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नज़रिया: मुस्लिम ब्रदरहुड और संघ की तुलना पर क्यों ग़लत हैं राहुल गांधी

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शनिवार, 1 सितम्बर 2018 (11:50 IST)
- जगदीश उपासने (वरिष्ठ पत्रकार)
 
जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लंदन के एक थिंकटैंक 'इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ स्ट्रैटेजिक स्टडीज़' में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना मिस्र में 1928 में जन्मे मुस्लिम ब्रदरहुड से की, तो वहां बैठे बुद्धिजीवी भी चौंक गए होंगे कि क्या यह अकल्पनीय तुलना वो जवाहर लाल नेहरू के नाती के मुंह से सुन रहे हैं, जिनकी विश्व इतिहास की समझ की दाद दी जाती थी?
 
 
पर कांग्रेस अध्यक्ष को शायद ही कोई फ़र्क पड़ता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और आरएसएस को कोसने के लिए उन्हें जो नया मुहावरा मिल जाता है या उन्हें दिया जाता है, उसका पटाखा फोड़कर वो अगले मुहावरे की तलाश में जुट जाते हैं। उन्हें मालूम है कि उनकी पार्टी के वकील उनके कहे हुए को एक्सप्लेन कर देंगे। राहुल इस अर्थ में पक्के स्थितप्रज्ञ हैं।
 
सुख और दुख को, लाभ और हानि को, जय और पराजय को समान समझकर चलते हैं, न तो उन्हें ट्रोलिंग से फ़र्क पड़ता है, न ही उपहास का पात्र बनने से, न झन्नाटेदार आलोचना से! और तथ्य या सत्य के लिए उनके कान पहले ही बंद हैं! यह अजीबोगरीब तुलना राहुल ने देश के किसी हिस्से में नहीं की बल्कि विदेशी धरती पर की। 
 
'संचार क्रांति' के तहत छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार की मुफ़्त स्मार्टफ़ोन बांटने की योजना पर राहुल ने फ़रमाया कि भाजपा सरकार ये स्मार्टफ़ोन भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) या बीईएचएल से क्यों नहीं ख़रीद रही है?

 
कपोल-कल्पना
बात आई-गई हो गई, एक और चुटकुला मानकर भुला दी गई। लेकिन राहुल ने अपनी कपोल-कल्पनाओं की फ़ैक्ट्री से विदेशी धरती पर यह नया प्रोडक्ट निकाला कि आरएसएस भारत की संस्थाओं पर कब्जा जमाना चाहता है। (शायद उसी तरह जिस तरह कांग्रेस ने अपने राज में देश के सभी प्रमुख संस्थाओं पर कब्जा जमाया?)
 
उन्होंने कहा, "हमारा सामना एक नए विचार से है, जिसका पुर्नजन्म हुआ है और यह वैसा ही है, जैसे अरब वर्ल्ड में मुस्लिम ब्रदरहुड है।"... मुस्लिम ब्रदरहुड कुरान और सर्वमान्य हदीस को शरिया का एकमात्र स्रोत मानता है, उसके आधार पर वैश्विक इस्लामिक समाज और साम्राज्य क़ायम करना चाहता है, चाहता है कि सभी इस्लामी क्षेत्र एक ख़लीफ़ा के तहत एकजुट रहें।
 
बहाई और अहमदिया जैसे दूसरे मुस्लिम तबके उनके समीकरण में नहीं हैं। उनके लिए मर्द और औरतें अलग-अलग हैं, और नाच-गाना मनोरंजन पाबंदी लायक। अपने उद्देश्यों के लिए निहत्थे नागरिकों पर हिंसा भी जायज है। उसके नेता मिस्र में अपनी हुकूमत में रहने वाले ईसाइयों और यहूदियों से जजिया कर लेने और उन्हें लगभग दोयम दर्जे का नागरिक बनाए रखने का इरादा जता चुके हैं।
 
तख़्तापलट और अरब जगत के शासनाध्यक्षों की हत्या की कोशिशें वे कर चुके हैं, कई साज़िशों में उनका नाम आता है। सऊदी अरब सहित दूसरे अरब देशों के कई नेता मानते हैं उसने अरब विश्व को तबाह करके रख दिया है। अल-क़ायदा और आईएस जैसे आतंकी संगठन उसकी कोख से जन्मे हैं।

अपमान
आरएसएस ने पांच-सात हज़ार वर्ष पुराने भारतीय दर्शन पर आधारित जिस 'हिंदुत्व' या 'हिंदूनेस' या 'हिंदूपन' के विचार को लिया है, वह न तो नया है, न उसका पुर्नजन्म हुआ है। यह उसका आविष्कार भी नहीं है। इसका 'रीलिजन' से भी कोई लेना-देना नहीं है। मूलत: यह वैश्विक बंधुत्व और वैश्विक कल्याण का विचार है, मुस्लिम ब्रदरहुड के संकीर्ण, हिंसक विचार से इसकी तुलना प्राचीन भारत की मेधा, बुद्धि और ज्ञान का अपमान है, उसे नकारता है।
 
 
इस दर्शन में खोज 'मैं' से शुरू होकर समस्त चराचर, ब्रह्मांड और उससे परे जा पहुंची जिसने सारे जड़-चेतन में एक ही एनर्जी, एक ही चेतना का साक्षात्कार किया और जिसे 'हम' में समस्त मानव जाति, प्राणिमात्र और यह समूची सृष्टि दिखाई दी जो ईश्वर की कृति है और सबके लिए है, ज़रूरत से ज़्यादा लेने पर दंडित कर सकती है।
 
 
इसलिए इसमें 'वसुधैव कुटंबकम' है, 'सर्वे सुखिन:' है और 'माता भूमि: पुत्रो़डहं पृथिव्या:' भी है। प्राचीन ऋषियों ने यह भी जाना है कि इस सत्य को, उस परमात्मा को हर कोई अपने ढंग से व्यक्त कर सकता है, नहीं भी मान सकता है। इसलिए उन्होंने कहा कि यह सत्य एक है, विद्वान उसे अलग-अलग ढंग से कहते हैं, लेकिन जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा, 'फ़िक्स्ड रिविलेशन' भी नहीं है। यह एक प्रक्रिया, अभियान और परंपरा है।
 
 
इस दर्शन में 'धर्म, 'मैं' से लेकर समस्त चराचर तक को जोड़ने वाल है तत्व है, वह एक सापेक्ष विचार है, राष्ट्रीय सदाचार! भारतीय जीवन पद्धति का आधार यह दर्शन नहीं तो और क्या है? कष्ट सारा यही है कि आरएसएस इस दर्शन, संस्कृति और उससे उपजे संस्कारों को 'हिंदू' क्यों कहता है? भारत उसके लिए 'हिंदूराष्ट्र' क्यों है?
 
 
दरअसल, रीलिजन का अर्थ 'धर्म' मान लेने से यह गड़बड़ है। 'हिंदू' नाम आरएसएस ने नहीं रचा है, यह शताब्दियों से है। 'हिंदुस्तान' भी उसका दिया नाम नहीं है लेकिन वोटों के गणित में उसे सांप्रदायिक करार दे दिया गया है।
 
 
इसे सनातन कहिए या भारतीय, विचार तो यही है। चाहे शशि थरूर जैसे नेता और विचारक 'आरएसएस के हिंदुत्व' और 'भारत के हिंदुत्व' को खींचतान करके अलग करने की कोशिश करें। इस दर्शन और संस्कृति में कोई संकीर्ण राजनैतिक उद्देश्य होता, साम्राज्य क़ायम करने, सभी को एक छड़ी से हांकने की ज़रा भी मंशा होती तो समूचा विश्व इसी का होता।
 
 
हज़ारों साल में ऐसा नहीं हुआ, आरएसएस के 90 साल के अस्तित्व में भी ऐसा नहीं हुआ। हां, भारत ने अपने भीतर झांकना ज़रूर शुरू कर दिया है, जिससे आयातित विचारों की सत्ताओं की चूलें ज़रूर हिलने लगी हैं।
 
 
(ये लेखक के निजी विचार हैं। जगदीश उपासने आरएसएस के मुखपत्रों पाञ्चजन्य और ऑर्गेनाइज़र के समूह संपादक रह चुके हैं और इस समय माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति हैं।)
 

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