी सीटों पर एसपी-आरएलडी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा नहीं किया है। वहीं सिवालखास सीट पर जाट समुदाय के लोगों के धरने के बावजूद जाट उम्मीदवार नहीं दिया गया।
 
कहने का मतलब यह है कि अखिलेश मुसलमानों और यादवों को बेवजह बढ़ावा देने से बचने की कोशिश कर रहे हैं। उनके विरोधी, समाजवादी पार्टी पर इसी बात को लेकर हमलावर रहे हैं।
 
पंवार का कहना है कि बीजेपी ने 2017 में ग़ैर यादव ओबीसी और ग़ैर जाटव दलितों को लामबंद करने की जो कोशिश की थी, वही अब 2022 में अखिलेश कर रहे हैं।
 
क्या कहते हैं अखिलेश के विरोधी?
यूपी बीजेपी के प्रवक्ता राकेश त्रिपाठी का कहना है कि समाजवादी पार्टी की ओर से यह झूठा नैरेटिव गढ़ने की कोशिश हो रही है।
 
राकेश त्रिपाठी ने कहा, यूपी में अभी भी एक जाति के तौर पर यादव सबसे ज़्यादा हैं और सपा उसी हिसाब से उन्हें टिकट दे रही है। आप उनकी लिस्ट उठा कर देख लीजिए। अभी तक 20 से ज़्यादा यादव उम्मीदवारों को टिकट मिल चुका है। आगे और यादव कैंडिडेटों को टिकट बंटेंगे।
 
"सच तो यह है कि समाजवादी पार्टी अभी भी अपराधियों और माफ़िया की पार्टी बनी हुई है। अखिलेश काफ़ी दिनों से ऐसा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि उनकी पार्टी इन तत्वों को दरकिनार कर रही है। लेकिन यह सब भ्रम है। यह पार्टी अभी भी जाति तुष्टिकरण पर चल रही है। एक वक़्त में इस पार्टी ने ठाकुर जाति के कई बाहुबलियों को टिकट दिया था। लेकिन जनता को पता है कि समाजवादी पार्टी माफ़िया नेताओं, गुंडों और अपराधियों को प्रश्रय देती रही है। यूपी की जनता इस झांसे में नहीं आने वाली है। वह पूरी तरह योगी आदित्यनाथ का साथ देगी।"
 
क्या देर हो चुकी है?
यूपी की राजनीति के जानकार वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि अखिलेश यादव इस धारणा को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं कि समाजवादी पार्टी सिर्फ़ मुसलमानों और यादवों की पार्टी है। वो पार्टी की छवि को लेकर वह अब काफ़ी सतर्क दिख रहे हैं और ज्ञात अपराधियों से दूरी बना कर चल रहे हैं।
 
वो कहते हैं, "यह कोशिश उन्होंने काफ़ी पहले शुरू कर दी है। 2012 में डीपी यादव को उन्होंने समाजवादी पार्टी में शामिल नहीं होने दिया। बाहुबली नेता डीपी यादव का आपराधिक रिकॉर्ड रहा है। हाल ही में अदालत ने उन्हें उनके राजनीतिक गुरु महेंद्र सिंह भाटी हत्याकांड में बाइज्ज़त बरी कर दिया।
 
अखिलेश ब्राह्मण वोटरों को भी लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए हाल ही में वह पू्र्वांचल एक्सप्रेस में बने एक मंदिर में भगवान परशुराम की मूर्ति का अनावरण करते दिखे। तो कुल मिलाकर अखिलेश यादव वो तमाम कोशिश करते दिख रहे हैं जिससे लगे कि वह ग़ैर ओबीसी यादवों के अलावा ब्राह्मण और दूसरी जातियों को भी साथ लेना चाहते हैं। परिवार के यादव नेताओं से दूरी बना कर रखना भी उनकी समावेशी रणनीति का हिस्सा है। उन्हें इसका फ़ायदा मिल सकता है। यह दिख रहा है।"
 
ग़ैर यादव ओबीसी वोटरों को खींचने की कोशिश
चुनावी रणनीति बनाने वाली कंपनी वॉर रूम स्ट्रैटेजीज़ के सीनियर एडवाइज़र और राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी कहते हैं, "वंशवादी राजनीति को बढ़ावा देने के लिए समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव पर हमले होते रहे हैं। अगर आप 2014 के आम चुनावों के नतीजे देखें तो सिर्फ़ अखिलेश के ही परिवार के पांच सांसद थे। एक रणनीति के लिहाज़ से ग़ैर यादव वोटरों को साथ लाने की अखिलेश यादव की कोशिश एक सही क़दम हो सकता है।
 
यूपी में यादवों का राजनीति में वर्चस्व तो है, लेकिन इनकी आबादी दस फ़ीसदी है। लिहाज़ा बग़ैर ग़ैर यादव ओबीसी वोटरों को साथ लिए पार्टी का जीतना मुश्किल है। राज्य में ग़ैर ओबीसी वोटर 30 फ़ीसदी हैं। मुस्लिम वोटरों पर दांव नहीं खेला जा सकता क्योंकि इसमें बंटवारा होता है। 2017 में बीजेपी को यूपी में लगभग 40 फ़ीसदी वोट मिले थे। इनमें से 20 फ़ीसदी वोट सिर्फ़ ग़ैर यादव ओबीसी जातियों के थे। ऐसे में अखिलेश यादव को तो ग़ैर यादव ओबीसी वोटरों के वोट हासिल करने की कोशिश तो करनी ही होगी, वरना जीत उनसे दूर रहेगी। लेकिन अखिलेश ने इसमें देर कर दी है।
 
अगर आप 1993 से 2012 तक देखें तो किसी भी पार्टी को ओबीसी वोटों का 50 फ़ीसदी से अधिक नहीं मिला है। यह वोट बैंक बिखरा हुआ था क्योंकि तमाम ओबीसी जातियों के वोटरों की आकांक्षाएं, ज़रूरतें और उम्मीदें अलग-अलग रही हैं। बीजेपी ने पिछले कुछ सालों में इस वोट बैंक को इकट्ठा करने का काम किया है और उसे इसका फ़ायदा मिला है। ग़ैर यादव ओबीसी वोटरों का एक बड़ा हिस्सा आपके पास आएगा तभी आप जीतेंगे।"
 
हालांकि वो कहते हैं कि अखिलेश यादव ने इसे समझा ज़रूर है, लेकिन इस रणनीति को आज़माने के मामले में वह देरी कर चुके हैं, जो उन्हें माकूल नतीजे हासिल करने से रोक सकता है।
 

सम्बंधित जानकारी

जरूर पढ़ें

Gold Prices : शादी सीजन में सोने ने फिर बढ़ाई टेंशन, 84000 के करीब पहुंचा, चांदी भी चमकी

Uttar Pradesh Assembly by-election Results : UP की 9 विधानसभा सीटों के उपचुनाव परिणाम, हेराफेरी के आरोपों के बीच योगी सरकार पर कितना असर

PM मोदी गुयाना क्यों गए? जानिए भारत को कैसे होगा फायदा

महाराष्ट्र में पवार परिवार की पावर से बनेगी नई सरकार?

पोस्‍टमार्टम और डीप फ्रीजर में ढाई घंटे रखने के बाद भी चिता पर जिंदा हो गया शख्‍स, राजस्‍थान में कैसे हुआ ये चमत्‍कार

सभी देखें

मोबाइल मेनिया

सस्ता Redmi A4 5G लॉन्च, 2 चिपसेट वाला दुनिया का पहला 5G स्मार्टफोन

Vivo Y19s में ऐसा क्या है खास, जो आपको आएगा पसंद

क्या 9,000 से कम कीमत में आएगा Redmi A4 5G, जानिए कब होगा लॉन्च

तगड़े फीचर्स के साथ आया Infinix का एक और सस्ता स्मार्टफोन

Infinix का सस्ता Flip स्मार्टफोन, जानिए फीचर्स और कीमत

આગળનો લેખ
Show comments