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अमेरिका से लेकर श्रीलंका तक खाने की कमी की क्या वजहें हैं?

अमेरिका से लेकर श्रीलंका तक खाने की कमी की क्या वजहें हैं?

BBC Hindi

, रविवार, 21 अगस्त 2022 (07:55 IST)
स्टेफ़नी हेगार्टी, पॉपुलेशन रिपोर्टर, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस
दुनिया भर में खाने-पीने का सामान महंगा होता जा रहा है और खाद्य पदार्थों की कमी भी महसूस की जा रही है। लोग इन बदलते हालात का सामना करने के लिए खुद को तैयार भी कर रहे हैं। इसका मतलब ये है कि लोग अपने खाने-पीने की आदतों में बदलाव ला रहे हैं।
 
अमेरिका में सुबह चार बजे से शुरू होती है खाने की तलाश
सुबह का चार बज रहा है, अमेरिकी प्रांत जॉर्जिया में चिपचिपी गर्मियों वाला मौसम है। और डॉना मार्टिन अपने दफ़्तर पहुंच रही हैं। उनके सामने अपने स्कूली ज़िले के बच्चों का पेट भरने की चुनौती है। मार्टिन एक फूड सर्विस डायरेक्टर हैं जिन पर उनके ज़िले के 4200 बच्चों का पेट भरने की ज़िम्मेदारी है। ये सभी बच्चे अमेरिका के फेडरल फ्री स्कूल मील्स प्रोग्राम से जुड़े हुए हैं।
 
वह कहती हैं, 'यहां 22 हज़ार लोगों के समुदाय में सिर्फ दो किराने की दुकाने हैं। ये जगह खाद्यान्न का रेगिस्तान जैसा है।' पिछले एक साल से वह ज़रूरी खाद्य सामग्री जुटाने में चुनौती महसूस कर रही हैं।
 
बीते जुलाई माह में सालाना खाद्यान्न महंगाई दर 10.9 फ़ीसद हो गई है जो 1979 के बाद सबसे ज़्यादा है। खाने-पीने के सामान की कीमतें बढ़ने की वजह से डॉना मार्टिन के वेंडरों (विक्रेताओं) ने उन्हें सामान बेचना बंद कर दिया है।
 
डॉना कहती हैं, "वे कह रहे हैं कि आप लोग बहुत नुक्ता-चीनी करते हैं और आपको सामान बेचकर बहुत लाभ भी नहीं होता है।"
 
अमेरिका के फेडरल स्कूल मील्स प्रोग्राम में नियमों का बेहद सख़्ती के साथ पालन होता है। इसके एक नियम के तहत खाने-पीने के सामान में चीनी और नमक की मात्रा कम होनी चाहिए। मतलब ये है कि डॉना मार्टिन को अनाज से लेकर बेगल (गोल ब्रेड) और योगर्ट जैसी चीज़ों की ख़ास किस्में मंगवानी पड़ती हैं।
 
डॉना स्वीकार करती हैं कि उनके वेंडर भी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। लंबे समय से मज़दूर नहीं मिल पा रहे हैं जिसकी वजह से उनके वेंडर ड्राइवर नहीं जुटा सकते। पिछले एक साल में ईंधन की कीमतों में भी 60 फीसदी की बढ़त हुई है।
 
* बीती जुलाई में अमेरिका की सालाना खाद्यान्न महंगाई दर 10.9 फ़ीसद थी
* अमेरिकी अपनी कमाई का 7.1 फ़ीसद हिस्सा खाने-पीने पर खर्च करते हैं
 
जब डॉना को उनके वेंडरों से ज़रूरत की चीज़ें नहीं मिलती हैं तो उन्हें खुद इसके लिए हाथ-पैर मारने पड़ते हैं। हाल ही में जब उन्हें पीनट बटर (मूंगफली का बटर) नहीं मिला, जो बच्चों को पसंद है, तो उन्हें बीन डिप से काम चलाना पड़ा। वह कहती हैं, "मुझे पता था कि बच्चों को ये उतना पसंद नहीं आएगा लेकिन मुझे किसी न किसी तरह उनका पेट तो भरना ही है।"
 
अक्सर उन्हें और उनके सहयोगियों को तड़के सुबह और देर रात जागकर अलग-अलग वॉलमार्ट स्टोर के चक्कर काटने पड़ते हैं। वह कहती हैं, "एक हफ़्ते हमें हर रोज़ पूरे शहर से योगर्ट ख़रीदना पड़ा। ऐसे तमाम बच्चे हैं जो स्कूल आने के लिए उत्साहित हैं। मैं नहीं चाहती कि वे घर जाकर कहें कि 'माँ, हमें आज स्मूदी नहीं मिला।'"
 
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श्रीलंका में कटहल ने दिया सहारा
श्रीलंका के कैंडी शहर के बाहर रहने वालीं अनोमा कुमारी परंथला का एक सब्ज़ियों का बगीचा है जिसमें कभी धान उगाए जाते थे। लेकिन अब वह इसमें हरी सेम और पुदीना तोड़ रही हैं।
 
यहां खड़े होकर देखें तो पता नहीं चलता कि श्रीलंका इन दिनों किस अफ़रा-तफ़री से जूझ रहा है। श्रीलंका की सरकार से लेकर अर्थव्यवस्था भारी संकट का सामना कर रही है।
 
इन दिनों यहां हर चीज़ की कमी महसूस की जा रही है जिनमें दवाएं, ईंधन और खाद्य सामग्री शामिल है। अच्छी नौकरी वाले लोग भी सामान्य चीज़ें ख़रीदने में संघर्ष कर रहे हैं।
 
परंथला कहती हैं, "अब लोग अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। उन्हें डर है कि आगे खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं होगा।" ये ज़मीन उनके परिवार की है। उन्होंने महामारी के दौरान यहां यूं ही सब्ज़ियां उगाना शुरू किया था, लेकिन अब उनका जीवन इस पर टिका है।
 
* बीती जून में श्रीलंका में सालाना खाद्यान्न महंगाई दर में 75.8 फीसद का इज़ाफ़ा हुआ है
* श्रीलंकाई लोग अपनी आमदनी का 29.6 फीसद पैसा खाने-पीने पर ख़र्च करते हैं
 
परंथला ने किताबों और यूट्यूब की मदद से सब्ज़ियां उगाना सीखा है। अब उनके बगीचे में टमाटर, पालक, लौकी, अरबी और शकरकंदी लगी हुई है।
 
श्रीलंका में सभी इतने किस्मत वाले नहीं हैं कि उनके पास इतनी ज़मीन हो। लेकिन लगभग सभी घरों में कटहल के पेड़ होते हैं।
 
परंथला कहती हैं, "हर बगीचे में एक कटहल का पेड़ होता है। लेकिन अब तक लोग कटहल पर ध्यान नहीं देते थे। वे पेड़ों से गिरकर खराब हो जाते थे।"
 
अनोमा परंथला ने कटहल और नारियल की सब्ज़ी बनाना शुरू किया है, ताकि मांस या महंगी सब्ज़ियों को ख़रीदने से बचा जा सके।
 
कटहल अब एक लोकप्रिय व्यंजन के रूप में भी उभर रहा है जिसे बाज़ार में बेचा जा रहा है। कुछ लोग कटहल के बीजों कों पीसकर रोटियों के लिए आटा बना रहे हैं।
 
कुछ साल पहले कटहल दुनिया भर के बड़े रेस्तराओं में मांस के विकल्प के रूप में सामने आया था। लेकिन श्रीलंका में लोकप्रियता हासिल करने के लिए इसे एक व्यापक संकट का इंतज़ार करना पड़ा।
 
लेकिन इसका स्वाद कैसा है...? इस सवाल पर अनोमा परंथला कहती हैं कि "ये ऐसा स्वाद है जिसे बयां नहीं किया जा सकता। ये बेहतरीन है।"
 
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नाइजीरिया में आटा, अंडे और चीनी का संकट
नाइजीरिया में रहने वाले इमैनुअल ओनुओरा को राजनीति में कम दिलचस्पी है। वह ब्रेड बनाते हैं और उन्हें बेचना चाहते हैं। लेकिन हाल के दिनों में उनके लिए ये काम करना असंभव सा हो गया है।
 
वह कहते हैं, "पिछले एक साल में गेहूं के आटे की कीमत में 200 फ़ीसद से ज़्यादा का इज़ाफ़ा हुआ है। चीनी के दाम भी 150 फ़ीसद से ज़्यादा बढ़ गए हैं। और अंडे जिन्हें हम बेकिंग में इस्तेमाल करते हैं, उनकी कीमतों में 120 फ़ीसद की बढ़ोतरी हुई है।"
 
इमैनुअल बताते हैं कि वह "नुक़सान उठा रहे हैं।" उन्हें अपने 350 में से 305 कर्मचारियों को निकालना पड़ा। वह पूछते हैं, "वे लोग अपने परिवारों को कैसे पालेंगे?"
 
इमैनुअल नाइजीरिया की प्रीमियम ब्रेड मेकर एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं और इस समय वह ब्रेड बनाने वालों की ओर से सरकार पर दबाव डालने की कोशिश कर रहे हैं। जुलाई में उन्होंने चार दिनों के लिए लगभग पांच लाख बेकरियों को बंद करवाए रखा। उन्हें उम्मीद थी कि सरकार इस विरोध प्रदर्शन की वजह से उन चीज़ों पर टैक्स घटाएगी जिन्हें ब्रेड बनाने वाले आयात करते हैं।
 
महामारी के बाद ख़राब फसल और बढ़ी मांग की वजह से दुनिया भर में गेहूं और वनस्पति तेल के दाम बढ़ गए हैं। इसके बाद यूक्रेन पर हमला होने से स्थितियां और ख़राब हो गयीं।
 
नाइजीरिया में ब्रेड बनाने के लिए ज़्यादातर चीज़ों को आयात किया जाता है। लेकिन यूरोप की तुलना में नाइजीरिया में ब्रेड का विक्रय मूल्य काफ़ी कम है।
 
* बीती जुलाई में नाइजीरिया में सालाना खाद्यान्न महंगाई दर 22 फीसद हो गई है
* नाइजीरियाई लोग अपनी आमदनी का 59.1 फीसद ख़र्च खाने-पीने पर करते हैं
 
नाइजीरिया बिजली की भारी कमी से भी जूझता है। ऐसे में ज़्यादातर कारोबारियों को अपना व्यवसाय चलाने के लिए निजी डीज़ल जेनरेटर का इस्तेमाल करना पड़ता है। लेकिन ईंधन के दामों में भी 30 फीसद की बढ़त हो गयी है।
 
वैसे तो नाइजीरिया एक तेल समृद्ध देश है लेकिन यहां तेल शोधन केंद्र कम हैं और इसे लगभग अपना पूरा डीज़ल आयात करना पड़ता है। इमैनुअल कहते हैं कि उनकी लागत तीन गुना बढ़ गयी है लेकिन वह अपनी ब्रेड के दाम में बस दस-बारह फीसद की बढ़त कर सकते हैं। क्योंकि उनके ग्राहक इससे ज़्यादा कीमत पर ब्रेड नहीं ख़रीद सकते।
 
वह कहते हैं, "नाइजीरियाई काफ़ी ग़रीब हैं। काम धंधे बंद हो रहे हैं और तनख़्वाहें बढ़ नहीं रही हैं। हम उन पर हद से ज़्यादा भार नहीं डाल सकते।"
 
औसतन, एक नाइजीरियाई शख़्स अपनी आमदनी का 60 फीसद हिस्सा खाने-पीने पर ख़र्च करता है। अमेरिका में यही आंकड़ा इसके उलट मात्र सात फीसद है। लेकिन इस तरह लगातार ब्रेड बनाते रहना इमैनुअल के लिए संभव नहीं होगा।
 
वह कहते हैं, "हम दानार्थ संस्था नहीं हैं। हम लाभ कमाने के लिए इस बिज़नेस में हैं। लेकिन हम लगे हुए हैं ताकि नाइजीरियाई लोग अपना पेट भर सकें।"
 
सामुदायिक किचन जो 75 लोगों का पेट भरता है
पहाड़ी पर ले जाने वाले संकरे रास्ते पर चढ़ते हुए जस्टिना फ़्लोरेस लीमा शहर को देखते हुए सोचती हैं कि वह आज क्या खाना बनाएंगी। ये एक ऐसी समस्या है जो उनके लिए हर दिन विकट होती जा रही है।
 
महामारी के दौरान उन्होंने अपने साठ पड़ोसियों के साथ मिलकर एक सामुदायिक किचन बनाया था। इनमें से ज़्यादातर लोग रसोइये, नौकरानी, और माली के रूप में काम करते थे। लेकिन फ़्लोरेस की तरह महामारी के दौरान इनमें से ज़्यादातर लोगों की नौकरियां चली गयीं। इन लोगों के लिए अपने परिवारों को पालना मुश्किल हो रहा था।
 
ऐसे में इन्होंने जस्टिना फ़्लोरेस के घर के बाहर खाना बनाना शुरू कर दिया। ईंधन के लिए वे बीनी हुई लकड़ी इस्तेमाल करते थे।
 
कुछ समय बाद इन्होंने एक छोटी सी झोपड़ी बनाई और एक स्थानीय पादरी ने उन्हें स्टोव उपलब्ध करवाया। जस्टिना फ़्लोरेस ने बाज़ार में दुकानदारों से खाने-पीने की वो चीज़ें दान करने की अपील की जो सामान्य तौर पर बर्बाद हो जाती थीं।
 
दो साल बाद जस्टिना फ़्लोरेस और उनके साथियों का ये सामुदायिक किचन हफ़्ते में तीन दिन 75 लोगों का पेट भर रहा है। महामारी से पहले एक किचन में सहयोगी के रूप में काम करने वाली जस्टिना फ़्लोरेस इन लोगों की नेता बन गयी हैं। वह कहती हैं, "मैं मदद के लिए दरवाज़े खटखटाती रही।"
 
* बीती जुलाई पेरू में सालाना खाद्यान्न महंगाई दर 11।59 फ़ीसद थी
* पेरू में लोग अपनी आमदनी का 26।6 फ़ीसद हिस्सा खाने-पीने पर ख़र्च करते हैं
 
वह मांस और सब्ज़ियों के साथ बेहतरीन स्टू बनाया करती थीं जिसे चावल के साथ परोसा जाता था। लेकिन पिछले कुछ महीनों में डोनेशन मिलना कम हो गयी है और हर तरह के खाने-पीने के सामान में कमी आ गयी है।
 
वह कहती हैं कि "हम मजबूर हैं, हमें अब कम खाना परोसना पड़ रहा है।" फ़्लोरेस के लिए अब चावल जैसी सामान्य चीज़ें जुटाना भी मुश्किल हो रहा है।
 
अप्रैल में खाद एवं ईंधन की कीमतों में बढ़त के बाद कृषि एवं ट्रांसपोर्ट क्षेत्र में काम करने वालों की हड़ताल हुई थी। इसके बाद कई और हड़तालें हुईं जिनसे खाद्य आपूर्ति प्रभावित हुई।
 
हाल ही में महंगाई बढ़ने की वजह से फ़्लोरेस को मांस इस्तेमाल करना बंद करना पड़ा। उन्होंने खून, लिवर, और हड्डियों का इस्तेमाल किया क्योंकि वे सस्ते थे। जब लिवर भी महंगे हो गए तो उन्होंने भुने हुए अंडे खिलाने शुरू कर दिए। जब तेल के दाम आसमान छू गए तो उन्होंने लोगों से अपने घरों से अंडे पकाकर लाने को कहा। अब अंडे भी उपलब्ध नहीं हैं।
 
आज फ़्लोरेस प्याज़ और अन्य चीजों से बने सॉस के साथ पास्ता दे रही हैं। फ़्लोरेस खाने की कमी और हड़तालों के लिए किसानों को ज़िम्मेदार नहीं ठहराती हैं। वह कहती हैं, "हम यहां पेरू में खाद्य सामग्री उगा सकते हैं लेकिन सरकार मदद नहीं कर रही है।"
 
जॉर्डन में मुर्गे का किया गया बायकॉट
बीती 22 मई को एक अज्ञात ट्विटर यूज़र ने अरबी भाषा में एक ट्वीट लिखा। इस ट्वीट में उसने चिकन मीट से जुड़े उत्पादों की तस्वीरों को 'बायकॉट ग्रीडी चिकन कंपनीज़' हैशटैग के साथ टैग करने के लिए कहा। इसके कुछ दिन बाद जॉर्डन में सलम नसराला सुपरमार्केट से अपने घर की ओर जा रही थीं कि तभी उन्हें इस कैंपेन के वायरल होने के बारे में पता चला।
 
नसराला कहती हैं, "हमें हर तरफ़ से इस बारे में सुनाई दिया। हमारे घरवाले और दोस्त इस बारे में बात कर रहे थे। और ये सोशल मीडिया से लेकर टीवी पर छाया हुआ था।"
 
उन्होंने सुपरमार्केट से मिले अपने शॉपिंग बिल में चीज़ों के बढ़े हुए दामों को देखा तो खुद को इस मुहिम का समर्थन करने से रोक नहीं पाईं। सलम नसराला दो बच्चों की माँ हैं और अपने माता-पिता, बहनों, भतीजियों और भतीजों के लिए खाना बनाती हैं। और वह बहुत सारा चिकन ख़रीदती हैं। उन्हें लगा कि उन्हें भी इसमें हिस्सा लेना चाहिए।
 
इसके बाद अगले दस दिनों के लिए उन्होंने चिकन से दूरी बना ली। ये मुश्किल था। क्योंकि दूसरी तरह के मांस और मछली महंगी थी। सलम और उनका परिवार लगभग हर रोज़ चिकन खाता था। लेकिन उन्होंने हमस, फलाफल और बैंगन खाया। ये कैंपेन शुरू होने के 12 दिन बाद चिकन के दामों में 1 डॉलर प्रति किलो का अंतर आया।
 
* बीती जुलाई में जॉर्डन में सालाना खाद्यान्न महंगाई दर 4।1 फीसद तक पहुंच गयी
* जॉर्डन के लोग अपनी आमदनी का 26।9 फीसद पैसा खाने-पीने पर ख़र्च करते हैं
 
चिकन फार्म और बूचड़खाने चलाने वाले रामी बरहॉश बायकॉट करने के विचार का समर्थन करते हैं। लेकिन वह मानते हैं कि हालिया कैंपेन ग़लत था। उनका फार्म भी इस साल की शुरुआत से ही ईंधन और मुर्गे-मुर्गियों को खिलाने वाले सामान के बढ़े हुए दामों से जूझ रहा है।
 
वैश्विक कारणों की वजह ईंधन एवं अनाज के दामों में बढ़त हुई है। इनमें स्वाइन फ़्लू के बाद चीन द्वारा अपने यहां सुअर की आबादी बढ़ाने की योजना, दक्षिण अमेरिका में सूखा और यूक्रेन में युद्ध शामिल है।
 
जॉर्डन की सरकार ने चिकन की कीमतों पर लगाम लगाने के लिए एक उच्चतम मूल्य तय करने का प्रस्ताव रखा था। इस पर चिकन फार्म चलाने वाले तैयार भी हो गए। लेकिन मई में उन्हें कीमतें बढ़ाने के लिए मजबूर होना पड़ा जिसके बाद सोशल मीडिया पर बायकॉट शुरू हुआ।
 
वह कहते हैं, "चिकन की वजह से लोगों का वो रोष सामने आया है जो कि अन्य सभी चीज़ों के दाम बढ़ने की वजह से भी था।"
 
सलम नसराला इस बात से ख़ुश थीं कि विरोध का कुछ असर हुआ लेकिन वे इस बात से निराश हैं कि ये विरोध मुख्य मुद्दे तक नहीं पहुंचा।
 
वह कहती हैं, "दुर्भाग्य से, छोटे किसान और मुर्गे बेचने वालों को ज़्यादा नुकसान हुआ। और उन बड़े व्यापारियों पर असर नहीं हुआ जो हर उस चीज़ की कीमत बढ़ाते हैं जिसकी एक किसान को ज़रूरत होती है।"
 
सुनेथ परेरा, ग्वाडलुपे पर्डो, रिहम अल बक़ीन की अतिरिक्त रिपोर्टिंग के साथ

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