Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia

लोकसभा चुनाव 2019: आख़िर मायावती ने क्यों छोड़ा चुनावी मैदान

लोकसभा चुनाव 2019: आख़िर मायावती ने क्यों छोड़ा चुनावी मैदान
, शुक्रवार, 22 मार्च 2019 (12:10 IST)
- शरत प्रधान (वरिष्ठ पत्रकार)
 
बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती ने घोषणा की है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में वो ख़ुद चुनावी मैदान में नहीं होंगी। हालांकि वो पार्टी के उम्मीदवारों के लिए चुनावी मैदान में ज़ोर आजमाइश करते ज़रूर नज़र आएंगी।
 
उनकी इस घोषणा से कई लोग चकित हैं लेकिन उनके राजनीतिक ट्रैक रिकॉर्ड से परिचित लोग जानते हैं कि वो 2004 के बाद किसी भी चुनाव का सीधा सामना करने से बचती रही हैं। हालांकि उनके समर्थक इस फ़ैसले को पार्टी के लिए उनकी चिंता के तौर पर देखते हैं। वो समझते हैं कि उनकी नेता का क़द एक सांसद की राजनीति से कहीं ऊपर है। वहीं आलोचक चुनाव न लड़ने के फ़ैसले के पीछे उनके डर को देखते हैं।
 
मायावती की पार्टी आगामी चुनावों में कभी उनके दुश्मन रहे समाजवादी पार्टी के साथ उतर रही हैं और दोनों पार्टियों का प्रदेश में गठबंधन की घोषणा पहले ही हो चुकी है। मायावती कभी भी कोई जोखिम उठाने से बचती रही हैं और यही कारण है कि पिछले 15 सालों से वो प्रत्यक्ष रूप से चुनावी मैदान में नहीं रही हैं।
 
बुरे दौर में बसपा
मायावती अपने राजनीतिक सफ़र के शीर्ष पर 2007 में पहुंची थीं, जब वो चौथी बार उत्तर प्रदेश की सत्ता पर क़ाबिज़ हुई थीं। यह बहुत ही ख़ास उपलब्धि थी क्योंकि इससे पहले कभी भी बसपा अपने दम पर सत्ता में आने में क़ामयाब नहीं हो पाई थी।
 
इससे पहले वो भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से तीन बार मुख्यमंत्री बनी थीं और तीनों बार उनकी सरकार अपना तय कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी। वो मुख्यमंत्री तो बनी थीं पर उन्होंने विधानसभा का चुनाव लड़ने के बजाय विधान परिषद से जाने का फ़ैसला किया था।
 
साल 2012 में उनकी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। इस साल समाजवादी पार्टी का युवा चेहरा अखिलेश यादव मैदान में थे और वो मायावती को शिकस्त देने में कामयाब रहे थे। इन चुनावों में बसपा 403 में से महजद 87 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई थी। 2014 के लोकसभा चुनावों में बसपा का प्रदर्शन और ख़राब रहा। नरेंद्र मोदी की लहर के सामने उनकी पार्टी संसद में अपना खाता तक नहीं खोल पाई थी।
 
2014 में भी मायावती ख़ुद चुनाव नहीं लड़ी थीं पर उनकी पार्टी ने सभी 80 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। 1980 के दशक में अस्तित्व में आई बसपा ने कभी भी इतना ख़राब प्रदर्शन नहीं किया था। पिछले लोकसभा चुनावों में एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर पाना बसपा सुप्रीमो मायावती के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं था।
 
मायावती की दलील का मतलब
2014 के चुनावों के दौरान मायावती ने यह दलील दी कि वो पहले से ही राज्यसभा सांसद हैं और उनका कार्यकाल 2018 में ख़त्म होगा, इसलिए वो चुनाव नहीं लड़ेंगी। इस समय वो यह कह रही हैं कि "मेरे लिए मेरी पार्टी मुझसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है।"
 
उन्होंने बुधवार को जो कुछ भी कहा उसे सुनकर लगा कि वो 2014 जैसी ही बातें दोहरा रही हैं। "मेरे लिए यह अधिक महत्वपूर्ण है कि हमारा गठबंधन जीते। जहां तक मेरा सवाल है, मैं कभी भी यूपी के किसी भी सीट से लड़ सकती हूं। मुझे केवल वहां जाना होगा और नामांकन दाखिल करना होगा।"
 
उन्होंने दावा किया, "मुझे लगता है कि यह पार्टी के हित में नहीं होगा, इसलिए मैंने 2019 के लोकसभा चुनाव से दूर रहने का मन बनाया है।"
 
"जब भी मेरा मन करेगा, मैं चुनावों के बाद किसी भी सीट को ख़ाली करा कर वहां से चुनाव लड़ूंगी और संसद चली जाऊंगी।" हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि उनका चुनावी मैदान में न उतरने की दलील वास्तव में उनके डर और कम आत्मविश्वास को दर्शाता है।
 
कुछ अंदरूनी लोग मानते हैं कि बालाकोट हमले के बाद भाजपा की राष्ट्रवादी सोच को बल मिला है और यह मायावती के लिए चिंता का विषय है। वहीं कई लोग यह भी मानते हैं कि पुलवामा या बालाकोट हमला नहीं होता तब भी मायावती चुनावी मैदान में नहीं उतरतीं। जब तक उन्हें पूर्ण विश्वास नहीं होता कि उनकी जीत तय है तब तक वो रिस्क नहीं लेतीं।
 
यही कारण है कि वो ऐसा कह रही हैं कि चुनाव के बाद वो अपने जीते हुए सांसद को सीट ख़ाली करने कहेंगी और वहां से चुनाव लड़ेंगी। अगर वो सीधे तौर पर चुनाव लड़ती हैं और हार जाती हैं तो यह उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा और पार्टी पर नकारात्मक प्रभाव डालेगा।
 
डूबते को तिनके का सहारा
बुरी परिस्थितियों में मायावती की असुरक्षा की भावना तक खुलकर सामने आई जब उनकी पार्टी 2017 के विधानसभा चुनावों में महज 19 सीटों पर सिमट कर रह गई। यह अब तक का उनकी पार्टी का सबसे ख़राब प्रदर्शन रहा था। मायावती ने बाद में राज्यसभा से इस्तीफ़ा यह कह कर दिया कि उन्हें विभिन्न दलित मुद्दों पर संसद में बोलने की अनुमति नहीं दी जाती है।
 
उनकी परेशानी तब और बढ़ गई जब उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी का उदय हुआ। इसके नेता चंद्रशेखर आज़ाद को दलितों का नया मसीहा के रूप में पेश किया जाने लगा। मायावती ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और भीम आर्मी को भाजपा का सहयोगी बताया। वो ख़ुद को और अपनी पार्टी को नए सिरे से स्थापित करने की कोशिश करती दिखीं।
 
उन्होंने उत्तर प्रदेश के बाहर छत्तीसगढ़ में इस दिशा में काम किया और अजीत जोगी की पार्टी से समझौता किया। अंततः उनकी पार्टी का अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के साथ अप्रत्याशित गठबंधन हुआ, जो पार्टी के लिए डूबते को तिनके का सहारा की तरह है।
 
दोनों पार्टियों के गठबंधन ने उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में बेहतर प्रदर्शन किया था और इस प्रयोग को आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया गया। जातीय समीकरण के हिसाब से भी यह गठबंधन मज़बूत समझा जा रहा है। बसपा के पास दलित वोट बैंक है और सपा के साथ यादव-मुस्लिम वोट बैंक। इस हिसाब से अगर सभी साथ आते हैं तो गठबंधन के जीतने की उम्मीदें बढ़ जाती है।
 
हालांकि कहीं न कहीं बालाकोट हमले के बाद मायावती का आत्मविश्वास डगमगाया है और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि उनका चुनाव न लड़ने की घोषणा इसी का परिणाम है।

Share this Story:

Follow Webdunia gujarati

આગળનો લેખ

BJP पर फ़र्ज़ी रिकॉर्डिंग से 'पुलवामा हमले का आरोप' लगाने की कोशिश: फ़ैक्ट चेक