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राहुल गांधी अहम मौक़ों पर अक्सर विदेश क्यों चले जाते हैं?

राहुल गांधी अहम मौक़ों पर अक्सर विदेश क्यों चले जाते हैं?
, बुधवार, 30 दिसंबर 2020 (10:11 IST)
अनंत प्रकाश, बीबीसी संवाददाता
राहुल गांधी इतने अहम समय में विदेश क्यों चले गए...? ये एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब देना कांग्रेस पार्टी के लिए अब थोड़ा मुश्किल होता जा रहा है? क्योंकि ये पहला मौक़ा नहीं है जब राहुल गाँधी ने अपने व्यक्तिगत जीवन को राजनीतिक जीवन से ज़्यादा तवज्जो दी हो।
 
इससे पहले कई मौक़ों पर राहुल गांधी अकेले और सपरिवार जन्मदिन मनाने से लेकर नये साल का जश्न मनाने के लिए विदेश जा चुके हैं। कई मौक़ों पर कांग्रेस पार्टी को राहुल गाँधी के विदेश दौरों की वजह से राजनीतिक नुक़सान भी उठाना पड़ा है। लेकिन इसके बावजूद राहुल गाँधी के विदेश दौरों में कमी नहीं आई है।
 
प्रियंका के पास जवाब नहीं
बीती 28 दिसंबर को कांग्रेस के 136वें स्थापना दिवस के मौक़े पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और अंतरिम अध्यक्षा सोनिया गांधी अनुपस्थित रहीं।
 
राहुल इस कार्यक्रम से ठीक एक दिन पहले इटली के लिए रवाना हुए हैं। और सोनिया गांधी की तबियत ख़राब होने की वजह से कार्यक्रम की ज़िम्मेदारी प्रियंका गाँधी को संभालनी पड़ी।
 
लेकिन जब पत्रकारों ने प्रियंका गाँधी से पूछा कि आख़िर राहुल गांधी क्यों नहीं आए तो वह इसका जवाब दिए बग़ैर चली गईं। कांग्रेस की ओर से रणदीप सुरजेवाला समेत तमाम अन्य नेता इस पर बचाव की मुद्रा में नज़र आए।
 
कांग्रेस पार्टी की ओर से कहा गया है कि राहुल गांधी अपनी बीमार नानी को देखने के लिए गए हैं। लेकिन ये जानकारी भी कांग्रेस पार्टी की ओर से आधिकारिक तौर पर नहीं दी गई थी। ये ख़बर आने के बाद से बीजेपी ने एक बार फिर कांग्रेस पर हमला बोलना शुरू कर दिया है।
 
ऐसे में सवाल उठता है कि राहुल गाँधी बार-बार ऐसा क्यों करते हैं?
 
‘हर साल लगभग 65 विदेश यात्राएं’
राहुल गांधी हर साल लगभग 65 विदेश यात्राएं करते हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय के मुताबिक़, राहुल साल 2015 से 2019 के बीच 247 बार विदेश यात्राओं पर गए हैं।
 
ये उन यात्राओं की संख्या है जो कि एसपीजी को बिना सूचित किए की गई थीं। इसका मतलब ये है कि राहुल गांधी की कुल विदेश यात्राओं की संख्या इससे कहीं ज़्यादा हो सकती है।
 
लेकिन चार साल में 247 यात्राओं के लिहाज़ से ही राहुल गांधी ने 2015 से 2019 के बीच हर साल 65 और हर महीने 5 से ज़्यादा विदेश यात्राएं कीं।
 
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने साल 2019 में ये जानकारी लोकसभा में पेश की थी। लेकिन सवाल ये नहीं है कि राहुल गाँधी कितनी बार विदेश यात्राओं पर जाते हैं। सवाल यहां ये है कि राहुल गांधी बार-बार ऐसे मौक़ों पर विदेश यात्राओं पर क्यों जाते हैं जब उनकी पार्टी को उनकी सख़्त ज़रूरत होती है।
 
कई बार कांग्रेस पार्टी को अपने कार्यक्रमों और राष्ट्रीय अभियानों को सिर्फ इसलिए स्थगित करना पड़ा क्योंकि तय तारीख़ों पर राहुल गांधी की मौजूदगी संभव नहीं थी।
 
महाराष्ट्र में गठबंधन बनने से लेकर कर्नाटक में गठबंधन सरकार में पोर्टफ़ोलियो विभाजन के मौके़ पर भी कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी के वापस लौटने का इंतज़ार करती रही।
 
जब राजनीतिक एक्शन छोड़ विदेश गए राहुल
साल 2019 में जब देश भर में नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन हो रहे थे।
 
कांग्रेस पार्टी इस मसले पर बीजेपी का विरोध कर रही थी लेकिन राहुल गांधी इस बीच दक्षिण कोरिया की यात्रा पर निकल गए। इसकी वजह से राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी को काफ़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। हालांकि, पार्टी ने इसे पूर्वनियोजित यात्रा बताया।
 
साल 2018 में कर्नाटक चुनाव के ठीक बाद राहुल गांधी पूर्व कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के साथ विदेश यात्रा पर गए जिसकी वजह से कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन में बनी सरकार को पोर्टफ़ोलियो बंटवारे में देरी का सामना करना पड़ा।
 
साल 2016 में नए साल के मौके़ पर वह पाँच राज्यों के चुनाव से ठीक पहले विदेश यात्रा पर गए। इस मौके़ पर भी पंजाब कांग्रेस के नेताओं की ओर से काफ़ी नाराज़गी का भाव मीडिया में सामने आया।
 
इसकी वजह से हर बार उन्हें बीजेपी समेत अन्य विपक्षी दलों और यूपीए के घटक दलों की ओर से मुखर या पर्दे के पीछे आलोचना का सामना करना पड़ा। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या उन पर इन आलोचनाओं का फ़र्क़ नहीं पड़ता?
 
क्या आलोचनाओं से उबर चुके हैं राहुल गांधी?
लंबे समय से कांग्रेस पार्टी को कवर कर रहीं वरिष्ठ पत्रकार अपर्णा द्विवेदी मानती हैं कि राहुल गांधी अब इस सबसे आगे बढ़ चुके हैं।
 
वो कहती हैं, “ऐसा लगता है कि राहुल गांधी को लोगों की आलोचनाओं का फ़र्क़ नहीं पड़ता है, चाहें वो आलोचना पार्टी के अंदर हो या पार्टी के बाहर हो। पार्टी के अंदर 23 नेताओं की चिट्ठी लिखने के बाद भी जिस हिसाब से कांग्रेस गांधी परिवार के पीछे पड़ी रही कि सत्ता संभाल लो, कांग्रेस को उबार लो... इससे कहीं न कहीं राहुल गाँधी को ये लगने लगा है कि उनके बिना पार्टी की नैया पार नहीं होगी।"
 
"जहाँ तक बीजेपी की आलोचना का सवाल है तो बीजेपी पिछले सात-आठ सालों से राहुल गांधी को ‘पप्पू’ साबित करने में लगी हुई है। और काफ़ी सफल भी है। लेकिन कांग्रेस कभी अपने प्रदर्शन और कभी उचित संवाद न होने की वजह से कभी इसका विरोध नहीं कर सकी। ऐसे में राहुल गांधी को लगने लगा है कि पार्टी उनके हिसाब से ही चलेगी। उन्होंने प्रियंका गांधी  को भी ज़िम्मेदारियां देना शुरू कर दी हैं।”
 
जहां तक ज़िम्मेदारियों की बात करें तो राहुल गांधी ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में हुई हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए ही अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया था।
 
उनकी माँ सोनिया गांधी पूरी तरह से इसके ख़िलाफ़ थीं। लेकिन राहुल गांधी ने इस्तीफ़ा दिया। इसके बाद से लेकर अब तक पार्टी नेताओं और सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को फिर से अध्यक्ष बनाने के लिए काफ़ी प्रयास किए हैं।
 
लेकिन राहुल गांधी ने अपना रुख़ स्पष्ट किया हुआ है।
 
राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि स्थापना दिवस से ठीक एक दिन पहले राहुल का विदेश जाना सांकेतिक संदेश भी हो सकता है।
 
अपर्णा द्विवेदी बताती हैं, “स्थापना दिवस से ठीक एक दिन पहले राहुल गाँधी का मिलान जाना बताता है कि वह पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को बताना चाहते हैं कि अगर पार्टी चाहती है कि वह अध्यक्ष पद संभालें तो पार्टी को उन्हें पूरी तरह स्वीकार करना पड़ेगा।”
 
बचाव की मुद्रा में आई कांग्रेस
बीजेपी की ओर से इस मौके़ पर राहुल गांधी की आलोचना होने से कांग्रेस बैकफ़ुट पर आ गई है।
 
बीजेपी नेता मुख़्तार अब्बास नक़वी ने कहा है, “पार्ट टाइम पॉलिटिक्स, फ़ुल टाइम पर्यटन और पाखंड जो नेता करेगा, उसको नानी याद आएगी और जब नानी याद आती है तो वो कहां पहुंच जाते हैं इसका पता सिर्फ़ उनको ही होता है।”
 
इस पर कांग्रेस नेता केसी वेणुगोपाल ने कहा है कि “राहुल गांधी अपनी नानी को देखने गए हैं। क्या ये ग़लत है? हर व्यक्ति को निजी यात्राएं करने का अधिकार है। बीजेपी निचले स्तर की राजनीति कर रही है। वे राहुल गाँधी पर निशाना साध रहे हैं क्योंकि वे सिर्फ एक नेता को कठघरे में खड़ा करना चाह रहे हैं।"
 
हालांकि, बीजेपी प्रवक्ता अमिताभ सिन्हा राहुल गांधी के प्रति सहानुभूति जताते हुए कहते हैं, “मेरी नज़र में राहुल गाँधी एक भले व्यक्तित्व हैं लेकिन ग़लत दायित्व में हैं। वह एक आम व्यक्ति की तरह जीवन यापन करने के लिए ही बने हैं। लेकिन अपनी माँ की ज़िद के चलते वह एक ऐसे दबाव को झेल रहे हैं जिसके लिए उनसे मेरी पूरी सहानुभूति है। वह चाहें अध्यक्ष रहे हों या उपाध्यक्ष, उन्होंने कभी उन ज़िम्मेदारियों को उतनी गंभीरता से नहीं लिया, जितनी ज़रूरत थी। क्योंकि उनका मूल स्वभाव इसके लिए बना ही नहीं था।”
 
वहीं, कांग्रेस की ओर से आए नानी की तबियत ख़राब होने के तर्क पर सिन्हा कहते हैं, “यहां प्रश्नचिह्न इसी बात पर लग जाता है कि ये कहा जा रहा है। भारत एक भावना प्रधान और संस्कार युक्त देश है। यहां अगर आप इन चीज़ों को घोषित करके जाते तो आप अपने प्रति देश की जनता में सम्मान बढ़ाते।”
 
राहुल गांधी का स्वभाव कहें या उनकी अनिच्छा या आंतरिक कलह... इसे कुछ भी कहें लेकिन इसका नुक़सान भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी को लगातार उठाना पड़ रहा है।
 
ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के बीच किसकी चलेगी? क्या गांधी परिवार किसी अन्य शख़्स को शीर्ष पद पर बिठाएगा या राहुल गांधी को मनाने का दौर चलता रहेगा?
 
कौन किसके गले की हड्डी
साल 2019 के चुनाव में हार के बाद से कांग्रेस जिस दौर से गुज़र रही है, उससे कांग्रेस में एक अंतरकलह का दौर शुरू हुआ है।
 
कांग्रेस का एक तबका मन ही मन चाहता है कि शीर्ष पद पर कोई ऐसा शख़्स बैठे जिससे आम कार्यकर्ता जाकर आसानी से मिल सके।
 
वहीं, कांग्रेस का ओल्ड गार्ड राहुल गांधी को एक बार फिर शीर्ष पद पर लाने की कोशिशों में जुटा हुआ है। आने वाले दिनों में कांग्रेस के अंदर चुनाव से जुड़ी प्रक्रियाएं शुरू होने वाली हैं। लेकिन राहुल गाँधी की ओर से अब तक सक्रिय राजनीति करने का रुझान नहीं दिखाया जा रहा है।
 
कांग्रेस और बीजेपी की राजनीति को लंबे समय से देख रहीं वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी इसे युवा कांग्रेसियों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण मानती हैं।
 
वो कहती हैं, “देखिए, आप अमित शाह या नरेंद्र मोदी की विचारधारा से आप सहमत हों या न हों लेकिन उनकी मेहनत तो सामने दिख रही है। अमित शाह को कोविड हुआ, इसके बाद भी वो कभी असम, कभी बंगाल तो कभी मणिपुर। वो लगातार दौरा किए जा रहे हैं। ऐसे में लोग कहीं न कहीं नेतृत्व की तुलना करते ही हैं।”
 
नीरजा ये भी मानती हैं कि साल 2019 के चुनाव में 12 करोड़ लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया था। ऐसे में कांग्रेस की कुछ तो जवाबदेही बनती ही है।
 
लेकिन इसके साथ ही एक सवाल ये भी खड़ा होता है कि क्या सोनिया गांधी को कांग्रेस की ख़ातिर कांग्रेस की कमान किसी गांधी परिवार से बाहर के सदस्य के हाथों में सौंपनी चाहिए?
 
नीरजा कहती हैं, “अब वो समय आ गया है जब गांधी परिवार को ये सोचना चाहिए कि फ़िलहाल हमें एक क़दम पीछे लेकर और लोगों को नेतृत्व देना चाहिए क्योंकि इस समय कांग्रेस पार्टी को बनाने की ज़रूरत है। ज़मीन से लेकर ऊपर तक पार्टी खड़ी किए जाने की ज़रूरत है। और चेहरा इसमें एक भूमिका अदा करता है। बूथ लेवल से पार्टी को हर राज्य में खड़ा करने की ज़रूरत है। नया नेतृत्व लाने की ज़रूरत है। कांग्रेस में काफ़ी मंझे हुए खिलाड़ी हैं, अनुभवी लोग हैं। उनको आगे बढ़ाने की ज़रूरत है। पार्टी में युवा नेता हैं जो मेहनत कर सकते हैं। और गाँधी परिवार पीछे से भी एक बड़ी भूमिका निभा सकता है।"
 
"मुझे लगता है कि ब्रांड कांग्रेस को आगे आने की ज़रूरत है। मोदी की बीजेपी को टक्कर देने के लिए एक कोई चेहरा नहीं दिखता है, जो उन्हें टक्कर दे पाएगा। ब्रांड कांग्रेस और वो विपक्ष का केंद्र हो तब शायद कुछ बात बने। अभी शरद पवार का नाम आगे आ रहा है, यूपीए चीफ़ के पद के लिए, वहाँ देखते हैं कि क्या होता है...”
 

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