- राजेश प्रियदर्शी (डिजिटल एडिटर)
'मोदी का कोई विकल्प नहीं', इस वाक्य को परम-सत्य मानने वालों की बड़ी तादाद है, और उन्हें ग़लत साबित करने वाली कोई ठोस दलील अब तक सामने नहीं आई है। बीजेपी के रणनीतिकारों की तो हसरत है कि राहुल गांधी का मुक़ाबला मोदी से हो जाए तो मज़ा आ जाए।
राजनीति के अखाड़े में दोनों अलग-अलग वज़न-वर्ग के पहलवान हैं, मोदी बेशक हैवीवेट हैं जबकि राहुल का वज़न बार-बार घटने-बढ़ने के बावजूद मोदी की कैटेगरी में नहीं आ सका है। लोग देख रहे हैं कि जो राहुल गांधी विरासत में मिली पार्टी की कमान संभालने का हौसला नहीं दिखा पा रहे, या उनकी मम्मी ही इतने समय से उन्हें कमान थामने के लिए तैयार नहीं मान रहीं, ऐसे नेता को मोदी के लिए चुनौती क्यों माना जाए?
एक मोदी हैं जिन्होंने सचमुच ज़मीन से लेकर आसमान तक अपना रास्ता ख़ुद बनाया है। बाल नरेंद्र के मगरमच्छ पकड़ने जैसे किस्सों को अगर नज़रअंदाज़ कर दें तो भी शिखर तक पहुँचने की उनकी कहानी किसी एपिक-फैंटेसी से कम नहीं है। दूसरी तरफ़, राहुल गांधी कई सालों से मोदी से नहीं, बल्कि ख़ुद से ही संघर्ष कर रहे हैं, वे अपनी कोई ऐसी कहानी नहीं बना पाए हैं जिसके बारे में लोग बातें करें, और आश्वस्त हो सकें कि इस बंदे में दम है।
'राहुल आ गए, राहुल छा गए' की आवाज़ सोशल मीडिया पर कई बार सुनी गई, लेकिन वे एक छुट्टी से आए थे और दूसरी छुट्टी पर चले गए। एक बार तो तकरीबन गुमशुदा घोषित कर दिए गए, अब कितने दिन तक बिना छुट्टी लिए राजनीतिक मोर्चे पर डटे रहेंगे, इसका भरोसा किसी कांग्रेसी को भी नहीं है।
विरासत की सियासत की सांसत
भारत की राजनीति में कई बड़े नाम हैं जिन्हें अँगरेज़ी में 'रिलक्टेंट पॉलिटिशियन' कहा गया, मसलन, राजीव गांधी के बारे में कहा जाता है कि वे बेमन से सियासत कर रहे थे, क्योंकि हालात ने उन्हें मजबूर कर दिया था। बाप और बेटे में एक बड़ा अंतर ये है कि राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनने से पहले किसी ख़ास चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा जबकि चुनौतियों के बीच राहुल कभी इतने मज़बूत नहीं दिखे कि उन्हें योग्य उत्तराधिकारी माना जा सके।
वंशवाद का आरोप अपनी जगह है, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी भी किसी ख़ास व्यक्ति की औलाद होने की वजह से ही सत्ता के शीर्ष पर पहुँचे थे लेकिन लोगों ने इसकी परवाह नहीं की थी, वंशवाद का आरोप राहुल गांधी पर इसलिए चिपका है क्योंकि वे ये नहीं दिखा पाए हैं कि अगर वे राजीव गांधी के बेटे नहीं होते, तो क्या होते?
वंशवाद भारत में कोई गंभीर आरोप नहीं है बल्कि अक्सर उसके एक्सट्रा प्वाइंट्स ही मिलते हैं। बहरहाल, अंतिम फ़ैसला तो जनता ही करती है। देव आनंद और अमिताभ बच्चन लाख चाहकर अपने बेटों को नहीं चला सके क्योंकि जनता ने उन्हें कबूल नहीं किया, वंशवाद से चांस मिल सकता है, सफलता नहीं। अब इस चांस को राहुल गांधी सफलता में बदल देंगे, ऐसा मान लेने का कोई कारण अब तक दिखाई नहीं देता लेकिन राजनीति क्रिकेट से भी ज्यादा अनिश्चितताओं का खेल है।
मोदी से मोदी का मुक़ाबला
2014 के चुनाव में बीजेपी नहीं जीती बल्कि नरेंद्र मोदी जीते थे, याद कीजिए, नारा 'अबकी बार बीजेपी सरकार' नहीं बल्कि 'अबकी बार मोदी सरकार' था।
मोदी देश के संसदीय लोकतंत्र को अमरीका जैसी प्रेसिडेंशियल डेमोक्रेसी में बदल पाए हैं या नहीं, इसका पता 2019 में लगेगा। मोदी निर्विवाद रूप से देश के सबसे बड़े नेता हैं लेकिन अब भी उनके प्रभाव का विस्तार पूरे देश में नहीं है इसीलिए बीजेपी राज्यों में, ख़ास तौर पर दक्षिण और पूर्वोत्तर में मोदी के हैवीवेट से क्षेत्रीय नेताओं को कुचलने के बदले उन्हें छोटे टुकड़ों के बाँटकर हराने में लगी रही है। यही वजह है कि आज भी उन्हें उपेंद्र कुशवाहा और अनुप्रिया पटेल जैसे लोगों को साथ लेकर चलना पड़ रहा है।
बहरहाल, मोदी ने पीएम बनने से पहले निजी जोखिम उठाया, यूपीए और एनडीए की गठबंधन की राजनीति के खाँचे को तोड़कर, पार्टी के लिए वोट माँगने की जगह उन्होंने अपने नाम पर जनादेश माँगा। पार्टी की अंदरूनी राजनीति में अपने सीनियरों को मार्गदर्शक मंडल का मार्ग दिखाया।
विवादों के बावजूद मोदी गुजरात के सफल मुख्यमंत्री थे, इस नज़रिए से देखें तो राहुल गांधी की अब तक की राजनीतिक यात्रा में मील का एक भी पत्थर दिखाई नहीं देता बल्कि वे अपने गढ़ अमेठी में ही कई बार कमज़ोर दिखते हैं। लोकसभा चुनाव में ज़ोरदार बहुमत हासिल करने के बाद, बिहार और दिल्ली में हुई हार का जवाब मोदी ने यूपी में जीत से दिया। नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक और चीन के साथ विवाद के दौरान साबित किया कि वे कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं।
दूसरी ओर, पंजाब विधानसभा में कांग्रेस की जीत को अमरिंदर की कामयाबी के तौर पर देखा गया, गोवा और मणिपुर में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आने के बाद भी कांग्रेस के सरकार न बना पाने को राहुल गांधी के नेतृत्व की कमज़ोरी माना गया।
अयोध्या से लेकर गुजरात तक मंदिरों के दर्शन और विदेश यात्राएँ करके राहुल एक तरह से नया मोदी बनने की कोशिश करते दिख रहे हैं, लेकिन वे पुराने मोदी के बराबर खड़े नहीं हो पा रहे। वे ये बताने या जताने की हिम्मत नहीं कर पा रहे कि अयोध्या का ताला उनके दिवंगत पिता ने खुलवाया था और तिलक-आरती के साथ गंगा मैया की जय-जयकार राजीव गांधी ने कम जोर-शोर से नहीं की थी। ख़ैर, गंगा मैया की सफ़ाई न तब हुई, न अब।
बदले मौसम में मोदी और राहुल
पिछले दो महीनों में घटी विकास दर, बढ़ती बेरोज़गारी, नोटबंदी की नाकामी जैसी दसियों बातें हुई हैं जिनकी वजह से ये चर्चा तेज़ हुई है कि मोदी की लोकप्रियता घटी है और जनता उनसे खुश नहीं है। अगर सोशल मीडिया को पैमाना मानें तो 'मोदी-मोदी' के नारे मंद पड़े हैं।
'मोदी का कोई विकल्प नहीं' कहने वाले बीजेपी समर्थकों का सुर बदल गया है, वे पूछने लगे हैं, मोदी नहीं, तो क्या राहुल?
पीएम बनने से पहले मोदी के पास खोने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं था, अब जो है वो सब खोने के लिए ही है, पाने को क्या बचा है? दूसरी ओर, राहुल ने अभी तक पाया ही क्या है?
मोदी ने चुनाव से पहले और चुनाव के बाद जितने वादे किए हैं, जितनी उम्मीदें जगाई हैं, उनकी लिस्ट ही मोदी को परेशान करने के लिए काफ़ी है, उसके लिए किसी राहुल की ज़रूरत नहीं है। ज़ाहिर है, देश को चमकाने के, रोज़गार के, काला धन वापस लाने के, किसानों की आमदनी दोगुनी करने, मेक इन इंडिया के, स्मार्ट सिटी बसाने जैसे सारे वादे अधूरे पड़े हैं।
2014 वाले मोदी को देश को बताना होगा कि ये सारे काम पूर्ण बहुमत के बावजूद क्यों नहीं हुए और 2019 के मोदी ये सारे काम कैसे कर लेंगे? मोदी-2 के लिए सबसे बड़ी चुनौती मोदी-1 से उपजी निराशा होगी। लोग अक्सर भूल जाते हैं कि जनता चुनाव में अनेक कारणों से अलग-अलग तरीक़े से वोट डालती है, लोग राहुल गांधी को जिताने के लिए वोट भले न डालें, मगर कई बार लोग हराने के लिए भी वोट डालते हैं।
याद कीजिए, 2004 में ये भविष्यवाणी किसी ने नहीं की थी कि शाइन करते इंडिया के लोग अटल बिहारी वाजपेयी को हराने के लिए वोट डालेंगे, तब कितने लोग सोनिया गांधी को वाजपेयी का विकल्प मान रहे थे?
मोदी नहीं तो फिर कौन?
ये सवाल पूछने वाले भूल रहे हैं कि देश में अब भी संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था है, राज्यों में पचासों राजनीतिक दल सक्रिय हैं, भले मोदी की तरह एक चेहरा न दिख रहा हो लेकिन मोदी विरोधी गठबंधन के उभरने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
देश का चुनाव जीतने वाले मोदी पूरी ताक़त झोंक कर भी कुछ ही महीने बाद दिल्ली का चुनाव शर्मनाक तरीके से हार गए थे, इसलिए ये कहना ठीक नहीं होगा गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों से 2019 का पक्का अंदाज़ा मिल जाएगा। गुजरात में बीजेपी लंबे समय से सत्ता में है और वहाँ की स्थिति बाक़ी देश से कई मामलों में अलग है।
गुजरात में भी कोई विपक्ष नहीं है, विकास और हिंदुत्व की विरासत छोड़कर पीएम बने मोदी का मुक़ाबला, अब उस नए मोदी से है जिसने नोटबंदी और जीएसटी जैसे फ़ैसले किए हैं। 2019 में अभी काफ़ी वक़्त है, राजनीतिक विश्लेषक कह रहे हैं कि उस चुनाव में एक तरफ़ मोदी होंगे और दूसरी तरफ़ बाक़ी सारे नेता। अभी तो राहुल की चुनौती उन बाक़ी नेताओं का नेता बनने की है, उसके बाद भी मोदी का मुक़ाबला तो मोदी से ही होगा।