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कश्मीर पर नेहरू को विलेन बनाना कितना सही

कश्मीर पर नेहरू को विलेन बनाना कितना सही
, रविवार, 18 अगस्त 2019 (10:55 IST)
जय मकवाना, बीबीसी संवाददाता
 
ये कहानी बंंटवारे के समय की है, जब दक्षिण एशिया में दो देश भारत और पाकिस्तान अस्तित्व में आए। उस दौरान कुछ देसी रियासतें भी थीं जो इन नए बने दोनों देशों में शामिल हो रही थीं।
 
पश्चिमी हिस्से सौराष्ट्र के पास जूनागढ़ इन्हीं में एक बड़ी रियासत थी। यहां की 80 फीसदी हिंदू आबादी थी जबकि यहां से शासक मुस्लिम नवाब महबत खान तृतीय थे। यहां अंदरूनी सत्ता संघर्ष भी चल रहा था और मई 1947 में सिंध मुस्लिम लीग के नेता शाहनवाज भुट्टो को यहां का दीवान (प्रशासक) नियुक्त किया गया। वो मुहम्मद अली जिन्ना के करीबी संपर्क में थे।
 
जिन्ना की सलाह पर भुट्टो ने 15 अगस्त 1947 तक भारत या पाकिस्तान में शामिल होने पर कोई फैसला नहीं लिया। हालांकि जैसे ही आजादी की घोषणा हुई, जूनागढ़ ने पाकिस्तान के साथ जाने का फैसला ले लिया था जबकि पाकिस्तान ने एक महीने तक इस अपील का कोई जवाब नहीं दिया।
 
13 सितंबर को पाकिस्तान ने एक टेलीग्राम भेजा और जूनागढ़ को पाकिस्तान के साथ मिलाने की घोषणा की। काठियावाड़ सरकार और भारत सरकार के लिए भी ये एक बड़ा झटका था। असल में जिन्ना जूनागढ़ को एक प्यादे की तरह इस्तेमाल कर रहे थे और राजनीति की बिसात पर उनकी नजर कश्मीर पर थी।
 
जिन्ना इस बात से निश्चिंत थे कि भारत कहेगा कि जूनागढ़ के नवाब नहीं बल्कि वहां की जनता को फैसला लेने का अधिकार होना चाहिए। जब भारत ने ऐसा दावा किया, जिन्ना ने यही फॉर्मूला कश्मीर में लागू करने की मांग की। वो भारत को उसी के जाल में फंसाना चाहते थे।
 
राजमोहन गांधी ने सरकार पटेल की जीवनी 'पटेल: अ लाइफ़' में ये बातें लिखी हैं।
 
अब भारत की बारी थी कि वो पाकिस्तान की योजना को विफल करे और इसकी ज़िम्मेदारी तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृह मंत्री सरदार पटेल पर थी।
 
कश्मीर का मामला
पाकिस्तान की ओर से 22 अक्टूबर 1947 को करीब 200-300 ट्रक कश्मीर में आए। ये ट्रक पाकिस्तान के फ्रंटियर प्रोविंस के कबायलियों से भरे थे। ये संख्या में करीब 5000 थे और अफरीदी, वजीर, मेहसूद कबीलों के लोग थे। उन्होंने खुद को स्वतंत्रता सेनानी कहा और उनका नेतृत्व पाकिस्तान के छुट्टी पर गए सिपाही कर रहे थे।
 
उनकी मंशा साफ थी, कश्मीर पर कब्जा कर उसे पाकिस्तान में मिलाना, जो कि उस समय तक इस बात पर अनिश्चित था कि वो भारत के साथ जाए या पाकिस्तान के साथ। उस समय लगभग सभी रियासतें पाकिस्तान या भारत के साथ जा चुकी थीं लेकिन जम्मू और कश्मीर असमंजस में था।
 
12 अगस्त 1947 को जम्मू-कश्मीर के महाराज हरि सिंह ने भारत और पाकिस्तान के साथ यथास्थिति संबधी समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया। समझौते का मतलब था कि जम्मू-कश्मीर किसी भी देश के साथ नहीं जाएगा बल्कि स्वतंत्र बना रहेगा। इस समझौते के बाद भी पाकिस्तान ने इसका सम्मान नहीं रखा और राज्य पर हमला बोल दिया।
 
वीपी मेनन ने अपनी किताब 'द स्टोरी ऑफ द इंटीग्रेशन ऑफ इंडियन स्टेट्स' में जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान की आक्रामक कार्रवाई पर विस्तार से लिखा है। हमला करने वाले कबायली एक के बाद एक इलाके कब्जा कर रहे थे और 24 अक्टूबर को श्रीनगर के क़रीब पहुंच गए। वे माहुरा पावर हाउस पहुंचे और उसे बंद करा दिया, जिससे पूरा श्रीनगर अंधेरे में डूब गया। कबायली लोगों से कह रहे थे कि दो दिनों में वो श्रीनगर को कब्जा कर लेंगे और वो शहर की मस्जिद में ईद मनाएंगे।
 
महाराजा हरि सिंह उन कबायलियों से लड़ने में खुद को अक्षम पा रहे थे। ऐसे समय में जब राज्य उनके हाथ से जा रहा था, उन्होंने स्वतंत्रता की बात भुला कर भारत से मदद की गुहार लगाई।
 
इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन' यानी शामिल होने का समझौता
 
इसके बाद दिल्ली में कश्मीर को लेकर राजनीतिक गतिविधियां तेज़ हो गईं और 25 अक्टूबर को लॉर्ड माउंटबेटन के नेतृत्व में रक्षा समिति की बैठक हुई।
 
इसमें तय किया गया है कि गृह सचिव वीपी मेनन को कश्मीर जाकर ज़मीनी हालात का जायज़ा लेना चाहिए और फिर सरकार को इसके बारे में जानकारी देनी चाहिए।
 
जैसे ही मेनन श्रीनगर पहुंचे, उन्हें आपातकालीन हालात का अहसास हो गया। ये महज घंटों की बात थी और क़बायली एक या दो दिनों में ही शहर में घुसने वाले थे। कश्मीर को बचाने के लिए महाराजा के पास एक ही रास्ता बचा था और वो था भारत से मदद मांगना।
 
केवल भारतीय सेना ही थी जो राज्य को पाकिस्तान में जाने से बचा सकती थी। हालांकि कश्मीर तब तक स्वतंत्र था। स्वतंत्र रियासत में सेना भेजने को लेकर लॉर्ड माउंटबेटन उदासीन थे।
 
वीपी मेनन को फिर जम्मू भेजा गया। वो सीधे महाराजा के महल पहुंचे, लेकिन पूरा महल खाली मिला, चीज़ें बिखरी हुई थीं। पता चला श्रीनगर से आने के बाद वो सो रहे थे।
 
मेनन ने उन्हें जगाया और सुरक्षा समिति की बैठक में लिए गए फ़ैसले से उन्हें अवगत कराया। महाराजा ने 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन' यानी भारत में शामिल होने के समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया।
 
'द स्टोरी ऑफ द इंटीग्रेशन ऑफ़ इंडियन स्टेट्स' में लिखा है, 'महाराजा ने मेनन से कहा कि उन्होंने अपने स्टाफ को कुछ निर्देश दिए हैं। उन्होंने अपने स्टाफ से कहा था कि जब मेनन वापस लौटें तो इसका मतलब होगा कि भारत मदद के लिए तैयार है। उस स्थिति में उन्हें सोने दिया जाए। अगर मेनन नहीं लौटते हैं तो इसका मतलब होगा सब कुछ समाप्त हो गया। ऐसी स्थिति में उन्होंने अपने स्टाफ को निर्देश दिया था कि उन्हें सोते हुए गोली मार दी जाए।' लेकिन ऐसी नौबत नहीं आई और आख़िरकार भारत की मदद समय से पहुंच गई।
 
समझौता करने में देरी क्यों हुई?
मेनन ने लिखा है कि कश्मीर की जटिल स्थिति के चलते महाराजा की तरफ से देरी हुई। कश्मीर राज्य में चार भौगोलिक इलाक़े थे- उत्तर गिलगित, दक्षिण में जम्मू, पश्चिम में लद्दाख और मध्य में कश्मीर घाटी।
 
जम्मू में हिंदू बहुसंख्यक आबादी थी, लद्दाख बौद्ध बहुल जबकि गिलगित और घाटी में मुस्लिम बहुल आबादी के साथ राज्य में मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी थी। चूंकि राजा हिंदू थे, इसलिए सभी उच्च पदों पर हिंदू काबिज थे और मुस्लिम ख़ुद को हाशिए पर महसूस करते थे।
 
मुस्लिम आबादी की आकांक्षाओं को आवाज़ दी शेख अब्दुल्ला ने और उन्होंने ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ़्रेंस का गठन किया। इस राजनीतिक संगठन को सेक्युलर बनाने के लिए उन्होंने 1939 में इसके नाम से मुस्लिम हटा दिया और केवल नेशनल कॉन्फ्रेंस नाम रखा।
 
महाराजा हरि सिंह के ख़िलाफ़ शेख अब्दुल्ला ने कई प्रदर्शन आयोजित किए और 1946 में उन्होंने कश्मीर छोड़ो आंदोलन शुरू किया। इसके बाद उन्हें लंबे समय तक जेल में डाल दिया गया। उस समय तक वो कश्मीर के सबसे लोकप्रिय नेता बन चुके थे।
 
आंबेडकर विशेष दर्जा देने के लिए तैयार थे?
 
डॉ पीजी ज्योतिकर ने अपनी किताब 'आर्षद्रष्टा डॉ बाबा साहेब आंबेडकर' में लिखा है, 'शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर के लिए विशेष दर्जे की मांग की थी लेकिन डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने साफ साफ मना कर दिया और उनसे कहा- आप चाहते हैं कि भारत आपकी रक्षा करे, सड़कें बनाए, जनता को राशन दे और इसके बावजूद भारत के पास कोई अधिकार न रहे, क्या आप यही चाहते हैं! मैं इस तरह की मांग कभी नहीं स्वीकार कर सकता।'
 
आंबेडकर से नाखुश शेख अब्दुल्ला नेहरू के पास गए, उस समय वो विदेशी दौरे पर जा रहे थे। इसलिए उन्होंने गोपालस्वामी अयंगर से कहा कि वो अनुच्छेद 370 तैयार करें। अयंगर उस समय बिना किसी पोर्टफ़ोलियो के मंत्री थे। इसके अलावा वो कश्मीर के पूर्व दीवान और संविधान सभा के सदस्य भी थे।
 
जनसंघ के अध्यक्ष बलराज मधोक ने अपनी आत्मकथा में एक पूरा अध्याय 'विभाजित कश्मीर और राष्ट्रवादी आंबेडकर' के विषय पर लिखा है।
 
मधोक अपनी किताब में लिखते हैं, 'मैंने आंबेडकर को कथित राष्ट्रवादी नेताओं से ज्यादा राष्ट्रवादी और कथित बुद्धिजीवियों से ज्यादा विद्वान पाया।'
 
कश्मीर को विशेष दर्जा
जब इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन लेकर मेनन दिल्ली एयरपोर्ट पहुंचे, सरदार पटेल उनसे मिलने के लिए वहां मौजूद थे। दोनों ही वहां से सीधे सुरक्षा समिति की बैठक में पहुंचे। वहां लंबी बहस हुई और अंत में जम्मू-कश्मीर के शामिल होने की शर्तों को स्वीकार कर लिया गया और सेना को कश्मीर भेजा गया। उस समय ये भी फैसला हुआ था कि जब स्थिति सामान्य हो जाएगी, वहां जनमत संग्रह कराया जाएगा।
 
21 नवंबर को नेहरू ने कश्मीर के संदर्भ में संसद में बयान दिया और उन्होंने जनमत संग्रह कराए जाने के अपने वायदे को दुहराया ताकि कश्मीर के लोग संयुक्त राष्ट्र या ऐसी ही किसी एजेंसी की निगरानी में अपने भविष्य का फैसला कर सकें।
 
'द स्टोरी ऑफ द इंटीग्रेशन ऑफ़ इंडियन स्टेट्स' में लिखा गया है कि हालांकि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत खान ने मांग रखी कि जनमत संग्रह से पहले भारत को अपनी सेना वापस ले लेनी चाहिए। नेहरू ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।
 
समझौते के मुताबिक, जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा बनना था, विशेष दर्जे के साथ। इसके अनुसार, रक्षा, विदेश मामले और संचार को छोड़कर बाकी मामले तय करने का जम्मू-कश्मीर राज्य को अधिकार था।
 
1954 में समझौते में एक और अनुच्छेद 35 ए जोड़ा गया। समझौते के अनुसार, जम्मू-कश्मीर के मामले में हस्तक्षेप करने या क़ानून लागू करने का भारत का अधिकार सीमित था।
 
राजमोहन गांधी ने अपनी किताब में लिखा है कि जवाहरलाल नेहरू विदेश में थे, अक्टूबर 1949 में संविधान सभा में कश्मीर को लेकर बहस हुई, जिसमें सरदार पटेल ने अपने विचार ख़ुद तक सीमित रखे और इसके लिए दबाव नहीं बनाया।
 
सरदार पटेल ने स्वीकारी थीं शर्तें
संविधान सभा के सदस्यों में इसे लेकर विरोध था, लेकिन सरदार पटेल ने, जो कि उस समय कार्यकारी प्रधानमंत्री थे, कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग को स्वीकार कर लिया। यही नहीं उन्होंने उससे भी अधिक रियायतें दीं, जो नेहरू विदेश जाने से पहले उन्हें निर्देशित करके गए थे।
 
शेख अब्दुल्ला और स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे और आजाद और गोपालस्वामी ने उनका समर्थन किया, इसलिए सरदार ने इस पर सहमति दी। आजाद, अब्दुल्ला और गोपालस्वामी नेहरू के विचार का ही प्रतिनिधित्व कर रहे थे इसलिए सरदार पटेल ने नेहरू की ग़ैरमौजूदगी में उनका विरोध न करने का फैसला किया।
 
अशोका विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में पढ़ाने वाले प्रोफेसर श्रीनाथ राघवन मानते हैं कि 'ये गलत धारणा है कि कश्मीर के मुद्दे पर अकेले नेहरू ने फैसला लिया।'
 
अपने लेख में श्रीनाथ ने लिखा है, 'कश्मीर को लेकर मतभेद के बावजूद नेहरू और सरदार एक साथ काम कर रहे थे। उदाहरण के लिए कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को ही लें। गोपालस्वामी अयंगर, शेख़ अब्दुल्ला और अन्य ने इस प्रस्ताव पर महीनों तक काम किया था। ये बहुत मुश्किल वार्ता थी। नेहरू ने बिना सरदार पटेल की इजाज़त के शायद ही कोई कदम उठाया।'
 
15-16 मई को सरदार पटेल के घर पर इस संबंध में एक बैठक हुई जिसमें नेहरू भी मौजूद थे। नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच हुई सहमति के आधार पर जब अयंगर ने सरदार को एक प्रस्ताव भेजा तो उस पर एक टिप्पणी भी लिखी कि, 'क्या आप इस पर अपनी सहमति के बारे में जवाहरलालजी को बताएंगे? आपकी इजाजत के बाद ही वो शेख़ अब्दुल्ला को चिट्ठी लिखेंगे।'
 
अब्दुल्ला ने संविधान के मूल अधिकार और दिशा निर्देशक सिद्धांत लागू न करने पर ज़ोर दिया और कहा कि ये राज्य की संविधान सभा पर छोड़ देना चाहिए। सरदार पटेल इस बारे में नाख़ुश थे लेकिन उन्होंने गोपालस्वामी से इस पर आगे बढ़ने को कहा।
 
उस समय तक प्रधानमंत्री नेहरू विदेश में थे। जब वो वापस लौटे, सरदार पटेल ने उन्हें एक पत्र लिखा, 'एक लंबी बहस के बाद ही मैं पार्टी को सहमत करा सका।'
 
श्रीनाथ ने अपने एक लेख में लिखा है कि 'सरदार पटेल ही अनुच्छेद 370 के निर्माता थे।'
 
पटेल की नाराज़गी
राजमोहन गांधी ने अपनी किताब में लिखा है, 'कश्मीर को लेकर भारत सरकार के कई कदमों के बारे में वल्लभभाई नाराज़ थे।'
 
जनमत संग्रह, संयुक्त राष्ट्र में मामले को ले जाना, ऐसी हालत में संघर्ष विराम करना जबकि एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में चला गया और महाराजा के राज्य से बाहर जाने जैसे कई मसलों को लेकर सरदार सहमत नहीं थे।
 
'समय-समय पर उन्होंने कुछ सुझाव दिए और आलोचनाएं भी रखीं, लेकिन उन्होंने कश्मीर मुद्दे पर कोई समाधान नहीं सुझाया था। वास्तव में अगस्त 1950 में उन्होंने जयप्रकाशजी को बताया था कि कश्मीर का मुद्दा सुलझाया नहीं जा सकता।'
 
जयप्रकाशजी ने कहा कि सरदार की मौत के बाद उनके अनुयायी भी ये बता पाने में अक्षम थे कि आख़िर वो ख़ुद कैसे इस मामले को हल करते। और ये एक सच्चाई थी।

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