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कांग्रेस का बवंडर सिंधिया और सचिन पायलट तक थमेगा या सब उड़ा ले जाएगा?

कांग्रेस का बवंडर सिंधिया और सचिन पायलट तक थमेगा या सब उड़ा ले जाएगा?

BBC Hindi

, बुधवार, 15 जुलाई 2020 (08:58 IST)
ज़ुबैर अहमद, बीबीसी संवाददाता
"हमारी पार्टी पीछे नहीं हुई है, बीजेपी हम से कहीं आगे निकल चुकी है''। इस तरह की एक जैसी प्रतिक्रिया ज़मीन से जुड़े कांग्रेस के कई कार्यकर्ताओं की थी।
 
पार्टी में हर दिन आने वाले संकट को देखने का ये नज़रिया दिलचस्प था। अगर आप राजस्थान का ही उदाहरण लें जहाँ पार्टी इस समय एक बड़े संकट से गुज़र रही है तो पता चलेगा कि इस तर्क में सच्चाई है। यहाँ पार्टी ने 2018 में सत्तारूढ़ बीजेपी को हराया था।
 
इससे पहले वाले विधान सभा चुनाव में पार्टी की बीजेपी के हाथों करारी शिकस्त हुई थी। इस बात का डर है कि पार्टी राजस्थान में एक बार फिर सत्ता खो सकती है लेकिन किसी भी तरीक़े से ये नहीं कहा जा सकता कि राज्य में पार्टी पीछे हो गई है।
 
लेकिन ये भी सच है कि पहले मध्य प्रदेश और अब राजस्थान में कांग्रेस के अंदर बग़ावत ने 135 साल पुरानी पार्टी के रैंक और फाइल में खलबली मचा दी है, इसके कार्यकर्ताओं का मनोबल कमज़ोर कर दिया है
 
सियासी गलियारों में चर्चा आम है कि सचिन पायलट के खेमे से बग़ावत की बू मार्च से ही आने लगी थी। लेकिन सियासी विशेषज्ञ हैरान हैं कि पार्टी का हाई कमान इसे सूंघने में नाकाम क्यों रहा और अगर सूंघा तो इसका इलाज क्यों नहीं किया।
 
कांग्रेस पार्टी 2014 के आम चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद से अंदरूनी विद्रोहों का सामना करती आ रही है। इसके सामने कई चुनौतियाँ हैं। राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी चारों खाने चित नज़र आती है। आख़िर इस का इतना बुरा हाल कैसे हुआ? लोग पार्टी छोड़ कर क्यों जाना चाहते हैं?
 
नेहरू-गांधी परिवार
ज्योतिरादित्य सिंधिया को बीजेपी में लाने और सचिन पायलट को लाने की कोशिशों में जुड़े बीजेपी के कुछ लोगों का कहना है कि इसकी वजह गाँधी परिवार है, ख़ास तौर से सोनिया गाँधी।
 
उनका दावा था, "सोनिया गाँधी नहीं चाहती हैं कि बेटे राहुल गाँधी के मुक़ाबले कोई नेता ऊपर उभरे और वो बेटे के लिए एक चुनौती बने। उन्होंने बेटे को प्रोटेक्ट करने के लिए सिद्धांतों और मेरिट को क़ुर्बान कर दिया है, यहाँ तक कि बेटी(प्रियंका गाँधी) के करियर को भी आगे बढ़ने नहीं दिया।"
 
आम धारणा ये है कि बीजेपी इन नेताओं को कांग्रेस से निकलने पर मजबूर कर रही है लेकिन बीजेपी सूत्रों के अनुसार, "हम ने इन्हें न्यौता नहीं दिया था, ये ख़ुद हमारे पास आए हैं। इसकी वजह ये है कि वो गाँधी परिवार के कारण आगे नहीं बढ़ पाएंगे और राहुल गाँधी की लीडरशीप और उनकी सियासी समझ बूझ पर उन्हें बिलकुल भरोसा नहीं रहा था। ये तो छोड़िये, हमारी पार्टी में आने के लिए कांग्रेस वालों की लाइन लगी हुई है लेकिन हम उन्हें ही अपनी पार्टी में शामिल करना चाहते हैं जिनके अंदर टैलेंट है।"
 
मुंबई की युवा नेता भावना जैन सालों तक अमरीका में रह कर जब भारत लौटीं तो सोनिया गाँधी से प्रभावित हो कर कांग्रेस पार्टी से जुड़ गईं।
 
वो ये नहीं मानतीं कि सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी से किसी को कोई समस्या है। वो कहती हैं, "गाँधी परिवार को सोशल मीडिया पर बदनाम किया जा रहा है जिसमें कुछ बिका हुआ मीडिया, सोशल मीडिया और कुछ फ़िल्म स्टार शामिल हैं। इन्हें देश द्रोही की तरह से पेश किया जाता है। ये हिटलर शाही जैसा है। ये एक बड़ा संघर्ष है जिसे हम काउंटर करने की कोशिश कर रहे हैं।"
 
भावना जैन गाँधी परिवार की पार्टी के अंदर पूरी तरह से लोकप्रिय होने को 100 प्रतिशत सच मानती हैं। "कार्यकर्ताओं में सोनिया जी और राहुल गाँधी के लिए निष्ठा है। जब राहुल जी अध्यक्ष चुने गए थे मैं ने ख़ुद देखा है कि सभी ने राहुल जी के नाम पर मुहर लगाई और देश के सारे राज्यों में ऐसा हुआ"
 
मथुरा में पार्टी के एक युवा नेता ने कहा कि राहुल गाँधी गाँधीवादी हैं और उनकी लोकप्रियता पर किसी को शक नहीं। वो स्वीकार करते हैं कि पार्टी में कुछ सीनियर नेता ऐसे हैं जिन्होंने पिछले आम चुनाव में उनका साथ नहीं दिया। उनका कहना था कि चुनावी सियासत में शिकस्त और जीत तो होती रहती है। इससे किसी नेता के क़द का अंदाज़ा लगाना ठीक नहीं है
 
दक्षिणपंथी थिंक टैंक श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फ़ाउंडेशन के निदेशक डॉक्टर अनिर्बान गांगुली ने कांग्रेस की दशा पर गहरा अध्ययन किया है।
 
वो कहते हैं कि गाँधी परिवार कांग्रेस पार्टी में गले के फंदे की तरह से बन कर रह गया है। "कांग्रेस के भीतर कई लोगों को एहसास है कि परिवार पार्टी के गले में फन्दा बन गया है। इसलिए कुछ नेता बाहर निकलते हैं और कुछ लोग ये महसूस करते हैं कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है तो वो पार्टी के अंदर ही रहना पसंद करते हैं।"
 
गाँधी परिवार के क़रीब रहे लखनऊ के अखिलेश प्रताप सिंह कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता हैं और प्रवक्ता भी। उनके अनुसार गाँधी परिवार पार्टी की समस्या बिल्कुल नहीं है। वो यक़ीन के साथ कहते हैं कि पार्टी उनके नेतृत्व ने आगे बढ़ी है।
 
पुनर्गठन पर अब तक ध्यान नहीं
 
डॉक्टर अनिर्बान गांगुली के विचार में पार्टी अनिश्चितता का शिकार है। "कांग्रेस पार्टी अपने आप को बदलने में नाकाम रही है। आत्मनिरीक्षण अब तक नहीं किया है"
 
डॉक्टर गांगुली ने बीजेपी में अमित शाह के योगदान पर पिछले साल एक किताब भी लिखी है। वो आगे कहते हैं, "अमित शाह ने पार्टी का संपूर्ण पुनर्गठन किया। कांग्रेस ने राजनीतिक और वैचारिक कायाकल्प का गंभीर अभ्यास नहीं किया है।"
 
लेकिन भावना जैन जो अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से जुड़ी रहती हैं, वो कहती हैं कि पार्टी में काफ़ी बदलाव आया है। उनके अनुसार राहुल गाँधी ने 2014 चुनाव के पहले पार्टी के ढांचे को और इसकी विचारधारा को और साफ़ करने की कोशिश की है। वो कहती हैं कि जहाँ तक संगठनात्मक क्षमता का सवाल है उनकी पार्टी से बेहतर संगठित और कोई पार्टी नहीं है। हमारी पार्टी सबसे पुरानी है और हमारी पार्टी के ढांचे को दूसरी पार्टियों ने अपनाया है।"
 
वो ये ज़रूर मानती हैं कि सोशल मीडिया और संचार के दूसरे माध्यम में पार्टी कुछ पीछे है जिस पर काम चल रहा है
 
अखिलेश प्रताप सिंह भी पुनर्गठन की ज़रूरत के तर्क को नहीं मानते। वो समय-समय पर रणनीति बदलने की सलाह देते हैं। उनके अनुसार पार्टी का ढाँचा मज़बूत है और नेतृत्व सही हाथों में है। "ज़रूरत केवल थोड़ी रणनीति बदलने की है"।
 
उनके अनुसार ये काम हो रहा है। इसका उदाहरण देते हुए वो कहते हैं कि हाल में गुजरात में युवा पटेल नेता हार्दिक पटेल को प्रदेश का कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया जाना सही दिशा में एक अहम क़दम है।
 
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार और सियासी विश्लेषक वीरेंदर नाथ भट्ट भी हार्दिक पटेल के चयन को कांग्रेस का एक सकारात्मक क़दम मानते हैं। "नरेंद्र मोदी के बाद इस समय गुजरात में सब से लोकप्रिय नेता हार्दिक पटेल हैं। उनका अध्यक्ष बनाया जाना अगले विधानसभा के चुनाव (2022) की तैयारी भी है और गुजरात में बीजेपी को चुनौती भी।
 
काडर नहीं केवल कार्यकर्ता
 
कांग्रेस की सोशल मीडिया से जुड़े एक युवा पार्टी कार्यकर्ता ने अपना नाम न देने की शर्त पर अपनी पार्टी की कमज़ोरी की वजह ये बताई, "हमारी पार्टी आंदोलन से निकल कर बनी है। हम काडर नहीं बना पाए। हमारे पास कार्यकर्ता हैं लेकिन कमिटेड काडर नहीं हैं। पार्टी व्यक्ति विशेष बन कर रह गई। बीजेपी काडर से बनी है। इसी लिए जब कल्याण सिंह और उमा भारतीय पार्टी से अलग हुए तो पार्टी को नुकसान नहीं हुआ।"
 
उनका कहना था कि "काडर विचारधारा से बनता है जबकि वर्कर पार्टी से बनता है।"
 
अलवर के युवा कांग्रेस के नेता सी शॉन इस तर्क से सहमत हैं लेकिन वो अपनी बात यूँ रखते हैं, "हमारे पास भी काडर हैं लेकिन गड़बड़ यह है कि इनके अंदर कमिटमेंट की कमी है।"
 
कांग्रेस पार्टी की आख़िरी इकाइयों में, यानी गाँव के स्तर पर, कार्यकर्ता सीज़नल होते हैं। साल 2018 के अंत में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पार्टी की जीत के बाद मैंने कई राज्यों का दौरा किया था। मैंने पूर्वी उत्तर प्रदेश, तमिल नाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कांग्रेस के कई कार्यकर्ताओं से मुलाक़ात की थी। उनका मनोबल ऊंचा था। मुझे बताया गया कि इन तीन राज्यों में चुनावी जीत के बाद पार्टी में ऐसे कार्यकर्ता शामिल हो रहे हैं जो पार्टी छोड़ कर चले गए थे।
 
महाराष्ट्र में मुझे ये भी बताया गया कि जब कोई ज़िला या राज्य स्तर का नेता पार्टी छोड़ता है तो अपने साथ पार्टी में अपने समर्थक कार्यकर्ताओं को भी साथ ले जाता है और इस इकाई को दोबारा मज़बूत बनाना आसान नहीं होता।
 
छत्तीसगढ़ के कांग्रेस के युवा नेता प्रणव दास वैष्णव कहते हैं कि पार्टी में जोश है और काम करने वालों की कमी नहीं। लेकिन वो ये स्वीकार करते हैं कि पार्टी में अहम फैसले लेने में देरी होती है। जिससे बाद में पार्टी को दिक़्क़त होती है।
 
पैसा, बाहुबल और मीडिया
 
कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से बात करके महसूस हुआ कि इन दिनों अंग्रेज़ी अक्षर M से शुरू होने वाले तीन शब्दों से पार्टी परेशान है- money (पैसा) , muscle (ताक़त) और media (पारंपरिक मीडिया और सोशल मीडिया)। भावना जैन का कहना है, "उनके पास (बीजेपी के पास) पैसे, बाहुबल और मीडिया की शक्ति है। हम इसका मुक़ाबला कर रहे हैं लेकिन हमारे लिए ये एक बड़ा संघर्ष है।"
 
अखिलेश प्रताप सिंह के अनुसार बीजेपी सत्ता हासिल करने के लिए कोई भी तरीक़ा इस्तेमाल कर सकती है। "बीजेपी को हम मॉडर्न पार्टी नहीं मानते। आज की बीजेपी किसी भी स्तर पर चली जाती है। सोशल मीडिया हो या दूसरे साधनों का, बीजेपी सकारात्मक इस्तेमाल करने के बजाय नकारात्मक इस्तेमाल करती है।" लेकिन वो ये स्वीकार करते हैं कि पार्टी को विपक्ष के हिसाब से "अपनी स्ट्रैटिजी बदलनी चाहिए"।
 
भावना जैन के मुताबिक़ सोशल मीडिया पर "हम देर से" आए जिसका ख़ामियाज़ा पार्टी को उठाना पड़ रहा है।
 
"अन्ना आंदोलन के दौरान सोशल मीडिया ने एक बड़ी भूमिका निभाई। पार्टी के ख़िलाफ़ एक नैरेटिव बना। हमारी पहली ग़लती ये थी कि हम ने इसे काउंटर नहीं किया। दूसरा ये कि हम सोशल मीडिया पर देर से आए। हम इस ग़लती को 2014 से सही करने में लग गए और इसमें आगे बढ़ने की कोशिश जारी है।"
 
आज की राजनीति 24x7
 
वीरेंदर नाथ भट्ट कांग्रेस की तमाम कमज़ोरियों पर एक दो ख़ास कमियों को भारी मानते हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस के नेताओं में सुस्ती आ गई है।
 
वो कहते हैं, "पहली ये कि अब राजनीति 24x 7 वाला काम है। राहुल गाँधी 24x 7 सियासी लीडर नहीं हैं। ऐसे में रिलवेंट बने रहना मुश्किल काम है।"
 
वो आगे कहते हैं, "छह साल में कांग्रेस अभी तक ऑल इंडिया स्तर पर एक स्वीकृत सियासी नैरेटिव मोदी के ख़िलाफ़ विकसित नहीं कर सकी है जब भी कोई नया मुद्दा उभरता है राहुल और प्रियंका की तरफ़ से एक ट्वीट आ जाता है। अब क्या ट्वीट्स के बल पर राजनीति की दिशा तय होगी?
 
वरिष्ठ पत्रकार भट्ट राहुल और कांग्रेस पार्टी से चुभता सा सवाल करते हैं, "आपने देश में मोदी-विरोधी या भाजपा-विरोधी ताक़तों का साथ देने के लिए क्या किया है? योगेंद्र यादव (नेता) हमेशा से कहते रहे हैं कि कांग्रेस मोदी विरोधी ताक़तों के गठन में मुख्य बाधा है"।
 
डॉक्टर अनिर्बान गांगुली की निगाह में कांग्रेस की नाकामियों में से एक बहुत अहम नाकामी है इसका एक असरदार विपक्षी दल बन कर उभरने में नाकाम होना। उनके अनुसार पार्टी अब भी ख़ुद को, सच्चाई से परे, सत्तारुढ़ पार्टी समझती है।
 
अब जब सब की निगाहें राजस्थान पर टिकी हैं पार्टी के नेताओं की चुनौती ये होगी कि वो इस संकट से पार्टी को सफलतापूर्वक कैसे निकाल सकते हैं।

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