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SCO में मोदी-शी जिनपिंग की मुलाकात; चार कदम आगे, दो कदम पीछेः नजरिया

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शुक्रवार, 14 जून 2019 (09:04 IST)
डोकलाम मामले के एक साल बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात चीन के वुहान में हुई थी। यह उनकी निजी मुलाकात थी। उस दौरान न उनके कोई सहयोगी साथ थे और न कोई अफसर। दोनों ने एक-दूसरे से सीधे तौर पर बात की। दो दिनों तक वे सैर पर गए, बातचीत की, एक-दूसरे को जानने की कोशिश की।
 
यह कहा जाता है कि उसके बाद दोनों के बीच दोस्ती की शुरुआत हुई और दोनों देशों के बीच में जो भरोसे का अभाव था, उसे कम करने की कोशिश की जा रही है।
 
उसी संदर्भ में बुधवार को किर्गिस्तान की राजधानी बिश्केक में आयोजित शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन यानी एससीओ में हुए दोनों की मुलाकात को देखना होगा कि वे लोग अपनी निजी दोस्ती से चीन और भारत के रिश्ते में थोड़ा सुधार ला सकते हैं। जहां तक रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और शी जिनपिंग का सवाल है, चीन और रूस के बीच अच्छे रिश्ते हैं। लेकिन अब सवाल उठता है कि शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन में जाकर भारत इन निजी मुलाकातों के अलावा क्या हासिल कर लेगा?
 
शुरुआती आठ-नौ साल तक शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन में भारत शामिल नहीं था। पहले करीब एक दशक तक इसमें रूस, चीन और मध्य एशिया के देश शामिल थे। उसके बाद भारत और पाकिस्तान को इसके सदस्य के रूप में इसमें शामिल किया गया और इन्हें शामिल हुए डेढ़ साल से ज्यादा का वक्त हो गया है।
 
तो भारत और पाकिस्तान के शामिल होने के बाद शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन का चेहरा बहुत बदल गया है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि भारत, चीन और रूस जब एक साथ आ जाते हैं तो पूरी दुनिया की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन करने लगती है।
 
लेकिन आज दो बातें हो रही हैं। पहला एससीओ का बड़ा मुद्दा है- आतंकवाद। यह भारत की भी समस्या है। भारत बार-बार कह रहा है कि पाकिस्तान देश में आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है, जिससे भारत हमेशा लड़ता रहा है। पहले के सम्मेलन में सुषमा स्वराज जाया करती थीं और उन्होंने भी यह मुद्दा उठाया था।
चीन और पाकिस्तान में दोस्ती है। पाकिस्तान एससीओ का हिस्सा भी है तो ऐसे में चीन और रूस नहीं चाहते हैं कि भारत-पाक के बीच तू-तू मैं-मैं हो। लेकिन भारत का कहना है कि इससे हमें मिल क्या रहा है। आतंकवाद के मामले कहां रुक पा रहे हैं, यह अभी भी जारी है और यह बहुत बड़ा मुद्दा है।
 
दूसरा बड़ा मुद्दा है चीन और अमेरिका के बीच आर्थिक रिश्ते बिगड़ रहे हैं। अमेरिका ने चीन पर बहुत सारे ऐसे टैक्स लाद दिए हैं, जिससे चीनी माल उसके बाजार में न बिक पाए। इन कार्रवाई के बाद चीन को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है और उसके उद्योगों पर असर पड़ रहा है।
 
ऐसे में चीन चाहता है कि एससीओ के सारे देश मिल जाएं और अमेरिका का सामना करें। अमेरिका ने भारत पर भी ऐसी कार्रवाई की है। भारत को भी इसका नुकसान झेलना पड़ रहा है। भारत का सामान अमेरिका में बिक नहीं रहा है या फिर बिक्री के लिए संघर्ष कर रहा है। ऐसे में चीन चाहता है कि दोनों हाथ मिला लें और अमेरिका का सामना करें।
 
भारत के सामने चुनौतियां
लेकिन भारत का अमेरिका के खिलाफ जाने के कई और नुकसान भी हैं। सबसे बड़ा सवाल सैन्य सुरक्षा का है, चीन अपने आप में समस्या है भारत के लिए। इसलिए भारत दोनों के बीच में फंसा है।
 
भारत चीन की तरफ जाएगा तो अमेरिका नाराज होगा, अमेरिका की तरफ जाएगा तो चीन नाराज होगा। लेकिन जहां तक सुरक्षा का सवाल है, चीन भविष्य में शत्रु हो सकता है और कल शत्रु था भी। ऐसी परिस्थिति में भारत, अमेरिका का साथ छोड़ने की बात नहीं कर सकता है। साथ ही चीन के साथ दोस्ती भी बरकरार रखना चाहता है।
 
भारत के लिए यह बहुत संतुलन रखने वाली स्थिति है। चीन को यह समझाना कि वो अमेरिका के खिलाफ क्यों नहीं जाएगा, ये बहुत आसान नहीं है। जहां तक भारतीय उद्योग का तबका है, वो भी अमेरिका के खिलाफ नहीं जा सकता क्योंकि भारत का बड़ा व्यापार अमेरि के साथ है, न कि चीन के साथ।
 
चीन को खुश रखने की भी कोशिश
 
वन बेल्ट वन रोड परियोजना चीन की महत्वकांक्षी परियोजना है, जिस पर भारत पहले विरोध जता रहा था, लेकिन अब इस पर भारत का रुख़ बदला है क्योंकि यह सैन्य सुरक्षा से जुड़ा मसला है।
 
ये बात सच है कि सत्ताधारी पार्टी के कुछ लोग वन बेल्ट वन रोड परियोजना के लिए भारत की तरफ़ से रास्ता खोल देने की बात कह रहे हैं, लेकिन जहां तक सरहद पर रास्ता बनाने की बात है तो भारत ऐसा नहीं कर सकता है क्योंकि दोनों देशों के बीच सरहद को लेकर ही तो विवाद है। ये बहुत बड़ी समस्या है और भारत रातों-रात इसमें तो बदलाव नहीं लाएगा। लेकिन चीन के लिए निवेश के नए रास्ते खोल दिए जाएंगे और उसे रोका नहीं जाएगा।
 
मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या बेरोज़गारी की है। भारत को निवेश चाहिए ताकि रोज़गार के अवसर बढ़ाए जा सके और भारत का उद्योग बड़े पैमाने पर चीन के माल पर निर्भर है।
 
ऐसे में भारत चीन को पूरी तरह से ब्लैकआउट नहीं कर सकता है। चीन की चाहत है कि एससीओ की बैठक के बाद जो सहमति बनेगी उसमें अमेरिका के रवैए पर सीधे तौर पर या अप्रत्यक्ष तौर पर इसकी निंदा की जाए। बाकी देश इस सहमित पर हस्ताक्षर भी कर दें लेकिन भारत इससे बचने की कोशिश करेगा।

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