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एक दर्जी की हैरतअंगेज़ कहानी जो राजा बन गया

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बुधवार, 4 जुलाई 2018 (16:21 IST)
सांकेतिक फोटो
फ़्लाइट सार्जेंट सिडनी कोहेन ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनके साथ कुछ ऐसा होगा। 12 जून, 1943 को जब उन्होंने माल्टा में भूमध्यसागरीय द्वीप से उड़ान भरी थी तब उन्हें अपने साथ आगे होने वाली घटनाओं का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था।
 
 
कोहेन अनाथ थे और उन्होंने दर्जी का काम सीखा था। साल 1941 तक उन्होंने लंदन में काम किया। 20 साल की उम्र में कोहेन ब्रिटेन की रॉयल एयर फ़ोर्स (आरएएफ़) में भर्ती हो गए।
 
 
उस दिन कोहेन और उनके क्रू के दो सदस्य, सार्जेंट पीटर (नेविगेटर/रास्ता बताने वाले) और सार्जेंट लेस राइट (वायरलेस ऑपरेटर) ने माल्टा द्वीप से उड़ान भरी थी। उन्हें ख़बर मिली थी कि जर्मनी का एक प्लेन भूमध्य सागर में क्रैश हो गया है। इसके बाद वो बचाव कार्य के लिए निकल गए थे।
 
 
वहां पहुंचने पर कोहेन और उनकी टीम को कुछ नहीं मिला और उन्होंने लौटने का फ़ैसला किया। अचानक कोहेन ने दिखा कि कंपास अजीब-सा बर्ताव कर रहा है, रेडियो बंद हो गया है और विमान का ईंधन भी ख़त्म होने वाला है।
 
 
लांपेडूसा पहुंचे
उन्होंने अपने नेविगेटर पीटर से पूछा कि वो किस जगह पर हैं। पीटर ने नक्शा देखा और बताया, "हम इटली के लांपेडूसा द्वीप के पास हैं और यहां 4,000 से ज़्यादा सैनिक तैनात हैं।" तक़रीबन 20.2 किलोमीटर में फैला यह द्वीप बेनिटो मुसोलिनी के सैनिकों से पूरी तरह घिरा हुआ था। मुसोलिनी, दूसरे विश्व युद्ध में हिटलर के सहयोगी थे।
 
 
1943 में मित्र देशों की नज़र लांपेडूसा पर थी क्योंकि यह जगह सिसली पर आधिपत्य करने के लिए चलाए गए 'ऑपरेशन हस्की' के आड़े आ रहा था। यहां कोई भी बड़ा हमला करने से पहले लांपेडूसा को काबू में करना ज़रूरी था। इसलिए लांपेडूसा पर लगातार हमले किए जा रहे थे, बम बरसाए जा रहे थे।
 
 
इधर, कोहेन और उनके साथियों के सामने हालात बद से बदतर हो रहे थे। उनके पास सिर्फ़ दो विकल्प थे- विमान को समुद्र में क्रैश कराना या लांपेडूसा पर लैंड करना, ये जानते हुए कि वहां हज़ारों सैनिक हैं और उन्हें बंदी बना लिया जाएगा।
 
 
उन्होंने दूसरा, यानी लांपेडूसा में लैंड करने का विकल्प चुना। कोहेन ने मीडिया को दिए इंटरव्यू में लैंड करने के बाद की पूरी कहानी सुनाई, जो कुछ इस तरह है:
 
 
"हमने जैसे ही विमान लैंड कराया, लोगों की एक भीड़ हमसे मिलने आई।" हमने आत्मसमर्पण के लिए हाथ उठाए, लेकिन तभी हमने देखा वो लोग हाथ उठाए, सफ़ेद कपड़े लहराते हुए चिल्ला रहे हैं, 'नहीं, नहीं...हम सरेंडर करते हैं..'
 
 
ऐसा लगा कि जैसे पूरा द्वीप हमारे सामने पेश किया जा रहा हो। मैं थोड़ा शर्मिंदा हुआ, लेकिन फिर मैंने हिम्मत जुटाई और उनसे कहा कि वे हमें अपने कमांडर से मिलवाएं।
 
 
उनके कमांडर ने चट्टानों में तक़रीबन 20 मीटर नीचे बनी एक जगह पर शरण ले रखी थी। एक दुभाषिये ने मुझे समझाया कि वो कमांडर के समर्पण की ख़बर जल्द से जल्द अधिकारियों को देना चाहते हैं। लांपेडूसा में तैनात सैनिक वहां लगातार होने वाली बमबारी से तंग हो गए थे और वो मित्र राष्ट्रों के समक्ष जल्दी से जल्दी समर्पण करना चाहते थे।
 
 
वो चाहकर भी समर्पण करने का संकेत नहीं भेज पा रहे थे क्योंकि बमबारी की वजह से उनके वायरलेस कनेक्शन ने काम करना बंद कर दिया था। मैंने उनसे कहा कि वो सरेंडर करने का संदेश एक कागज पर लिखकर दें। उन्होंने कागज पर कमांडर का नाम और कुछ लिखकर मुझे दिया, जो मैं समझ नहीं पाया।
 
 
इसके साथ ही कमांडर ने पूरा लांपेडूसा द्वीप सार्जेंट कोहेन को सौंप दिया। मैंने उनसे कहा कि वो मुझे प्लेन पर ले जाएं, लेकिन वहां मदद के लिए कोई तैयार नहीं था क्योंकि अगले कुछ मिनटों में बमबारी हो सकती थी और सभी लोग छिपकर जान बचाए हुए थे। हालांकि द्वीप पर मौजूद लोगों के पास पर्याप्त ईंधन था और उन्होंने कोहेन को ईंधन दे दिया। लेकिन लांपेडूसा पर लैंड करना जितना नाटकीय था, वहां से टेक ऑफ़ करना भी लगभग उतना ही मुश्किल।
 
 
लांपेडूसा पर नियंत्रण बड़ी उपलब्धि
हम किसी तरह से प्लेन पर वापस पहुंचे और जैसे ही मैं उसे स्टार्ट करने वाला था, चार युद्धक विमानों ने हम पर फ़ायरिंग करनी शुरू कर दी। जान बचाने के लिए हमें नीचे कूदना पड़ा और चमत्कारिक रूप से हमें कोई चोट नहीं आई थी। ऐसा चार बार हुआ।
 
 
आख़िरकार हम उड़ान भरने में सफल हुए और अपने माल्टाई ठिकाने पर उतरे। वहां जाकर कोहेन ने अपने अधिकारियों को वो कागज सौंपा जिसमें सरेंडर करने की बात कही गई थी। उस वक़्त ब्रिटेन की हालत बहुत ख़राब थी और उसे हर रोज नाज़ी आक्रमण का डर रहता था। ऐसे में लांपेडूसा उसके हाथ में आना एक बड़ी उपलब्धि थी।
 
 
अगले दिन ब्रिटिश अख़बारों ने पहले पन्ने पर कोहन के बहादुरी भरे कारनामे की कहानी छापी। एक अख़बार ने ख़बर की हेडिंग में उन्हें 'लांपेडूसा का राजा' बताया। लांपेडूसा के गवर्नर ने 13 जून की सुबह आर्मी और नौसेना के सामने औपचारिक रूप से समर्पण किया।
 
 
सार्जेंट कोहेन विश्व युद्ध की समाप्ति तक आरएएफ़ में काम करते रहे। 26 अगस्त 1946 को जब वो वापस लौट रहे थे, उनका विमान लापता हो गया और फिर उनके बारे में कुछ पता नहीं लग सका।
 

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