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अपने ही गढ़ में कैसे मात खा गए ज्योतिरादित्य सिंधिया

अपने ही गढ़ में कैसे मात खा गए ज्योतिरादित्य सिंधिया
, सोमवार, 27 मई 2019 (11:34 IST)
- प्रियंका दुबे (गुना (मध्य प्रदेश) से)
 
50 के दशक तक ग्वालियर के सिंधिया राज घराने के 'समर कैपिटल' के तौर पर मशहूर रहा शिवपुरी शहर आज 2019 की गर्मियों में 46 डिग्री पर तप रहा है। शहर में प्रवेश करते ही चारों ओर चक्कर लगाते पानी के टैंकर ध्यान खींचते हैं। 29 नंबर वार्ड के सइसपुरा मोहल्ले में सड़क के किनारे खड़े एक टैंक से मटके में पानी भरते स्थानीय नागरिक अजय सिंह बताते हैं कि शहर में लंबे वक़्त से पानी की समस्या रही है।
 
 
"यहां पानी का बड़ा संकट है। कई महीनों से तो हम लोगों को पीने का पानी भी खरीदकर पीना पड़ रहा है। इसी वजह से लोग ग़ुस्से में हैं। तभी इस चुनाव में पहली बार महाराज भी हार गए।" शिवपुरी शहर मध्यप्रदेश के गुना लोकसभा क्षेत्र का संसदीय मुख्यालय है और जिन 'महाराज' का ज़िक्र अजय ने अपनी बात में किया वह सिंधिया घराने के वारिस और गुना लोकसभा क्षेत्र के पूर्व सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं।
 
 
2002 से 2014 तक लगातार चार बार गुना लोकसभा सीट से जीतते आ रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनी पाँचवीं चुनावी लड़ाई भारतीय जनता पार्टी के कृष्णपाल सिंह यादव से 1,25,549 वोटों के भारी अंतर से हर गए। 2019 के चुनावों में गुना लोकसभा सीट के नतीजे मध्यप्रदेश कांग्रेस के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर भी पार्टी के लिए निराशा का कारण बन कर उभरे हैं। ख़ास तौर पर इसलिए क्योंकि इस सीट को सिंधिया परिवार का गढ़ माना जाता रहा है।

 
मध्यप्रदेश के अस्तित्व में आने के बाद से ही विजया राजे सिंधिया, माधव राव सिंधिया और ज्योतिरादित्य सिंधिया समेत सिंधिया परिवार के अलग-अलग सदस्य इस सीट से जीतते रहे हैं। साथ ही ज्योतिरादित्य सिंधिया की यह हार इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आज़ादी के बाद यह ग्वालियर राजघराने या 'महल' के किसी व्यक्ति की पहली चुनावी हार है।
 
लेकिन सिंधिया परिवार के गढ़ में पहली बार सेंध लगाने वाली भाजपा की इस जीत और ज्योतिरादित्य सिंधिया की इस ऐतिहासिक हार के कारणों पर आने से पहले मध्यप्रदेश की राजनीति में सिंधिया परिवार के महत्व को समझना ज़रूरी है।
 
 
सिंधिया परिवार
शिवपुरी शहर में मौजूद सिंधिया परिवार के पुरखों की याद में बनी 'छतरी' के प्रबंधन अधिकारी अशोक मोहिते रजवाड़ों के समय के पुराने दस्तावेज़ दिखाते हुए बताते हैं, "इस राजघराने की शुरुआत 1740 के आसपास राणो जी सिंधिया ने की थी। वह मराठा हिंदू योद्धा थे और सबसे पहले मालवा क्षेत्र पर फ़तह कर उन्होंने उज्जैन को अपनी पहली राजधानी बनाया।"
 
 
"फिर 1800 तक आते-आते, शाजापुर से होते हुए ग्वालियर सिंधिया परिवार की राजधानी हो गई। तब से लेकर आज़ादी तक, शिवपुरी, शयोपुर और गुना का यह पूरा क्षेत्र ग्वालियर राजघराने के सिंधिया परिवार की रियासत का हिस्सा था। पहले शिवपुरी में बहुत हरियाली और कई झरने-तालाब हुआ करते थे। तब सिंधिया परिवार यहां अपने गर्मियों के दिन बिताने आता था"।
 
आज़ाद भारत में सिंधिया परिवार की राजनीतिक भूमिका के बारे में बात करते हुए अशोक कहते हैं, "ग्वालियर राजघराने के महाराज जीवाजी राव सिंधिया आज़ादी के बाद बने 'मध्य भारत' के पहले राजप्रमुख थे। फिर 1956 के बाद मध्यभारत का विलय करके मध्यप्रदेश बनाया गया।"
 
 
"इसके बाद साल 1957 में नए मध्यप्रदेश में जो पहला चुनाव हुआ, उसमें जीवाजी महाराज की पत्नी राजमाता विजया राजे सिंधिया ने इसी गुना लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और जीत गयीं। तब से ही यह परिवार इस सीट पर जीतता रहा है।"
 
'महाराजा' और 'अन्नदाता'
बुंदेलखंड और चंबल से घिरे शिवपुरी-गुना अंचल की 80 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। उद्योगों और रोज़गार की कमी से जूझते इस इलाक़े को नीति आयोग ने देश के सबसे पिछड़े ज़िलों की सूची में शुमार किया है।
 
 
शहर में प्रवेश करते ही आपको टूटी और खुदी हुई सड़कें और सड़कों पर पानी के इंतज़ार में क़तारों में खड़े लोग नज़र आएँगे। ऐसे में इस बार के नतीजों में ज्योतिरादित्य के हार को इस इलाक़े के पिछड़ेपन और सिंधिया परिवार के 'राजशाही' के ख़िलाफ़ लोगों के ग़ुस्से के तौर पर देखा जा रहा है। लेकिन ज़मीन पर सच्चाई काले और सफ़ेद से इतर है।
 
पानी भरने की क़तार में खड़े स्थानीय निवासी नारायण बाथम कहते हैं कि जनता की तकलीफ़ों से जुड़ी सारी शिकायतें सही हैं लेकिन फिर भी 'महाराजा' को नहीं हारना चाहिए था।
 
 
"हम सब यही सोच रहे थे कि सरकार तो मोदी की बनेगी लेकिन यहां से तो महाराज जीत ही जाएँगे। पानी, रोज़गार और सीवर की समस्या तो यहां बहुत बड़ी है। शायद इसलिए इस बार लोगों ने महाराज को हरा दिया वर्ना मैं कितने सालों से वोट डालता हूँ, महाराज कभी नहीं हारते थे।"
 
वहीं पास खड़े आशीष दीवान कहते हैं, "वो शिवपुरी के महाराज हैं और हम यहां रहने वाले लोग, उनके अन्नदाता। महाराज से तो यहां के लोगों का जुड़ाव हमेशा बना रहेगा। यूं तो महाराज का हारना अच्छा नहीं होता लेकिन फिर भी इस बार जनता ने उनको हरा दिया। दरअसल हमें पानी और रोज़गार की बहुत समस्या है।"
 
 
"महाराज सीवर का प्रोजेक्ट लाए थे और फिर उसके चलते पूरे शहर की सड़कें खोद दी। सड़कें ख़ुद तो गयीं लेकिन वापस कभी नहीं भरी गयीं। सीवर अभी तक नहीं लगा। इसलिए शायद लोगों ने इस बार उन्हें वोट नहीं दिया। लेकिन महाराज तो वो रहेंगे ही।"
 
शिवपुरी-गुना की जनता में आज भी सिंधिया परिवार को लेकर डर और सम्मान का मिला जुला भाव है। लोकतंत्र में 70 साल बिताने के बाद भी यहां के लोगों के ज़ेहन में बैठी 'राजशाही' की छाया ही वह कारण है जिसकी वजह से मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसने के बावजूद यहां के लोगों ने हमेशा सिंधिया परिवार के नुमाइंदों को चुनावों में जिताया। आज ज्योतिरादित्य सिंधिया की करारी हार के बावजूद लोग यहां राजपरिवार के बारे में कुछ भी नकारात्मक कहने से बचाना चाहते हैं।
 
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'महल' की पहली हार
शहर में चार दशकों से काम कर रहे वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद भार्गव कहते हैं कि गुना-शिवपुरी की जनता को 'राजा को हर हाल में जिताने' की सामाजिक-मानसिक कंडिशनिंग से निकलने में वक़्त लगा है। लेकिन 2019 के नतीजे यह साफ़ बताते हैं कि अब लोग बैलेट बॉक्स में अपने और अपने शहर के विकास के लिए नए विकल्पों पर निडर होकर वोट दे रहे हैं।
 
 
इन नतीजों को 'महल' की पहली हार बताते हुए भार्गव कहते हैं, "यहां कांग्रेस की हार महत्वपूर्ण नहीं क्योंकि विजयाराजे सिंधिया और यशोधरा राजे सिंधिया समेत इस परिवार के कई लोग यहां भाजपा से भी खड़े हुए और जीते। माहौल ऐसा था कि 'महल' का आदमी जहाँ से भी खड़ा हो जाएगा, जिस भी पार्टी से खड़ा हो जाएगा, जीतना तो उसका तय है। ऐसे में ज्योतिरादित्य का पहली बार हारना और वो भी इतने बड़े अंतर से, वाकई यहां की राजनीति में आया एक निर्णायक मोड़ है।"
 
 
सिंधिया की हार के कारण बताते हुए वो जोड़ते हैं, "यहां विकास के लिए सिंधिया ने बहुत कोशिश की। जैसे कि वो यहां सीवर प्रोजेक्ट लाए, मणीखेड़ा डैम का प्रस्ताव लाए और एक मेडिकल कॉलेज खोलने का प्रस्ताव भी पारित किया। लेकिन कोई भी काम पूरा नहीं हो पाया।"
 
 
"सीवर प्रोजेक्ट की वजह से 4 साल से यह शहर धूल में डूबा रहा, तीन लोगों की सीवर में मौत हो गयी, सड़कें खुदी रही लेकिन प्रोजेक्ट पूरा नहीं हुआ। यही सारे अधूरे काम चुनाव के वक़्त सिंधिया जी के गले की फाँस बन गए और फिर यह कृषि प्रधान इलाक़ा है, किसानों के लिए इन्होंने कुछ नहीं किया।"
 
 
"इनके पास भाषणों में बोलने के लिए कुछ नहीं था। दूसरी तरफ़ भाजपा ने इनके ख़िलाफ़ ख़ूब महौल बनाया। वाणिज्य मंत्री रह चुके हैं, चार बार से सांसद हैं फिर क्यों नहीं इलाक़े के लिए कुछ किया - जैसी बातें यहां ख़ूब तैर रही थीं।"
 
 
प्रमोद आगे सिंधिया परिवार द्वारा कभी जनता से भाजपा तो कभी कांग्रेस को वोट देने की अपील को भी उनके ख़िलाफ़ जाता हुआ बताते हैं। "जब यशोधरा भाजपा से विधानसभा चुनाव लड़ती हैं तो ज्योतिरादित्य कांग्रेस के पक्ष में बिल्कुल प्रचार नहीं करते। बल्कि महल की तरफ़ से लोगों से अपील की जाती है कि भाजपा को वोट दें। फिर जब उसी महल के ज्योतिरादित्य लोकसभा का चुनाव लड़ते हैं तो यशोधरा को अपनी पार्टी भाजपा के पक्ष में बिल्कुल प्रचार नहीं करती। उल्टा महल की तरफ़ से अब लोगों से पंजे पर मुहर लगाने की अपील की जाती है।"
 
 
प्रमोद जोड़ते हैं कि इतने सालों में आम जनता यह समझ गयी है कि 'महल' के सारे लोग एक हैं। "इसलिए अगर उन्हें अपने लिए विकास चुनना है तो महल से इतर, काम के हिसाब से प्रतिनिधि चुनना होगा। क्योंकि सिंधिया जी तो महाराज है। बच्चे का एडमिशन हो या किसी का ट्रांसफर हो- ऐसी रोज़मर्रा के लोगों के सैकड़ों ज़रूरी कामों की दरख्वास्त को वो ले लेते हैं लेकिन आगे कुछ नहीं करवाते क्योंकि उन्हें यह काम छोटे लगते हैं।"
 
 
"साथ ही ज्योतिरादित्य का व्यवहार अपने पिता से बहुत अलग हैं। लोग उनसे मिलने महल पर जाते हैं तो तीन-चार घंटे इंतज़ार करना पड़ता है। इसलिए जनता का नाता भी राज परिवार से टूटता जा रहा है। अब वह अपने लिए अपने काम करवा पाने वाले और विकास पर ध्यान देने वाले प्रतिनिधि चुन रही है।"
 
 
मोदी लहर
शिवपुरी-गुना सीट पर भाजपा का चुनाव प्रचार संभालने वाले राजू बाथम कहते हैं कि विधान सभा के नतीजों के बाद ही उनकी पार्टी को अंदाज़ा हो गया था कि सिंधिया लोकसभा में हारेंगे।
 
 
"इस लोकसभा सीट में प्रदेश की 8 विधानसभा सीटें आती हैं। हमने सभी सीटों पर भाजपा को मिले वोटों को जोड़ा तो देखा हमें इन सीटों पर कांग्रेस से 16400 अधिक मत मिले थे। उसी से हमें अंदाज़ा हो गया कि जनता का मूड कैसा है। बाक़ी यह राष्ट्रीय चुनाव था और मोदी जी को लेकर लोगों में उत्साह और प्यार है। इसलिए मोदी लहर में भी इस बार गुना लोकसभा सीट पर भाजपा को यह ऐतिहासिक जीत मिली है।"
 
 
उधर, कांग्रेस के ज़िला अध्यक्ष बैजनाथ सिंह यादव भी इस जीत के लिए 'मोदी लहर' को ही दोष देते हैं। बीबीसी से बातचीत में वह कहते हैं, "मोदी लहर की वजह से हम हार गए। उसके साथ ही वो प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर बनवाए गए हैं, उससे भी हमारे वोट भाजपा की तरफ़ मुड़ गए। वरना सिंधिया जी जैसे ईमानदार और जनता के लिए काम करने वाले नेता कभी नहीं हारते।"
 
 
स्थानीय पत्रकार अजय खेमारिया कहते हैं कि भाजपा की इतनी प्रचंड जीत का अंदाज़ा यहां कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा को भी नहीं था। "सिंधिया के साथ-साथ भाजपा के स्थानीय लोग भी यह ठीक से नहीं भांप पाए थे कि इस बार मोदी की अंडरकरेंट कितनी मज़बूत है।"
 
 
अहंकार, परिवारवाद और गुटबाज़ी में डूबी कांग्रेस के ख़िलाफ़ जनादेश
खेमारिया आगे कहते हैं कि गुना सीट से सिंधिया की हार का सबसे बड़ा कारण कांग्रेस की अंदरूनी गुटबाज़ी है। "सिंधिया जी बीते चार चुनावों से जीत रहे हैं और कहने को ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के जनरल सेक्रेटरी भी हैं। लेकिन अगर आप गुना शिवपुरी में ढूँढने जाएँ तो आपको कांग्रेस का कोई कैडर ही नहीं मिलेगा। जो पुराना कैडर था, वह इनके चुनाव प्रचार तक में नहीं उतरा और इनके 'फॉलोअर' सोचते रह गए कि महाराज तो ऐसे ही जीत जाएंगे, काम करने की क्या ज़रूरत है।"
 
 
वे ये भी कहते हैं कि कांग्रेस को दिग्विजय सिंह के गुट और सिंधिया परिवार के गुट की अनबन का भी नुक़सान हुआ। वे कहते हैं, "विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी भिंड, मुरैना और ग्वालियर में तीन सभाएँ करने गए थे। लेकिन उनमें से एक में भी सिंधिया जी जाकर उनके साथ खड़े नहीं हुए और न ही बाद में कभी उन प्रत्याशियों के समर्थन में प्रचार किया, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उन सीटों पर टिकट उनके मन मुताबिक़ नहीं दिए गए थे।"
 
 
देर शाम जब मैं सिंधिया परिवार की ऐतिहासिक धरोहर 'सिंधिया छतरी' का माहौल देखने गयी तो वहां स्थानीय लोगों को टिकट बाँट रहे चौकीदार ने नतीजों के बारे में चर्चा करते हुए कहा, "अब तो लगता है, वाकई जनता ही राजा है। आख़िर हमारे महाराज को जो हरा दिया।"
 

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