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नज़रिया: क्या नरेंद्र मोदी- अमित शाह हड़बड़ाए से दिख रहे हैं?

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मंगलवार, 10 जुलाई 2018 (11:59 IST)
- अरविंद मोहन (वरिष्ठ पत्रकार)
 
वैसे साल में 365 दिन और साल-दर-साल पहले से अधिक सक्रिय होते जा रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सारे कामकाज में चुनाव की तैयारी, रणनीति और चिंता साफ़ दिखती है। उनके लिए और उनकी टोली के लिए लोकतंत्र सिर्फ़ चुनाव जीतने वाली व्यवस्था है लेकिन जैसे-जैसे 2019 का चुनाव पास आ रहा है यह सक्रियता हड़बड़ी वाली शक्ल लेती जा रही है।
 
 
गिनने लगेंगे तो परेशानी में पड जाएंगे- एमएसपी माने यूएसपी। माने खरीफ़ की फसलों ने मिनिमम सपोर्ट प्राइस माने न्यूनतम समर्थन मूल्य में हुई इस बार की वृद्धि चुनाव में भाजपा की यूएसपी यानी 'यूनिक सेलिंग प्वाइंट' मतलब सबसे बडी विशिष्टता होगी।
 
अचानक इमरजेंसी के बहाने कांग्रेस को विलन बनाने की तैयारी टीवी चैनलों और राजनैतिक चर्चाओं में प्रमुख हो जाती है। संघ परिवार आपातकाल की ज़्यादतियों, ख़ास तौर पर मुसलमानों की नसबंदी को याद करने लगता है- उम्मीद या रणनीति यह है कि पूरी तरह भाजपा विरोधी हुए मुसलमान कांग्रेस से भी उखड़ें।
 
 
कमी-नाकामी से ध्यान घटाने की रणनीति
प्रधानमंत्री अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी की जगह मगहर पहुंचते हैं और कबीर की नानक और बाबा फ़रीद से चर्चा करवाकर कुछ बदनामी झेलते हैं पर वे पूर्वांचल के दलित और पिछडों को, जिनमें कबीर को मानने वालों की संख्या काफ़ी है, बसपा-सपा के संभावित गठजोड़ से कुछ भी दूर करने की रणनीति हर चैनल और राजनैतिक चर्चा में है।
 
हद तो तब हो गई जब मगहर और कबीर की चर्चा खुद सरकारी रणनीति से ही तारपीडो हो गई, सर्जिकल स्ट्राइक का वीडियो फुटेज़ तभी बाहर कर दिया गया और सारी चर्चा वह बटोर गया। उसमें चर्चा पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कम थी और विपक्ष के ख़िलाफ़ ज़्यादा।
 
 
गिनने जाएंगे तो हलाला पर नया बिल, कश्मीर में राष्ट्रपति शासन के बाद 370 पर भी कुछ 'बड़ा' करने की 'अप्रकट' चर्चा, राम मंदिर पर मुकदमे में नई सुगबुगाहट समेत जाने कितनी ही तैयारियाँ दिख जाएँगी बल्कि आप यह हिसाब लगाकर परेशान होंगे कि भला इतने मुद्दे उठाकर कोई चुनाव कैसे लड़ेगा, ख़ास तौर पर तब जबकि सरकार का अपना कामकाज ही चुनाव में काफ़ी बड़ा मुद्दा होने जा रहा है, हर सरकार का होता ही है।
 
 
मुद्दों का प्री-लॉन्च ट्रायल
पर हैरान न होइए। ये मुद्दे सिर्फ़ चुनाव की सीधी तैयारी भर की रणनीति से नहीं आ रहे हैं। इसमें सरकार के कामकाज और चुनावी वायदों में रह गई कमी-नाकामी से ध्यान हटाने की रणनीति भी काम कर रही होगी। उससे भी ज़्यादा इसमें विपक्षी तैयारी का जवाब उसकी तरफ़ दिख रहे समीकरणों को बिगाड़ने की चाल भी होगी। दलित और मुसलमानों की नाराज़गी को अलग दिशा देने और एकजुट होने से रोकने की तैयारी होगी।
 
 
पर बात इतनी ही नहीं है। चुनाव पास आता देखकर तैयारी ही मुख्य मुद्दा है। यह काम विपक्ष भी कर ही रहा होगा- जैसी स्थिति हो, जितनी ताक़त हो, मीडिया पर जितनी पकड़ हो। सरकार बड़ी हैसियत वाली है तो उसका शोर सब सुन लेते हैं। पर बात सचमुच इतनी ही नहीं है। जितने मुद्दे और जितनी तैयारी से मुद्दे उठाए जा रहे हैं और सरकार तथा भाजपा ही नहीं, संघ परिवार अपने असंख्य नामधारी संगठनों के साथ इन मसलों के प्रचार-प्रसार में जुट जा रहा है, वह कुछ बहुत ही संगठित और व्यवस्थित रणनीति का हिस्सा है।
 
 
ऐसी एक रणनीति तो चुनाव के पहले लगभग हर बार दिखती है। चालाक पार्टियाँ एक-पर-एक कई मुद्दे उछालती हैं और जिस पर लोगों और राजनैतिक हलके का ध्यान अटकता है, जो बात ज़मीन पकड़ती जाती है उसे ही उठाया जाता है, बाक़ी मामलों को बिसरा दिया जाता है। संभव है, मोदी जी और उनकी मंडली भी यही कर रही हो यानी मुद्दों का प्री-लॉन्च ट्रायल।
 
पर भरोसा नहीं हो रहा है कि बात इतनी ही है। जिस तैयारी से, जिस बेचैनी और जिस तीव्रता के साथ एक-पर-एक मुद्दे सामने लाए जा रहे हैं, वे न तो हर पार्टी की तरफ से हो रही सामान्य चुनावी तैयारी का हिस्सा लगते हैं। ये नरेंद्र मोदी और उनकी बहुत ही छोटी शासक टोली की बेचैनी से भी जुड़ा लगता है।
 
 
तैयारी पर भारी सर्वे-आंकड़े
जब से एक नामी सर्वे एजेंसी ने अपने 'मूड ऑफ़ नेशन' सर्वे के आधार पर मोदी की लोकप्रियता में तेज़ी से गिरावट, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सरकार बदल जाने की भविष्य्वाणी की है तब से लगातार राजनैतिक चर्चा की दिशा मुड़ी है। उप-चुनावों के नतीजों और कर्नाटक की राजनैतिक पराजय ने भी माहौल खराब किया है। एनडीए के घटक दलों का व्यवहार ही नहीं बदला है, भाजपा के अंदर भी शासक मंडली से बाहर हाशिए पर पड़े नेताओं में भी सुगबुगाहट है।
 
 
मोदी जी की परेशानी किन-किन कारणों से है वो गिनवाने का भी कोई लाभ नहीं है। पर हो यह रहा है कि जब तक वे और उनकी सरकार अपनी 'सफलता', 'दूरदर्शिता' और नए कार्यक्रम का माहौल बनाने की कोशिश करती है, कहीं न कहीं से कोई पिन चुभोने का काम कर देता है। नोटबंदी से जुडे आंकड़े अब भी दबे हैं और कर वसूली बढ़ने का शोर मच रहा था कि क्रेडिट सुइस ने स्विस बैंकों में जमा राशि के डेढ़ गुना हो जाने की सूचना दे दी।
 
 
अब काले धन से लड़ने के दावों की इससे ज्यादा पोल कौन विपक्ष खोल सकता था। कभी पनामा-वन तो कभी पनामा-टू के कागजात सरकार की मुस्तैदी और ताक़त की पोल खोल रहे हैं। खुद सरकारी आंकड़े भी सरकार के लिए परेशानी का सबब बन रहे हैं तो मोदी मंडली नौकरशाही पर ठीकरा फोड़ने में लग गई है।
 
संभव है कि फसलों की कीमत किसानों को लाभ दे या न दे, क़ीमतें ज़रूर बढ़वा सकती है। अगर अठावन रुपए अरहर की ख़रीद होगी तो वह पैंसठ पार बिकेगा भी। सो महँगाई न बढ़ने देने का दावा भी कुछ दिनों में मुश्किल में पड़ सकता है इसलिए कभी सत्तर साल के कांग्रेसी शासन को कोसना, नेहरु जी पर बन्दूक ताने रहना, इमरजेंसी को याद करना, बाबा कबीर को याद करना जैसी बहुत सारी चीजें अचानक याद आ रही हैं तो यह रणनीतिक कौशल और राजनैतिक सूझ की जगह एक हड़बड़ी और बेचैनी को ही ज़्यादा दिखाता है।

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