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शरद पवार ने जब महाराष्ट्र में किया था तख़्तापलट

BBC Hindi
मंगलवार, 26 नवंबर 2019 (12:53 IST)
-नामदेव अंजना
 
महाराष्ट्र की राजनीति में इन दिनों 'भूकंप' आया हुआ है। कई चौंकाने वाली घटनाएं हो रही हैं। शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन यानी 'महाविकास आघाडी' की बैठकों का सिलसिला जारी था। शिवसेना पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी की तैयारी चल रही थी। उसी समय महाराष्ट्र की राजनीति ने तेज़ी से करवटें बदलीं और पूरा माहौल ही बदल गया। शनिवार 23 नवंबर की सुबह बीजेपी नेता देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री पद की दूसरी बार शपथ ली और अजित पवार ने उपमुख्यमंत्री पद की।
 
एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार ने ट्वीट कर स्पष्ट कर दिया, 'भाजपा के साथ जाने का फ़ैसला अजित पवार का अपना निर्णय है।' लेकिन बीजेपी नेता गिरीश महाजन ने दावा किया, 'एनसीपी के सभी विधायकों ने भाजपा को समर्थन देने की चिट्ठी राज्यपाल को सौंप दी है।' कुछ इसी तरह की घटना महाराष्ट्र की राजनीति में 1978 में घटी थी।
 
शरद पवार ने कांग्रेस में बगावत की। वे तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल की सरकार से अलग हो गए। तब उन्होंने प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट तैयार किया था और ख़ुद सरकार के मुखिया बन गए थे। महाराष्ट्र की राजनीति में जब भी इस घटना का ज़िक्र होता है, तब यही कहा जाता है कि पवार ने वसंतदादा पाटिल को धोखा दिया था।
 
शनिवार को जब अजित पवार ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो इस घटना को फिर से याद किया जा रहा है। शिवसेना के प्रवक्ता और राज्यसभा सांसद संजय राउत ने कहा, 'अजित पवार ने महाराष्ट्र की पीठ में खंजर भोंका है।'
 
छोटी उम्र में बड़ी राजनीतिक परिपक्वता : प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट बनाकर शरद पवार ने महाराष्ट्र में पहली बार गठबंधन की सरकार बनाई थी। महज 38 साल की उम्र में वे मुख्यमंत्री बने थे। उस वक़्त सियासी उठापटक और नाटकीय घटनाक्रम के बाद पवार की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी हो गई। पवार ने महाराष्ट्र की राजनीति के कद्दावर रहे वसंतदादा पाटिल को धोखा दिया था, ये आरोप उन पर हमेशा लगता रहा है।
 
राजनीति के कुछ जानकार कहते हैं कि वसंतदादा पाटिल के तख़्तापलट के बाद सरकार बनाकर पवार ने छोटी उम्र में बड़ी राजनीतिक परिपक्वता की झलक दिखाई थी। प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट के प्रयोग ने शरद पवार को पहली बार मुख्यमंत्री बनाया था।
 
इसके लिए आपातकाल, 1977 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव और उसके बाद बनीं राजनीतिक अस्थिरता की स्थितियां ज़िम्मेदार थीं। 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ फ़ैसला सुनाया था।
 
1971 के आम चुनाव में सरकारी व्यवस्था का ग़लत इस्तेमाल किए जाने पर उन्हे दो‌षी पाया गया। चुनाव निरस्त हो गए। साथ ही इंदिरा गांधी के चुनाव लड़ने पर छह साल के लिए पाबंदी लगा दी गई। इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद इंदिरा गांधी को जाहिर तौर पर विरोध का सामना करना पड़ा था।
1977 के चुनाव : पूरे देश में इंदिरा विरोधी आंदोलन शुरू हो गया। जयप्रकाश नारायण इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। अलग-अलग पार्टियां जेपी की लोकसंघर्ष कमेटी के झंडे तले एकजुट हो गई थीं। इस माहौल में इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी।
 
आपातकाल के चलते देश के राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में भूचाल आ गया। 21 मार्च 1977 को आपातकाल ख़त्म हुआ। देश में लोकसभा चुनाव भी हुए। 1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के महाराष्ट्र से केवल 22 सांसद चुनकर आए थे। आपातकाल के समय शंकरराव चव्हाण महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। आपातकाल ख़त्म होने के बाद वसंतदादा पाटिल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने।
 
महाराष्ट्र के वरिष्ठ पत्रकार अरुण खोरे बताते हैं, 'आपातकाल के बाद कांग्रेस टूट गई जिसका असर महाराष्ट्र की राजनीति पर भी हुआ। इंदिरा गांधी का जिस तरह से पूरे देश में विरोध हो रहा था, उस वजह से महाराष्ट्र की राजनीति में भी हलचल मच गई।
 
इंदिरा गांधी के नेतृत्व को लेकर कांग्रेस पार्टी में घमासान मचा हुआ था। पार्टी बिखर रही थी। दो गुट बन गए थे, एक इंदिरा गांधी के समर्थकों का था तो दूसरा कांग्रेस पार्टी के समर्थकों का था। राष्ट्रीय स्तर पर इंदिरा गांधी को सीधी चुनौती देते हुए शंकरराव चव्हाण और ब्रह्मानंद रेड्डी ने 'रेड्डी कांग्रेस' बनाई। शंकरराव के क़रीब होने के कारण शरद पवार अपने आप रेड्डी कांग्रेस में शामिल हो गए।'
 
राष्ट्रीय स्तर पर इंदिरा कांग्रेस और रेड्डी कांग्रेस या दो प्रमुख गुट तैयार होने का असर राज्य में भी दिखने लगा। महाराष्ट्र में पहली बार कांग्रेस के दो गुट साफ नजर आने लगे। वसंतदादा पाटिल और शरद पवार जैसे लोगो ने शंकरराव चव्हाण का दामन थामते हुए रेड्डी कांग्रेस खेमे में अपनी जगह बना ली। नाशिकराव तिरपुडे जैसे नेताओं ने इंदिरा कांग्रेस में रहना पसंद किया।
 
रेड्डी कांग्रेस और इंदिरा कांग्रेस का गठजोड़ : अरुण खोरे कहते हैं, 'राष्ट्रीय स्तर पर जो कांग्रेस पार्टी में हो रहा था उसका सीधा असर 1978 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव पर हुआ।' राज्य में कांग्रेस के बंटवारे के बाद क्या हुआ?
 
इस सवाल पर महाराष्ट्र टाइम्स के वरिष्ठ सहायक संपादक विजय चोरमारे बताते हैं, '1978 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के दोनों गुटों ने अलग-अलग लड़ा था। आपातकाल के कारण इंदिरा गांधी को लेकर जनता की नाराज़गी बनी हुई थी। इसका असर कांग्रेस पर तो हुआ ही, लेकिन रेड्डी कांग्रेस भी इस ग़ुस्से का शिकार होने से खुद को बचा नही पाई। नतीजा ये हुआ कि 99 सीटों के साथ जनता पार्टी कामयाबी के पायदान पर आगे बढ़ती चली गई। रेड्डी कांग्रेस को 69 और इंदिरा कांग्रेस को 62 सीटें मिलीं।'
 
अरुण खोरे का कहना है, 'उस चुनाव में शेतकरी कामगार पक्ष को 13 सीटें, माकपा को 9 सीटें और राज्य में 36 निर्दलीय उम्मीदवार चुनकर आए। किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नही मिला था। राज्य में त्रिशंकु स्थिति बन गई थी। त्रिशंकु स्थिति के साथ-साथ जनता पार्टी के बढ़ते जनाधार को रोकने की चुनौती भी सामने खड़ी थी।'
 
1978 में क्या हुआ था? : अरुण खोरे बताते हैं, 'जनता पार्टी के बढ़ते क़दम रोकने के लिए रेड्डी कांग्रेस के नेता वसंतदादा पाटिल ने कोशिशें शुरू कर दी थीं। दिल्ली में जाकर उन्होंने शंकरराव चव्हाण, ब्रह्मानंद रेड्डी, चंद्रशेखर से बातचीत का सिलसिला शुरू किया। इंदिरा गांधी ने कहा कि ब्रह्मानंद रेड्डी और यशवंतराव चव्हाण दोनों मिलकर साझा सरकार चलाएं। इसके लिए वो एक कदम पीछे हटने के लिए भी तैयार हो गईं।'
 
नए फॉर्मूले के अनुसार रेड्डी कांग्रेस और इंदिरा कांग्रेस ने मिलकर सरकार बना ली। 7 मार्च 1978 को बतौर मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल ने शपथ ली। इंदिरा कांग्रेस के नाशिकराव तिरपुडे उपमुख्यमंत्री बने। इस नए सरकार में शरद पवार उद्योग मंत्री थे।
 
विजय चोरमारे कहते हैं, 'महाराष्ट्र के लिए इंदिरा कांग्रेस नई पार्टी थी। जिसे बढ़ाने के लिए उपमुख्यमंत्री नाशिकराव तिरपुडे ने कोशिश जारी रखी। ये करते समय वो हमेशा यशवंतराव चव्हाण, वसंतदादा पाटिल और शरद पवार को निशाना बनाते रहे। नाशिकराव इंदिरा गांधी के कट्टर समर्थक थे। सरकार चलाते वक़्त इंदिरा गांधी के लिए अपनी भक्ति बार-बार जताते थे। नाशिकराव की ये आदत कई बार मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल के लिए सरदर्द बन जाती थी।'
 
महाराष्ट्र की पहली गठबंधन सरकार : चोरमारे आगे बताते हैं, 'रेड्डी कांग्रेस के शरद पवार जैसे नेताओं को नाशिकराव तिरपुडे के ये तेवर और उनकी दख़लंदाजी बिलकुल पसंद नही थी। दूसरी ओर वसंतदादा पाटिल के लिए गतिरोध में सरकार बनाना काफी मुश्किल होता जा रहा था। दोनो कांग्रेस पार्टियों के बीच दरार बढ़ती रही। यही कारण था कि पवार ने अपना अलग रास्ता बनाया और वो वसंतदादा सरकार से बाहर निकल गए।
 
1978 के जुलाई महीने में महाराष्ट्र विधानसभा का मॉनसून सत्र चल रहा था। उस दौरान शरद पवार ने 40 विधायकों के साथ अलग होकर वंसतदादा सरकार से बाहर निकलने का फैसला ने लिया। सुशील कुमार शिंदे, दत्ता मेघे और सुंदरराव सोलंके जैसे मंत्रियों ने भी इस्तीफा दे दिया। पवार के इस फैसले से तत्कालीन सरकार अल्पमत में आ गई। मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल और उपमुख्यमंत्री नाशिकराव ने इस्तीफा दे दिया। महाराष्ट्र की पहली गठबंधन सरकार सिर्फ चार महीनों में ही गिर गई थी।'
 
क्या पवार को यशवंतराव का समर्थन था? : शरद पवार की इस बग़ावत के पीछे यशवंतराव चव्हाण थे, महाराष्ट्र की राजनीति में आज भी इस बात पर कभी-कभी बहस हो जाया करती है।
 
महाराष्ट्र के जानेमाने पत्रकार रहे गोविंद तलवलकर की याद में हुई एक संगोष्ठी में शरद पवार ने खुद ये कहा था, 'मुझे याद है 1977-78 के दौरान की सरकार बहुत विवादों में थी। इस बारे में तलवलकर जी ने एक संपादकीय लिखा था कि ये सरकार गिरे, यह भगवान की इच्छा है, उसके अनुसार ही आगे की घटनाएं घटीं।'
 
दरअसल, गोविंद तलवलकर और यशवंतराव चव्हाण अच्छे दोस्त थे। तब गोविंद के लेख का ये मतलब निकाला गया कि खुद यशवंतराव चाहते हैं कि ये सरकार गिर जाए। वसंतदादा पाटिल से अलग होकर पवार ने समाजवादी कांग्रेस की स्थापना की। वो सरकार बनाने के जुगाड़ में लग गए। राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ीं।
 
जनता पार्टी के साथ पवार की नजदीकियां बढ़ने लगीं। आबासाहेब कुलकर्णी, एमएम जोशी और किसन वीर जैसे उस वक़्त के बड़े नेता पवार के पीछे खड़े हो गए। उन्हें अपना समर्थन दे दिया। 18 जुलाई 1978 को महाराष्ट्र में पहली बार ग़ैरकांग्रेसी सरकार का गठन हुआ।
 
इसमें पवार की समाजवादी कांग्रेस, जनता पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और शेतकरी कामगार पक्ष शामिल थे। इस नए गठबंधन का नाम रखा गया 'प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट'। महज 38 साल की उम्र में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर उस समय वे भारत के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बन गए थे। पवार की ये सरकार सिर्फ़ 18 महीने चल पाई थी।
 
मुख्यमंत्री बनते ही पवार ने राज्य के सरकारी कर्मचारियों का भत्ता बढ़ाने का फैसला लिया। उन्होंने ये व्यवस्था की कि केंद्र सरकार के कर्मचारियों का वेतन बढ़ने के साथ ही राज्य सरकार के कर्मचारियों का वेतन भी बढ़ जाएगा।
 
चोरमारे बताते हैं, 'इस दौरान दिल्ली में राजनीतिक गतिविधियाँ तेज़ हो गई थीं। इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बन गई थीं। वहीं, जनता पार्टी बिखर रही थी। देश में फिर से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बना। 17 फरवरी 1980 को शरद पवार की सरकार की बर्खास्तगी के ऑर्डर पर राष्ट्रपति ने मुहर लगा दी।
 
महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। 1980 में फिर चुनाव हुए, इंदिरा कांग्रेस को अच्छी सीटें मिली थीं। पवार की समाजवादी कांग्रेस को चुनाव में मुंह की खानी पड़ी। एआर अंतुले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने। लगभग छह सालों तक पवार की समाजवादी कांग्रेस विपक्ष में बैठी। 1987 में राजीव गांधी के नेतृत्व में उन्होंने फिर से कांग्रेस का दामन थामन लिया।'

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